Tuesday, December 28, 2010

नववर्ष

नववर्ष
वक्त के बहाव में ख़त्म हो रही है
उम्र
बहाव चाट कर जाता है
हर एक जनवरी को
जीवन का एक और बसंत ।
जानता हूँ ,
नहीं रूक सकेगा बहाव
काम आने लायक बना रहू
औरो के
नववर्ष से पक्की है आस
बची खूंची की सुबह
झरती रहती है
तरुण कामानाये ।
कामनाओं के
झराझर के आगे
पसर जाता है मौन
खोजता हूँ
बिते संघर्ष के क्षणों में
तनिक सुख ।
समय है कि
थमता ही नहीं
गुजर जाता है दिन
करवटों में
गुजर जाती ही
राते ......
नाकामयाबी कि गोंद में
खेलते-खेलते
हो जाती है
सुबह
कष्टों में भी दुबकी रहती है
सम्भावनाये ।
उम्र के बसंत पर
आत्ममंथन कि रस्साकस्सी में
थम जाता है जैसे
समय ।
टूट जाती है
उम्र
कि बाधाये
बेमानी लगने लगता है
समय का प्रवाह
और
डसने लगते है
ज़माने के दिए घाव
संभावनाओ कि गोंद में
अठखेलिया करता
मन अकुलाता है
रोज-रोज कम होती उम्र में
तोड़ने को बुरईयो का
चक्रव्यूह
और
छूने को तरक्की के
आकाश
नववर्ष से ऐसी है आस ।
पूरी हो आमजन की
कामनाये
बुराईयो पर ठनके
चाबुक
शपथ,
राष्ट्रीय सम्पति का ना होवे
नाश ........
नववर्ष मानवीय समानता का बने
मधुमास ...
आमजन के मन बजे झांझ
होवे सांझ सुहानी
चमकता रहे विहान
बूढ़े माँ-बाप कि बनी रहे छाया
दीन-नारायणी कि
राह अड़े ना कांटे ...
नववर्ष द्वार-द्वार सौगात बांटे
हो सके तो द्वार आना
तेरे आगमन पर हो जाऊँगा
एक साल का
और बूढ़ा
ह्रदय कि गहरी से गुज़ेगी
शहनाई
नववर्ष तेरा आना हो
मंगलकारी
दीन-धनिखा
एक स्वर में
एक दूजे को बांटे
तुम्हारे आगमन कि बधाई............नन्द लाल भारती

Thursday, December 23, 2010

एक बरस और ...........

एक बरस और
माँ की गोद पिता के
कंधो
गाव की माटी
और
टेढ़ी-मेढ़ी
पगडण्डी से होकर
उतर पड़ा
कर्मभूमि में
सपनों की बारात
लेकर ।
जीवन जंग के
रिसते घाव है
सबूत
भावनाओ पर वार
घाव मिल रहे बहुत ,
संभावनाओ के
रथ पर
दर्द से कराहता
भर रहा उड़ान ।
उम्मीदों को मिली
ढाठी
बिखरे सपने
लेकिन संभावनाओ में
जीवित है
पहचान
नए जख्म से दिल
बहलाता
पुराने के
रिस रहे निशान ।
जातिवाद-धर्मवाद
उन्माद की धार
विनाश की लकीर
खिंच रही है
लकीरों पर
चलना
कठिन हो गया है ,
उखड़े पाँव
बंटवारे की लकीरों पर
सद्भावना की
तस्वीर बना रहा हूँ ।
लकीरों के आक्रोश में
जिन्दगिया हुई
तबाह
कईयों का
आज उजड़ गया
कल बर्बाद हो गया ,
ना भभके ज्वाला
ना बहे आंसू
संभावना में
सद्भावना के शब्द
बो रहा हूँ ।
अभिशापित
बंटवारे का दर्द
पी रहा
जातिवाद-धर्मवाद की
धधकती लू में ,
बित रहा
जीवन का दिन
हर नए साल पर
एक साल का
और
बूढा हो जाता हूँ ........
अंधियारे में
संभावनाओ का दीप जलाये
बो रहा हूँ
सद्भावना के बीज ।
संभावना है
दर्द की खाद
और
आंसू से सींचे बीज
विराट
वृक्ष बनेगे
एक दिन........
पक्की संभावना है ,
वृक्षों पर लगेगे
समानता सदाचार
सामंजस्य
और
आदमियत के फल
ख़त्म हो जायेगा
धरा से
भेद और नफ़रत ।
सभावना के
महायज्ञ में
दे रहा हूँ आहुति
जीवन के पल-पल का
संभावना बस..........
सद्भाना होगी
धरा पर जब
तब
ना
भेद गरजेगा
ना शोला बरसेगा
और ना
टूटेगे सपने
सद्भाना से
कुसुमित हो जाए
ये धरा ,
संभावना बस
उखड़े पाँव
भर रहा उड़ान ,
सर्व कल्याण की
कामना के लिए
नहीं
निहारता
पीछे छूटा
भयावह
विरान...........
माँ की तपस्या
पिता का त्याग
धरती का गौरव रहे
अमर
विहसते रहे
सद्कर्मो के निशान
संभावना की उड़ान में
कट जाता है
मेरी जिनगी का
एक बरस
और
पहली जनवरी को .....नन्द लाल भारती








Thursday, December 16, 2010

सौदामिनी

सौदामिनी
हे सौदामिनी तू राम रहीम बुध्द
ईसा की राह चलना,
कुरान,बाइबिल, वेद पुराण
का पाठ करना ।
बुध्दम शरणम गच्छामि
गीता गुरुग्रंथ का बखान करना ,
बहुत हुआ संहार
अब उध्दार के राह चलना ।
दिल की मैल को कर साफ़
सेवा का का भाव रखना ,
ना हार जीत
बस
सद्प्यार की बात करना ।
गीत गाये जमाना
नेकी के ख्वाब हमारा ,
बहुत किया विध्वंस
अब
संकल्प हो तुम्हारा ।
सब धरती माँ के दुलारे
ना रखना बैर भाव मन में ,
नेक कर्म की मधुर धुन
छोड़ दो
धरती गगन में ।
हे सौदामिनी
कल्याण बसंत बहार
लेकर आना ,
सर्व एकता की चले बयार
तुम नव चेतना का
बिगुल बजाना ।
हे सौदामिनी
कर दे उपकार
ढीठ बुराईया हो राख ,
बह उठे तरक्की की
बयार निराली
मिट जाए
हर भूख की आग ।
पुकारता भारती सौदामिनी तुम्हे
आओ
एकता की मीनार बनाए ,
बयारो में सजे
धुन ऐसी हर इंसान
ख़ुशी के गीत गाये ................नन्द लाल भारती

Friday, December 10, 2010

झरोखे से

झरोखे से
दरारों ने जुल्म को
आंसुओ से
संवार रखा है ,
आशा की परतों को
ज़माने से रोक रखा है ।
कराहटो का आहटो में
धुँआ -धुँआ
सा लग रहा है ,
परिंदों में क्रुन्दन
लकीरों पर
अआमी मर रहा है ।
आँखों में सैलाब
दिल में दर्द
उभरने लगा है ,
आदमी के बीच
सीमाओ का
द्वन्द बढ़ने लगा है ।
दिल पर नई-नई
पुरानी खरोचे के
निशान बाकी है ,
खून से नहाई लकीरे
लकीरों की क्या झांकी है ।
जुल्म के आतंक के साए
मन रहा नित मातम
बस्तियों से उठ रही
चीखे
आदमी ढाह रहा सितम ।
सहमा सहमा सा कमजोर
चहुओर धुँआ -धुँआ है
छाया ,
आदमी-आदमी की नब्ज को
नहीं पढ़ पाया ।
भर गयी होती
घावे
दिल की दरारे अगर ,
आदमी खंड-खंड न होता
ना हुआ ऐसा मगर ।
चल रहा खुलेआम
जोर का जंग
आज भी ,
लकीरों के निखार का
यही राज भी ।
दिलो को जोड़ देते
भारती स्नेह के झोको से
छंट जाती आंधिया
बह जाता सोधापन
दिल के झरोखों से ...............नन्दलाल भारती

Tuesday, November 30, 2010

फाग

फाग
मुडेरो पर बैठने से
कतराने लगे थे काग।
खींचे-खींचे लोग थे
जैसे
दहक रही हो
आग ।
साथ के लोग अनजान
बन रहे थे ।
ना उठ रहे थे
हाथ
मुंह लटकाए चल रहे थे ।
बूढ़े कुछ पुरानी यांदो को
ताज़ा कर रहे थे ।
परदेसियो के आने की
दास्तान कह रहे थे ।
यकीन ही नहीं हो रहा था
वही गांव ।
कौन सी आंधी कुचल गयी
शीतलता की छांव ।
इतनी दूरी लोग रिश्ते तक
भूल गए।
वही माटी लोग वही
पर
क्या से क्या हो गए ।
सोंधी माटी में बेईमानी
विद्रोह का जाल
बिछ चुका था।
खून की कसम
जज्बात घायल पड़ चुका था ।
दादा-दादी की बात पुरानी
नए खिलखिला रहे थे ।
आपसी बैर की सेंध
घर टूट
लोग फूट चुके थे ।
रिश्ते से बेखबर
स्वार्थ की चिता में
जल रहे थे ।
हड़पने की होड़
कही हक तो कही
दहेज़ पर अड़े थे ।
भूख ,बेरोजगारी का तांडव
लो बिलबिला रहे थे ।
भला चाहने वाले
युवक
चिंतित लग रहे थे ।
जाम की टकराहट से
भयभीत लग रहे थे ।
कुछ पूछ रहे थे
भारती
कब शांत होगी आंधी
कब बैठेगे मुडेरो पर
काग.........
कैसे बचेगा गाँव का
सौंधापन
कब गुजेगा फाग----------------------नन्द लाल भारती

Monday, November 29, 2010

तप

तप
मुकद्दर का क़त्ल
कभी
सोचा ना होगा ।
विश्वास के बसंत में
पतझड़ ना होगा ।
भरी महफ़िल में
जनाजा
निकलता रहा ।
पक्की धुन का
राही
अश्रु पीता रहा ।
कठोर श्रम
लहुलुहान अरमान
लिख गया ।
सद्कर्म,
नेक इरादे का सपना
बिखर गया ।
कहते है
प्रोत्साहन हौशला
बढाता है ।
अरे यहाँ तो
क़त्ल
किया जाता है ।
बार-बार के
क़त्ल की
कहा करे
फ़रियाद ।
उफनता
विष का दरिया
रिसे पल -पल मवाद ।
कहता भारती
भले इरादे से
भोगा कष्ट
व्यर्थ ना जाएगा ।
पुष्पित है विश्वास तो
कल
तप
बन जाएगा .... नन्दलाल भारती

Thursday, November 25, 2010

जी लेते है
दीवाने आंसुओ से
प्यास बुझा लेते है,
चाहत भले
ना हो पूरी
ख्वाबो में
जी लेते है ।
नींद बनाये भले ही
दूरी
करवटों में
राते
गुजार लेते है ।
भूखे हो
या
प्यासे
मिल बांटकर
जी लेते है ।
अमीरी
ना हो
पूरा सपना
गरीबी में भी
मान से
जी लेते है ।
नफ़रत में भी स्नेह का
बीज बो देते है ।
किस्मत करे
बेवफाई चाहे
पसीने की रोटी
तोड़े लेते है ।
ऐसे हम दीवाने
तूफानों को भी
चिर देते है ।
जीवन जंग है भारती
हारकर भी
हम जीत लेते है ॥ नन्दलाल भारती...

Monday, November 15, 2010

लिख देना चाहता हूँ

लिख देना हूँ
मै वो सब लिख
देना चाहता हूँ ,
अक्षरों के लाल जोड़ देना
चाहता हूँ ।
कोरे पन्ने पर
कविता के रहस्य
असरदार ,
बात मुद्दे की जोड़ देना
चाहता हूँ।
साम्य क्रांति जो
ला सके,
सब कुछ वो जोड़
देना चाहता हूँ।
कविता के वजनदार
रूप में ,
करे जो
तानाशाहों पर वर
भेद करने वाले को दे
दुत्कार ।
नफाखोरो को धिक्कार
नशाखोरो का करे बहिष्कार ।
ऐसा कुछ
लिख देना चाहता हूँ
दीन असहायों के काम
आ सके
मानवता की ,
पहचान बन सके ।
लेखनी को वेग देना
चाहता हूँ ,
तमन्नाओ को किनारा
मिल सके
भविष्य खुबसूरत
नसीब हो सके ।
भारती समता की लकीर
खिंच देना चाहता हूँ ।
जहा गरीबी की रेखा
पहुँच ना सके ।
मै वो सब लिख देना चाहता हूँ.............॥ नन्दलाल भारती ...

Wednesday, November 10, 2010

झरोखे से

झरोखे से
दरारों ने जुल्म को
आसुओ से संवार रखा है ,
आशा की परतो को
ज़माने से रोक रखा है ।
कराहटो का आहटो में
धुँआ -धुँआ सा लग रहा है ,
परिंदों में क्रुन्दन
लकीरों पर आदमी मर रहा है ।
आँखों में सैलाब
दिल में दर्द उभरने लगा है ,
आदमी के बीच
सीमाओ का द्वन्द बढ़ने लगा है ।
दिल पर नई-नई
पुरानी खरोचों के
निशान बाकी है ,
खून से नहाई लकीरे
लकीरों की क्या झांकी है ।
जुल्म के आतंक के साये
मन रहा नित मातम ,
बस्तियों से उठ रही चींखे
आदमी ढाह रहा सितम ।
सहमा-सहमा सा कमजोर
चहुओर हुआ धुँआ है छाया
आदमी -आदमी की नब्ज़
नहीं पढ़ पाया ।
भर गयी होती घावे
दिल की दरारे अगर
आदमी खंड -खंड न होता
न हुआ ऐसा मगर ।
चल रहा खुलेआम
जोर का जंग आज भी
लकीरों के निखार
नफ़रत का यही राज भी ।
दिलो को जोड़ देते भारती
स्नेह के झोंको से
छंट जाती आंधिया
बह जाता सोंधापन
दिल के झरोखे से ....नन्द लाल भारती

Wednesday, November 3, 2010

मानव धर्मं

मानव-धर्म
तोड़-तोड़ वक्त
तपा रहा खुद को ,
निचोडना हाड संवारना है
जो भविष्य को ।
कैद नसीब की नहीं
हो रही रिहाई आज
इल्जाम पर इल्जाम
सिसकना हर सांझ ।
आसुओ के रंग
परिश्रम की कुंची
खीचना कल का
खाका
आज तो नसीब रूठी ।
अखरता साथ पग
भरना भाता नहीं ,
कचोटती परछाई
उसूल रास आता नहीं ।
आदमी पूरा तालीम पूरी
पर खोटा कहा गया
पैमाईस पर आदमी की
छोटा हो गया ।
बाँझ निगाहे उजड़ गया
आज मेरा ,
बिखरे ख्वाब के मोती
ना हुआ कोंई मेरा ।
नफरतो की बाढ़
कद को
उधार का कहा गया
झरते झरझर मवाद
पर खार छोपा गया ।
विवस तोड़ने को उदेश्य
मानव धर्म हमारा
दर -दर की ठोकरे
बर्बाद हुआ भविष्य हमारा ।
चाहत बड़ी धड़कता दिल
फड़कती आँखे
उफनता विरोध का दरिया
हर कोंई छोटा आंके ।
किस्मत बना हाड फोड़ना
हिस्से पल-पल रोना
ज़माना दे दे जख्म भले
हमें जहर नहीं है बोना ।
जितनी चाहे
अग्नि परीक्षा ले ले
जमाना मेरा
भारती मानव- धर्म
जीवन का सार बन गया है मेरा .....नन्दलाल भारती

Sunday, October 31, 2010

जनून

। जनून
सत्ता कैद में है जिनके
जनून चढ़ा है उनको
हाशिये के आदमी की
बर्बादी का ,
दमन भी हो रहा है
भयावह
वफादारी ,ईमानदारी
कर्म है पूजा का ।
हालात हो गए है
ऐसे
सच मानिये जनाब
बीच समंदर में
फंसी कश्ती में छेद
हो गया हो जैसे ।
इस जहा में
हाशिये के आदमी का
मधुमास
पतझड़ हो गया है
आज ही नहीं जनाब
कल भी
पादप से बिछुड़ा
पत्ता हो गया है ।
नहीं ठहरता अब
यकीन
आज के आदमी पर
बदलता है मुखौटा जो
मतलब -दर-मतलब पर ।
हार रहा है
कर्म सच्चा
आदमियत खुद की
बदनामी पर
आंसू बहा रही है
हाशिये के आदमी की
किस्मत
रुढिवादिता
और
रिश्वत डंस रही है
जनाब हाल
तो अब
और
भयावह हो रहे है
तरक्की
परिवारवाद ,भेदभाव की
चौखट पर
नृत्य कर रही है ।
सच जनाब
हाशिये के आदमी का
भविष्य
बीच समंदर में फंसी
कश्ती के छेद सा हो गया है
बच गया तो हिम्मत है
उसकी
नहीं तो बर्बादी का
उनको
जनून तो चढ़ा है। नन्दलाल भारती-- ३१.१०.२०१०







Saturday, October 30, 2010

उद्देश्य

उद्देश्य
मै मुस्करा -मुस्करा
नहीं थकता ,
पास होती कनक की
मादकता ।
बंदिशों में जकड़ा
मुस्करा पता नहीं
विषमता की
गंध सांस
भर पता नहीं ।
कठिन मेहनत
तरक्कियो से दूर
पटका गया ,
दिल पर दहकते
घाव का
निशान बन गया।
मन भेद की खाई
सनाराते देखे गए
लोग,
शाजिसे रचते
नित
नयी-नयी है लोग ।
भीड़ भरी दुनिया में
रुसुवईयो को झेला
परायी दुनिया
यहाँ तो लगा है
स्वार्थ का मेला ।
चाँद सितारे तोड़ने की
ललक
सदा लगी रही
खुले द्वार
तरक्कियो बस
जव़ा मकसद यही ।
नासूर सा जख्म
एकता का भाव
मन में ,
कुचल गयी आशा
तबाह
भविष्य इस जहा में ।
अच्छी दिनों की आस
बढती उम्र की बूढी सांस
दया धर्म-सदभाव की
पूरी हो जाती आस ।
निःसंदेह मेरे जीवन का
उदेश्य
सफल हो जाता
परायी दुनिया
पराये लोगो के बीच
मै
मुस्करा जाता .....नन्दलाल भारती

Wednesday, October 20, 2010

बचपन

बचपन ..
सोचा था ,
बड़े मन से
बच जायेगा
बचपन अपना ।
न बचा न हुआ
पूरा सपना ।
भावनाओ के साथ
आकाश छूने की
लालसा
जिंदगी चीज
क्या
बस खेल खा
सो जाना ।
आत्मीयजनो का प्यार
तहे दिल से
खुश हो जाना ।
सबका स्नेह
सब में बाँट देना
अनजाने में
बचपन सरक गया।
बचपन पर सवार
जवान हो गया
जवानी के साथ
सांध्य की राह चल पड़े
सोचा था
क्या
क्या से
क्या हो गए ।
यादो में खोये रह गए ।
बचपन गया
जवानी गयी
बूढ़े हो गए
सोचा था
बड़े मन से
होगा बचपन का
साथ
सोचा धरा रह गया
बचपन
छोड़ गया हाथ ....................नन्दलाल भारती

Thursday, October 14, 2010

वजूद

वजूद
सब कुछ भूल जाना
चाहता हूँ
रिसते घाव
छलकते आंसू
पेट की भूख
और
भेद का दंश भी ।
अफ़सोस
भेद की दीवार को
मज़बूत करने वाले लोग
कुछ भूलना ही
नहीं चाहते
कुरेदते रहते है
पुराने घाव ।
मै हूँ कि
सब कुछ भूल जाना
चाहता हूँ
दिल में
दफ़न प्यास के लिए ।
मेरा प्रयास निरर्थक
लगने लगा है जैसे .
हर तरफ धुँआ
पसरने लगा है ।
अथक प्रयास के बाद भी
नहीं जीत पा रहा हूँ
भेद का समर।
आहत हो गया है
मेरा सब कुछ ,
भूत भविष्य
और वर्तमान भी।
मौन संघर्षरत हूँ
फिर भी
भारती
उजले वजूद के लिए .....नन्द लाल भारती

एक और दिन

एक और दिन
अरमानो के जंगल में
बढ़ने लगे है हादसे
सोच पर नहीं लगा है
कोई ग्रहण लेकिन
बार-बार मन करता है
हर ग्रहण छांट दू
सामाजिक आर्थिक
या
चाहे हो अन्य कोई।
मन की गहराई में दबी
लालसाओ को
पूरा कर लू
हर सवाल का
जबाब ढूढ़ लू ।
कर लू,
तमाम मीठी कड़वी बाते
ना कर सका जो
अब तक
सम्माज की वेदना
संवेदना की बाते
अटक जाती है
कंठ में
सारी वे बाते
बेरुखी को देखकर ।
तरासता रहता हूँ
अभिव्यक्ति का रास्ता
तोड़ सकू सारा
मौन
खोल सकू
चहुमुखी तरक्की के रास्ते
बिना किसी रुकावट के ।
इन्ही सोचो में डूबा
कट जाता है भारती
ज़िन्दगी का
एक और दिन .........नन्दलाल भारती

Tuesday, October 12, 2010

ज़ंजीर

ज़ंजीर
पाँव जमे भी ना थे
जहा में
पहरे लग गए
ख्वाबो पर
पाँव जकड गए
ज़ंजीरो में
गुनाह क्या है
सुन लो प्यारे ...
आदमी होकर
आदमी
ना माना गया
जाति के नाम से
जाना गया
यही है
शिनाख्त बर्बादी की
मेरे और मेरे देश की
नाज़ है भरपूर
देश और देश की
मांटी पर
एतराज है भयावह
जातिभेद के बंटवारे की
लाठी पर
आजाद देश में
सिसकता हुआ
जीवन
कैसे कबूल हो प्यारे .....
आदमी हूँ
आदमी मनवाने के लिए
जंग उसूल नहीं हमारे
बुध्द का पैगाम
कण-कण में जीवित
नर से नारायण का
सन्देश सुनाता
दुर्भाग्य या साजिश
आदमी...
आदमी नहीं होता ॥
यही दर्द जानलेवा
पाँव की ज़ंजीर भी
डाल दिए है
जिसने नसीब पर ताले
लगे है शादियों से
ख्वाब पर पहरे
अब तोड़ दे
भेद की जंजीरे
मानवीय समानता की कसम खा ले
आजाद देश में ,
आदमी को छाती से लगा ले.......नन्दलाल भारती॥ ११.१०.२०१०




अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति
ज़माने की दर पर
बड़े घाव पाए है ,
हौशले बुलंद पर
खुद को दूर पाए है ।
पग-पग पर साजिशे
हौशले ना मरे
षणयंत्र के तलवार गरजे
पर रह गए धरे ।
क्या बयान करू
नसीब पर खूब चले आरे ,
लूट गयी तालीम
अभिव्यक्ति संबल हमारे ।
छल की चौखट पर
कर्म बदनाम हुआ ,
दहक उठे ख्वाब
फ़र्ज़ बदनाम ना हुआ ।
चाँदी का जूता नहीं
सिर पर नहीं ताज
फ़कीर का जीवन
अभिव्यक्ति का नाज़ ।
षणयंत्र भरपूर,
रास्ते बंद ,
ना चाहू खैरात ,
हक़ की ख्वाहिश ,
क्यों चढ़ी माथे
बैर की बारात ।
मिट जायेगा कल
आज पर कतरे जायेगे ,
छीन जाए रोटी भले
मर कर ना मर पायेगे ।
दीवाना समय का पुत्र
क्या मार पाओगे ,
आज लूट लो नसीब भले
एक दिन आत्मदाह
कर जाओगे ........नन्दलाल भारती॥ ११.१०.२०१०

Monday, October 11, 2010

.. धरोहर ॥
मांटी के लोदे -लोदे पर टिका
आशियाना ,
ईंट, पत्थर
या
हो खपरैल का ।
निहसंदेश साझे परिवार की
अमिट मिशाल रहा ।
जहा कईA पीढ़िया करती रही
एक साथ निवास ।
जहा हर एहसास
एक सा था
हुआ करता ।
छांव , धुप , चांदनी
या रही हो कलि रात ।
ठंडी ,गर्मी की तपन
या
सोंधी बयार।
लोग जहा होते थे
कलह, दंभ से बेखबर ।
सब का सब
होती थी एक नजर ।
उपजता था
जहा सच्चा विश्वास ।
अहंकार जहा सिर
माहि उठा पाता था ।
तीब्र आवेश भी
मर्यादा में ढल जाता था ।
सच यही तो सुख
और
पारिवारिक आनंद है ।
साझे परिवार का
खैपरैल की छांव का ।
मांटी के चूल्हे का सोंधापन
पीढियों का एक घर ।
जहा घर मंदिर
और
नारी गृहलक्ष्मी थी ।
यही तो
पारिवारिक सम्पदा
और
विरासत है ,
साझे परिवार के
स्थायीपन का भी ।
अफसोस बहुत कुछ
टूट रहा है ।
आधुनिकता का विषधर
अपनत्व साझेपन
और
पीढियों के कुनबे को
डंस रहा है ।
संवर लो भारती
पुरखो की धरोहर
संयुक्त परिवार
और
उसके निश्छल सोंधेपन को भी ............नन्दलाल भारती ... ११.१०.२०१०

Saturday, October 9, 2010

सिंहासन उखड सकता है..............

सिंहासन उखड सकता है.............
हसरतो को मिल रहे
घाव हजारो ,
दम्भी जमाना कर रहा
तिरस्कार प्यारे ।
मौज थी अपनी
धुन की पक्की ,
जीत पलको पर
बाढ़ सच्ची ।
हसरतो का क़त्ल
निरंतर,
उमड़ रहा परायापन का
समंदर ।
बेगानेपन की तूफान
बढ़ रही जो आज
दमन का भयावह
राज।
हाल हो गयी है
साख से बिछुड़े
पत्ते की तरह
जिद है अपनी भी यारो
पुआल की रस्सी की तरह .
जान गया हूँ
आदमी को बांटने वालो
कमजोर की नसीब को
नहीं मिलेगा मुकमल जहा
भेद का नर-पिशाच
नफ़रत की आग
दीन को दीन बनाये रखने की
साजिश जवान हो जहा ।
याद रखना हक़ छिनने वालो
दीन का शौर्य
इतिहास नया लिख सकता है ,
दे दो हिस्से का आसमान
वरना
सिंहासन उखड सकता है ......नन्दलाल भारती..१०.१०.२०१०

Friday, October 8, 2010

इंसाफ कहा प्यारे......

इंसाफ कहा प्यारे.....


इंसाफ की आस में
रोशनी होती
दिन पर दिन मंद ,
योग्यता आज बौनी
श्रेष्ठता के हौशले बुलंद ।
ऐसे में
इन्साफ कहा प्यारे
अरमानो पर
जब पड़ रहे हो ओले
जीवन संघर्ष
संभावनाओ में
योग्य कर्मशील अदना
जब जी रहा ह़ो
पल-पल खाकर हिचकोले ।
इन्साफ की ताक में
उम्र गुजर गयी ,
नसीब का बलात्कार
जीत भी हार हो गयी ।
किससे कैसी .......?
इन्साफ की आस
हाशिये के आदमी को
जब मान लिया
गया हो
अभिशाप ।
शैक्षणिक और व्यावसायिक
महारथ भी बौनी हो गयी ,
श्रेष्टता की तरक्की
दिन दुनी रात चौगुनी हो गयी ।
ऐसी फिजा में कैसे आएगी
तरक्की
आम-आदमी के अंगना
क्या जरुरी नहीं
हो गया अब आम-आदमी को
मौन तोड़ना ।
हक़ की लूट ,नसीब का बलात्कार
हाशिये का आम पढ़ा-लिखा आदमी
नित- सह रहा अत्याचार ।
दीन चौथे दर्जे के आदमी के
विकास के रास्ते बंद हो रहे
ललचाई आँखों से देखने के
हुक्म दिए जा रहे ।
आम-आदमी का भी कोई
अस्तित्व है
नकारा जा रहा
हक़ की मांग पर
पाँव तले जमीन तक
छिनने की साजिश हो रही
कैसे मिलेगा इन्साफ
योग्य आम- चौथे दर्जे के
आदमी को
भेद भरे जहा में
न सुनने वाला अब
कोई है पुकार ,
इस जहा में गूंज रही
श्रेष्ठता, भेद-भाव ,भाई-भतीजावाद की
फुफकार ....
समान तरक्की और समानता का
जीवन चाहिए
शिक्षित बनो संघर्ष करो
तभी होगा उध्दार
इन्साफ की आस में
अब ना और इंतजार .....नन्दलाल भारती .....०९.१०.०१०

उसूल

उसूल
जमाने की भी में
हम ना खो जाये
नहीं
इसका गम मुझे ।
गम है यही कि
उसूलो का जनाजा
ना निकल जाये ।
सींचे है
लहू- पसीने से
जो
किया है त्याग
विषपान कर।
जिंदा रखने के लिए
आदमियत का
सोंधापन ।
थाती तो यही है
मेरी ज़िन्दगी भर की।
पराई दुनिया में
उसूलो के दम
जिंदा रहा ।
खौफ लगाने लगा है
उसूलो को रौदने का
षड्यंत्र होने लगा है ।
नहीं बुझी है
प्यास भेद भरे जहा में ।
आसूओ से
प्यास बुझाने लगा हूँ ।
सजग रहता हूँ
हर दम भारती
कही मर ना जाए
मेरे उसूल
किसी फरेब में
फंसकर ...............नन्दलाल भारती ॥ ०८.१०.२०१०

Saturday, October 2, 2010

अपराध

अपराध
भला ये कैसा अपराध
निरापद अपराधी हो गया ,
भूखे श्वान को रोटी देना
जिल्लत बन गया
आदमी बदनाम हो गया ।
आदमी ब्रह्माण्ड का
सबसे होशियार प्राणी है
दूसरे ग्रह पर बसने की
कर रहा तैयारी है
विज्ञानं के युग में
छुआछूत भारी है
दलित की रोटी खाकर
उंच बिरादरी का श्वान
अपवित्र हो जाता है ।
रोटी देने वाले कर्मवीर को
दंड दिया जाता है
लहू को पसीना कर
फसल तैयार करने , निर्माण करने वाले को
अछूत कहा जाता है
सारा जहा शोषित, वंचित
दलित के श्रम से उपजी
रोटी खाता है
एहसान के बदले
कर्मवीर
दुत्कार पाता है ।
दुनिया बदली पर ना बदले
रुढ़िवादी रीतिरिवाज
जीवन की रीढ़
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर
अछूत है आज भी
आज़ादी के बाद भी ।
रोटी किसका पसीना पीकर
खिलती है
सारा जहा जानता है ,
दुर्भाग्य नहीं तो और
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर को
अछूत कहा जाता है ।
इसी श्रमवीर के पसीने से
तपकर रोटी मिल रही है
जिसके पसीने से
उपजी रोटी खाकर
दुनिया पल रही है .
उसी के हाथ से रोटी खाकर
उंच बिरादरी के श्वान का अभिमान ध्वस्त हो जाता है
रोटी देने वाले का स्वाभिमान कुचला जाता है ।
ये कैसा अन्याय
श्रमवीर अपराधी हो गया
जुल्म उपभोग करने वाला निरापद
कहते है अन्न उपजाने वाला भगवान् होता है
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर
यही तो कर रहे है
सम्मान के बदले पग-पग
अपमान पा रहे है
पुराना जाति परम्परा के नाम
बदसलूकी अपराध है यारो
नफ़रत की फसल को
समानता के गंगाजल से
सींचने का वक्त है
खा लो कसम फिर ना होगा
जाति-भेद के नाम
आदमियत का अपमान
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर
दुनिया को यौवन देने वाला
धरती की छाती चीरकर
रोटी उपजाने वाला
सचमुच है भगवान...............नन्दलाल भारती ॥ ०१.१०.२०१०

Tuesday, September 28, 2010

स्वार्थ का कूड़ा

.. स्वार्थ का कूड़ा ॥
स्वार्थ का कूड़ा जब
जिंदगी में
घर कर जाता है ना ,
आँखों से सूझता ही नहीं,
दिल भी मानो मर जाता है ।
आदमी पिशाच होकर
कुख्यात हो जाता है
तानाशाह स्वार्थी के नाम से ।
आज भी कई नर पिशाच
जड़ खोद रहे है
इंसानियत की
गरीब जनता की
शोषित पीड़ित जनों की ।
निर्भय भर्ष्टाचार का आतंक
मचा रहे है ।
नकाब ओढ़े बढ़ रहे है
तरक्की की ओर
जब नकाब छंट
जाएगा ना
तब खिताब मिलेगा
आदमखोर
स्वार्थ तानाशाह का ।
सचमुच स्वार्थ के कूड़े में
दबे लोग ,
स्टालिन, पोलपोट,हिटलर ही तो
कहे जाते है ।
अरे नकाबपोशो
उतर जाएगा
एक दिन नकाब जब ना
खुद दाग लेकर मुंह छिपाओगे
या
कर लोगे
आत्मदाह
हिटलर की तरह ।
तुम्हारी पीढिया
नहीं ढो पाएगी
ख़िताब को ।
सच मानो स्वार्थ का कूड़ा
जब सिर चढ़ जाता है ना ।
आदमी को आदमखोर बना देता है ।
स्वार्थ के दाग को धोते -धोते
कई पीढिया
शर्मशार हो जाती है
अभी तक तो
ऐसा ही हुआ है ,
स्टालिन,हिटलर और पोलपोट के साथ .......नन्दलाल भारती ... २८.०९.२०१०







Sunday, September 19, 2010

सम्मान

सम्मान
वेद पुरानो ने माना
हमने भी दिया है
सम्मान ,
पति नारी जहा है
मान
वहा पालथी मारे
सम्पन्नता
कथन महान ।
वज्र सी कठोर
अग्नि सी
प्रचंड
पुष्प सी अभिलाषा
मिट जाती
फ़र्ज़ पर
खंड-खंड।
उज्जवल मनोरथ
परिवार की
कश्ती ,
लक्ष्मी सरस्वती
दुर्गा की
प्रतिमूर्ति ।
आदर्श आज
भी
जहा में
निश्छल मान
मानव-मन में ।
मान को बहार
स्वाभिमान को चाहिए
उड़ान ,
घर बना रहे मंदिर
त्याग के
बदले नारी को
सम्मान चाहिए .......... नन्दलाल भारती .....१९.०९.२०१०

धरती का साज

धरती का साज
नारी जीवन विरह का
पर्याय नहीं ,
परमार्थ की सौगात
उत्पीडन का जीव नहीं ।
नयनो में आंसू अथाह
उर से बरसे
वचन महान
पग पड़े जहा,
वहा सम्व्रिधि के बने
निशान ।
नारी जीवन न्यौछावर
और
सौगात ,
खुद से बेखबर
परिवार की फिक्र में
बोती आस।
होंठो पर मुस्कान
पलको पर आंसू के
हार,
व्यथा का बोझ भरी
नारी जाती
जीत-जीत कर हार ।
पुलकित जग
ममता की निर्मल छांव
धरती की साज
नारी
कुसुमित परिवार
जहा -जहा
पड़े तेरे पाँव .......नन्दलाल भारती ... १९.०९.२०१०





NARAYANI

नारायणी
गंगा सी मनोरथ वाली
नारायणी ,
मानवता का गौरव
जगत कल्याणी ।
दया अपार
ममता का सागर अथाह ,
घर परिवार पर आते ,
दुःख का झोंका
कर जाती कराह ।
मर्यादा खातिर
हर
हलाहल पी जाती ,
पति को परमेश्वर
खुद अर्धांगिनी कही जाती ।
स्वार्थ की आंधी
जीवन में भर रही है
खार,
आँखों से झरता नीर
कल्याणी होती लाचार।
अन्धविश्वासी लोग
सीता भी छली गयी
अग्नि परीक्षा
देकर भी मुक्त नहीं हुई ।
आज भी
कल्याणी कर रही गुहार
समानता का
मांग रही
अधिकार
चाहती बुराईयो का
बहिष्कार ।
हे दुनिया वालो
गंगा सी
मंतव्य
वाली की
सुनो पुकार
क्यों विष पीये
कल्याणी
दे दो
अधिकार ............नन्दलाल भारती.... १९.०९.२०१०

Saturday, September 18, 2010

वक्त के कैनवास पर

वक्त के कैनवास पर
छांव को छांव मान लेना
भूल हो गयी ,
परछईया भी रूप
बदलने लगी है
दाव पाते कलेजा चोंथ
लेती है
कहा खोजे छाँव
अब तो
छांव भी आग उगलने लगी है ।
छांव की नियति में
बदलाव आ गया है
वह भी शीतलता देती है
पहचानकर
छांव में अरमानो का
जनाजा सजने लगा है
क़त्ल का पैगाम मिलाने लगा है ।
मुश्किल से कट रहे
बसंत के दिन
शामियाने से मातम
फुफकारने लगा है
उम्र की भोर में
शाम
पसारने लगी है ।
तमन्ना थी
विहान होगा
सजेगे सितारे
कलयुग में नसीब तड़पने लगा है ।
मधुमास को मलमास
डंसने लगा है
नहीं तरकीब कोई
चाँद पाने के लिए
उम्र गुजर रही
सद्कर्म की राह पर
बहुरूपिये छांव ने
दागा है किये
वेश्या के प्यार की तरह
आमी छांव की आड़
धुप बोने लगा है
खौफ खाने लगा है
ना विदा हो जाऊ जहा से
छांव से सुलगता हुआ
सपनों की बारात लिए
ऐसा कैसे होगा .............?
भले जमाना न सुने फरियाद
फ़रियाद करूंगा
कलम से
वक्त के कैनवास पर
लिखूंगा बेगुनाही की दास्ताँ
भले क़त्ल कर दिए जाए सपने
मै संभावना में
कर लूँगा बसर
कलम थामे कल के लिए ............नन्दला भारती ......१८.०९.२०१०

Friday, September 17, 2010

उम्मीद

उम्मीद ..
म्मीद पर उम्मीद
जीवन रसधार ,
गैर-उम्मीद टूटी
हिम्मत
डूबे मझधार ।
जीवन का दुःख-सुख
ओढ़ना-बिचौना
उम्मीद पर उंगली
रिश्ता हुआ बौना ।
उम्मीद बोती
निराशा में अमृत -आशा
जन-जन समझे
उम्मीद की परिभाषा ।
उम्मीद के समंदर में
जीवित है सपने
टूटी उम्मीद
बिखरी चाहत
बैर हुए अपने ।
उम्मीद है बाकि
पतझड़ में बरसे
बसंत
उम्मीद का ना कोइ
ओर-छोर ना है अंत ।
उम्मीद विश्वास
बन जाते
जग के बिगड़े काम
मंदिर मस्जी,गिरजाघर
बुध्द का कहे पैगाम।
उम्मीद जीवन
या
दूजा नाम धरे भगवान
उम्मीद है
जीवन की डोर
टूटी हुआ वीरान ।
मैंने भी थाम लिया है
उम्मीद का दामन
चली तैयार बार-बार
नसीब बनी रेगिस्तान ।
काबिलियत का क़त्ल
हक़ पर सुलगे
सवाल ,
लूटी नसीब सरेआम
खड़ा तान ऊंचा भाल ।
अभिमान दहके
फूटा शोला विष सामान
उम्मीद के दामन लिपटा
गढ़ गयी पहचान ।
उम्मीद वन्दनीय
गाद,खुदा, प्रभु का प्रतिरूप
जमी रहे परते
उम्मीद की छंट जायेगी धुप .............नन्दलाल भारती ॥ १७.०९.२०१०

हिंदी हिन्दुस्तान की आत्मा है


Thursday, September 16, 2010

सुगंध

सुगंध
जमीन पर आते ही बंधी
मुट्ठिया खिंच जाती है ,
रोते ही ढोलक की थाप पर
सोहर गूंज जाता है ।
जमीन पर आते ही
तांडव नजर आता है,
समझ आते ही
मौत का डर बैठ जाता है ।
मौत भी जुटी रहती है
अपने मकसद में ,
आदमी को रखती है
भय में ।
सपने में भी
डरती रहती है
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर
मुंह बाए कड़ी रहती है ।
परछाइयो से भी चलती है
आगे-आगे
आदमी भी कहा कम
चाहता निकल जाए आगे ।
भूल जाता आदमी
तन किराये का घर
रुतबे कि आग में
कमजोर को भुजता जाता
मानव कल्याण में जुटा नर,
नर से नारायण हो जाता ।
मौत जन्म से सात लगी
पीछे पड़ी रहती है
सांस को शांत करके ही रहती है ।
सबने जान लिया पहचान लिया
जीवन का अंत होता है
ना पदों जातिधर्म के चक्रव्यूह
बो दो सद्कर्म
और
सद्भावना कि सुगंध
आदमी अमर
इसी से होता है.................नन्दलाल भारती ... १६.०९.२०१०
हिंदी है तो hai हम ,हिंदी पर प्रहार देगा गम ही गम

Wednesday, September 15, 2010

उपकार

उपकार ..
नफ़रत किया जो
तुमने क्या पा जाओगे ?
मेरे हालत एक दिन
जरुर बह जाओगे ।
गए अभिमानी
कितने
आयेगे
और
गरीब कमजोर को
सतायेगे ।
मै नहीं चाहूगा
कि वे बर्बाद हो
पर
वे हो जायेगे ।
जग जान गया है
गरीब कि
आह
बेकार नहीं जाती
एक दिन ख़ुद
जान जाओगे ।
मै कभी ना था
बेवफा
दम्भियो ने
दोयम दर्जे का
मान लिया
शोषित के दमन कि
जिद कर लिया ।
समता का पुजारी
अजनबी हो गया
कर्मपथ पर
अकेला चलता गया ।
वे छोड़ते रहे
विषबान,
घाव रिसता रहा
आंसुओ को स्याही मान
कोरे पन्ने सजाता रहा ।
शोषित कि
काबिलियत का
अंदाजा ना लगा
भेद का जाम ,
महफ़िलो में
शोषित अभागा लगा ।
वक्त का इन्तजार है
कब करवट बदलेगा
दुर्भाग्य पर कब
हाथ फेरेगा ।
मेरी आराधना कबूल करो
प्रभु
नफ़रत करने वालो के
दिलो में
आदमियत का भाव
भर दो
एहसानमंद रहूगा
तुम्हारा
उपकार कर दो ....नन्दलाल भारती ... १५.०९.२०१०




Tuesday, September 14, 2010

आते हुये लम्हों

आते हुये लम्हों
हे आते हुये लम्हों
बहार की ऐसी बाया लाना ,
नवचेतना, नव परिवर्तन
नव उर्जावान बना जाना ।
अशांति विषमता,
महंगाई की प्रेत छाया
ना मदराये
ना उत्पात ना भेदभाव
ना रक्तपात
ना ममता बिलखाये।
मेहनतकश धरती का सूरज चाँद
नारी का बढे सम्मान ,
न तरसे आँखे
मेहनत पाए
भेद रहित सम्मान ।
जल उठे मन का दिया ,
तरक्की के आसार
बढ़ जाए
माँ बाप की ना टूटे
लाठी
कण-कण में ममता
समता बस जाए ।
भेद का दरिया सूखे
दरिंदो का ना गूंजे हाहाकार ।
इन्सोनो की बसत में बस
गूंजे
इंसानियत की जयजयकार।
देश और मानव
रक्षा के लिए
हर हाथ थामे तलवार
तोड़ दीवारे भेद की सारी
देश-धर्म के लिए रहे तैयार ।
जाती धर्म के ना पड़े ओले
अब तो मौसम बसंती हो जाए
शोषित मेहनतकश की चौखट तक
तरक्की पहुँच जाए ।
एहसास रिसते जख्म का दर्द
दिल में फफोले खड़े है ,
मकसद निज़दिकी उनसे
जो तरक्की समता से
दूर पड़े है ...
बीते लम्हों से नहीं
शिकायत
पूरी हो जाए अब
कामना ,
हे आते हुये लम्हों
आस साथ तुम्हारे
सुखद हो
नवप्रभात
सच हो जाए
खुली आँखों का सपना ...नन्द लाल भारती॥ १४.०९.२०१०
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हिंदी माता है, माता का अपमान सम्मान तो नहीं
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Monday, September 13, 2010

राह जाना है

राह जाना है ..
ये दीप आंधियो के प्रहार से
थकने लगा है ,
खुली आँखों के सपने
लगे है धुधले .
हारने लगी है अब उम्मीदे
भविष्य के रूप लगने लगे है
कारे-कारे ।
लगने लगा है
होंठ गए हो सील
पलको पर आंसू लगें है
पलने ।
वेदना के जल , उम्मीद के बादल
लेकर लगे है चलने ।
थामे करुणा कर
जीवन पथ पर निकल पड़ा
पहचान लिया जग को
यह दीप थका ।
उम्र के उडते पल
पसीने की धार झराझर
फल दूर नित दूर होता रहा
सुधि से सुवासित
दर्द से कराहता रहा ।
कर्म के अवलंबन को
ज्वाला का चुम्बन
डंस गया
घायल मन के
सूने कोने में
आहत सांस भरता गया ।
भेद की ज्वाला ने किया
तबाह
पत्थर पर सिर पटकते
दिन गुजर रहा
घेरा तिमिर
बार-बार
संकल्प दोहराता रहा ।
जीवन का स्पंदन
चिर व्यथा को जाना ।
दहकती ज्वाला की छाती पर
चिन्ह है बनाना
याद बिखरे विस्मृत,
क्षार सार माथे मढ़ जाना
छाती का दर्द
भेद के भूकम्प का आ जाना
कब लौटेगे दिन
कब सच होगा
पसीने का झरते जाना
उर में अपने पावस
जीवन का उद्देश्य
आदमियत की राह है जाना ..... नन्दलाल भारती १३.०९.२०१०

Sunday, September 12, 2010

उम्र
वक्त के बहाव में
ख़त्म हो रही है
उम्र ,
बहाव चट
कर जाता है
हर एक जनवरी को
जीवन का एक और बसंत।
बची खुची बसंत की सुबह
झरती रहती है
तरुण कामनाये ।
कामनाओ के
झरझर के आगे
पसर जाता है
मौन,
खोजता हूँ
बीते संघर्ष के क्षणों में
तनिक सुख।
समय है
कि
थमता ही नहीं
गुजर जाता है दिन ।
करवटों में गुजर जाती है
राते
नाकामयाबी कि गोद में
खेलते-खेलते
हो जाती है सुबह
कष्टों में भी दुबकी रहती है
सम्भावनाये ।
उम्र के बसंत पर
आत्ममंथन कि रस्साकसी में
थम जाता है समय
टूट जाती है
उम्र कि बढ़ाये
बेमानी लगाने लगता है
समय का प्रवाह
और
डसने लगते है
जमाने के दिए घाव
संभावनाओ कि गोद में
अठखेलिया करता
मन अकुलाता है
रोज-रोज कम होती
उम्र में
तोड़ने को बुराईयो का
चक्रव्यूह
छूने को तरक्की के
आकाश ...नन्दलाल भारती॥ १२.०९.२०१०

Thursday, September 9, 2010

MADHUMAAS

मधुमास ..
भविष्य के बिखरे पत्तो के निशान पर
आनुए लगा है
उम्र का नया मधुमास
रात दिन एक हुए थे
पसीने बहे
खुली आँखों में सपने बसे
वाद की शूली पर टांगे गए
अरमान
व्यर्थ गया पसीना
मारे गए सपने
मरते सपनों की कम्पित है
सांस ।
संभावना की धड़क रही है
नब्जे
अगले मधुमास के
विहस उठे सपने
नसीब के नाम ठगा गया कर्म
मरुभूमि से उठती
शोले की आंधी
राख कर जाती
सपनों की जवानी
काप उठाता गदराया मन
भेद की लपटों से
सुलग जाता बदन ।
तालीम का निकल चुका
जनाज़ा
योग्यता का उपहास
सपनों का बजता नित
बाजा
जीवन में खिलेगा मधुमास
बाकी है आस
पसीने से सींचे
कर्मबीज से उठेगी सुवास ।
उजड़े सपनों के कंकाल से
छनकर गिरती परछाई में
संभानाओ को खोजता
मधुमास
सुलगते रिश्ते भविष्य के
कत्लेआम
उमंगो पर लगा जादू-टोना
मरते सपने बने
ओढ़ना बिछौना ।
संभावनाओ के संग
जीवित उमंग
कर्म होता पुनर्जीवित
भरोसा
साल के पहले दिन
कर्म की राह गर्व से बढ़ जाता
संभावनाओ की उग जाती कलियाँ
जीवन के मधुमास से छंट जाए
आंधिया ।
पूरी हो जाए
मुराद
वक्त के इस मधुमास
लुटे भाग्य को मिले
उपहार बासंती
कर्म रहे विजयी
तालीम
ना पाए पटकनी
जिनका उजड़ा भविष्य
उन्हें मिले जीवन का हर मधुमास
हो नया साल मुबारक
गरीब-अमीर सब संग-संग गाये गान
जीवन की बाकी प्यास
भविष्य के बिखरे
पत्तो के निशान पर
छा जाए मधुमास .......नन्दलाल भारती ॥ ०९.०९.२०१०

Wednesday, September 8, 2010

देखा है

देखा है
इसी शहर में
बेगुनाह की
अर्थी
उठते हुए देखा है ,
उन्माद की आग में ,
आशियाना
जलते हुए देखा है ।
आदमी को आदमी का खून,
बहाते हुए देखा है .
इसी शहर में
देवालय के द्वार
क़त्ल होते हुए देखा है ,
बेरोजगारी की उमस में
हड़ताल होते हुए
देखा है ।
न्याय की पुकार में
अन्याय
होते हुए
हमने देखा है ।
अपनो को माया की ओट
बैर
लेते देखा है ।
इसी शहर में
रिश्तो की तड़पते हुए
देखा है ।
दीन के आंसू पर
लोगो को
मुस्कराते हुए देखा है ।
मद की ज्वाला में
गरीब को
तबाह करते हुए देखा है ।
इसी शहर में
कमज़ोर को
बिलखते
हुए देखा है ।
श्रम की मंडी में
भेद की आग लगते हुए
देखा है ।
भेदभाव की खंज़र से
आदमियत का
क़त्ल
होते हुए देखा है ।
दम्भियो को
दीन के अरमानो को
रौदते हुए
देखा है ।
सफ़ेद की छाव
बहुत कुछ
काला होते हुए
हमने देखा है ।
शहर की चकाचौंध में
दीनो के घर
उजड़ते हुए देखा है।
शूलो की राह
जीवन होता तबाह
भारती
हमने देखा है ।
इसी शहर में
हर जुल्म जैसे
खुद पर
होते हुए
हमने देखा है .....नन्दलाल भारती ०८.०९-२०१०

Tuesday, September 7, 2010

सलाम

सलाम ..
माँ तुम्हारी देह
२७ अक्टूबर २००१ को
पंचतत्व में खो गयी थी
माँ मुझे याद हो तुम
तुम्हारी याद दिल में बसी है ।
आज भीतुम्हारा एहसास
साथ साथ चलता हा मेरे
बिलकुल बरगद की छाव की तरह।
दुःख की बिजुड़ी जब कड़कती है
ओढा देती हो आँचल
मेरी माँ
अंदाजा लग जाता है
मुझे
तुम्हारे न होकर भी
होने का ।
सुख-दुःख में तुम्ही
तो
याद आती हो
तुम्हारी कमी
कभ-कभ बहुत रुलाती है ,
जब ओसरी में गौरैया
जाते बर्तन के
फेंके पानी से
जूठन चुनकर अपने
बच्चो के मुंह में
बारी-बारी से
डालती है ।
तब तुम और तुम्हारा
संघर्ष
बहुत याद आता है
उभर आता है
धुधली यादो में बसा मेरा बचपन भी
माँ
तुम उतर आती हो
परछाई सरूप मेरे सामने
और
रख देती हो सर पर हाथ ।
कठिन फैसले की जब
घडी आती है
जीवित हो जाती हो जैसे तुम
ह्रदय की गहराईयो में
राह बदल लेती है
हर मुश्किलें ।
माँ तुम्हारे आशीष की छाव
फलफूल रहे है
तुम्हारे अपने
सींच रहे हा तुम्हारे सपने
और
रंग बदलती दुनिया में
टिका हूँ मै भी ।
माँ तेरे PRATI श्रद्धा ही
जीवन KA UTTHAAN है
यही श्रद्धा देती रहेगी
हमें
तुम्हारी थपकियो KA एहसास भी ।
माँ तुम तो नहीं हो
देह रूप में
विश्वाश है
तुम मेरी धड़कन में बसी हो
हर माताओं के लिए
गर्व का दिन है
मात्रिदिवास
आराधना का दिन है
आज कअ
मेरी दुनिया है
मेरी माँ स्वर्गीय सामारी
करते है
वंदना तुम्हारी
मारकर भी अमर है
तेरा नाम
हे माँ तुम्हे सलाम....नन्दलाल भारती ..०७.०९.२०१०

Sunday, September 5, 2010

रिसाव..

रिसाव
रिश्तो का अथाह
दरिया रिस रहा,
अफ़सोस
कुछ भी नज़र
नहीं आ रहा ।
धीरे-धीरे दरिया
भी खाली हो जाता है ,
शेष
बेकार रह जाता है ।
धरती में दरार
पड़ जाती है ,
दिलो में
गाठे भी
हो जाती है।
जाने लोग
अनजान हो रहे है ।
रिश्ते मोम की तरह
पिघल
रहे है ।
आकाश की बाहों में सूरज
रोज टंग जाता है ,
चाँद भी
खुद के वसूल
पर
खरा नज़र आता है ।
कुछ तो
नहीं बदल रहा
ये आदमी
जरुर बदल रहा।
आदमी ये
ढेर चूक कर गया है ।
भनक तक
जैसे नहीं पाया है।
आधुनिकता के जाल में
फंस गया है ,
अकेलेपन के दलदल में
धंस गया है .
बहुत कुछ
चूक कर रहा
आज भी ,
भूल गया
रिश्तो का स्वाद भी ।
रिश्तो का
आशियाना
रिस रहा
कोई उपाय नहीं
सूझ रहा
भारती
कौन सा गम
रोक सकेगा
रिश्तो के रिसा को ..............नन्दलाल भारती ...०५.०९.१०

Saturday, September 4, 2010

TARANA

तराना
ये दिशाए
भी
कर रही
शिकायत
धुल के अंधेरो में ।
घुटने लगा है
दम
बेख़ौफ़ सास लेने में ।
बुराईयों का
बेशर्म दौर है
आज
जमाने में ।
मर्यादा थरथर्रार रही
जैसे
गाय कट रही
कसाईखाने में ।
कमजोर की लूट रही
आबरू
आज जमाने में ।
डर-डर के दिन
काट रहा
पडा हो कत्लखाने में ।
मांग रहा भीख
जो
लगा था
कल बनाने में ।
निति की निकल रहा
जनाजा
स्वार्थ के आशियाने में ।
सूरज तड़प
चाँद तरस
रहा
आज के मयखाने में ।
सद्बुध्दी का यज्ञ
वक्त लगा मुंह
छिपाने में ।
विध्वंस का ज्वर
अमानुषता की हवस
हाईटेक जमाने में ।
जकड दो बुराईयों को
भारती
गूँज उठे
ख़ुशी के तराने
हर आशियाने में ..नन्दलाल भारती..०४.०९.२०१०

Friday, September 3, 2010

फिक्र


फिक्र

ज्यो-ज्यो बेटी
बड़ी
होने लगी है,
फिक्र
बढ़ने लगी है .
मै
जानता हूँ ,
मेरी फिक्र से
बेटी
फिक्रमंद है ।
वही तो है
जिसे बाप के दर्द का
एहसास है
सच बेटी ही तो है ,
असली दुनिया ।
तमन्ना है
मेरी भी
वह
आसमान छू ले ।
यकीन है ,
वह हार
ऊँचाईया छू लेगी ,
क्योकि
उसमे
उड़ने की ललक है ,
तभी तो अव्वल है ।
बेटी ही तो है ,
जो बाप के लिए
पूजा करती है
सुबह-शाम भगवान् की।
कभी
गुरु
बन जाती है
तो
कभी
शिष्या ,
कभी
डांटती है
तो
कभी
समझाती है ,
कभी
सिर पर
हाथ फिरती है
सुरक्षा का ।
सच
बेटी को फिक्र है
बाप और खानदान के
मर्यादा की ,
माँ-बाप और भाई को
फिक्र है
उसके
कल की-----नन्दलाल भारती....०३.०9.२०१०

Thursday, September 2, 2010

फ़कीर

फ़कीर॥
मानता हूँ
अपनो की भीड़ में
अज़नवी
हो गया हूँ
दर-दर की ठोकरे ,
बंद गली का
आदमी हो गया हूँ
वाद के भीड़ में
तरक्की के दरवाजे
अदनो के लिए
बंद है
माया की बाज़ार में
आदमी,आदमी में
अंतर्द्वंद है
धोखा फरेब आदमी को बाटने
वाला आदमी
अक्लमंद है
माया की बाज़ार में
हार में हार नहीं है
आदमी के बीच
रार ही सच मायने में
मेरी हार है
मुझे गम नहीं है
अपनी तार-तार नसीब का
सकूं से जीने नहीं देता
गम दरार का
खेलकर खून तोड़कर यकीन
नहीं चाहता
तरक्किया
मेरा इतना सा
ख्वाब है
खुली रहे मन की
खिरकिया
जीवित भीड़ में
गुहार कर थकने
कागा हूँ
आँख खुली तभी से
काँटों की नूक पर चल रहा हूँ।
एक चाह है भारती
पत्थर दिलो पर
एक लकीर खिंच दू
दरारों की द्वन्द से
भले ही फ़कीर रहू...............नन्दलाल भारती ... ०२.०९.२०१०

Wednesday, September 1, 2010

जन्नत- ए -धरती

जन्नत--धरती
सोंधी माटी की सुगन्ध,
भिन्नती तन-मन
झरती पहली
किरण
जहा
वह अपना गाव ।
खेत से नहाकर
आती
सोंधी बयार
पेड़ से कोयल की
कू-कू
उड़ेलती रसधार ।
गेहू की क्या
मौज मस्ती
सरसों का खेत
निराला बसंती रंग
तितलियों का
झुण्ड
दिवाली-होली का रंग।
गन्ने का घुलता
रस
मिश्री हुआ संसार ।
पानी में खड़ा
धान करे
ललकार ।
हर खेत उगले
सोना
ऐसा अपना गाव
नर से नर का प्रेम
निश्छल
मीठी वाणी
महुवे की छाव ।
उसर क्या बंज़र ],
खेत ना कोइ परती
सच
गाव अपना
जन्नत-ए-धरती ।
हाद्फोड़ मेहनत
का नतीजा
धन्य वो महान,
चीर धरती निकाले
सोना किसान
भगवान्।
अफ़सोस खोती ग्रामीण
कला
सपना हुआ
पुरवे का पानी ,
बढ़ती जनसंख्या
घटता रोजगार
किसकी बेईमानी ,
ना खोये
गाव
ना हो पुराने
साधनों का
लोप भारती
विहसे सदा
माटी का सोंधापन
बना रहे
अपना गाव
जन्नत-ए-धरती । नन्दलाल भारती .... ०१.०९.२०१०

Tuesday, August 31, 2010

अमर गीत

अमर गीत ..
गंगाजल सरीखे
आँखों के पानी
का मोल,
आदमी रूप खुदा का
मन की गहराई से तोल ।
बहते आंसू को पोंछ ,
कमजोर के काम
आया जो ,
जगाया जज्बात
नेक देवतुल्य
सच्चा इंसान है वो ।
मर मिट जायेगे
सब पीछे
भी तो
यही हुआ ,
किया काम कल्याण का
आदमी
वही
खुदा हुआ ।
माया के हुश्न
तरबत्तर दीन को
सताया ,
वक्त ने दुत्कारा
ना
कभी जमाने को
याद आया ।
वक्त ने बिन पानी की
मीन सा तड़पाया ,
तानाशाहों ने भी
कफ़न
तक नहीं पाया ।
आदमी खुदा का रूप
उजियारा,
उठे हर हाथ
चिराग
मिटे हर अँधियारा ।
कृष्ण किये उध्दार
राम हुए पुरुषोत्तम
महावीर अहिंसा
बुध्द ने जलाई
समता की ज्योति
सर्वोत्तम ।
कबीर रविदास के शब्द
ललकार रहे ,
गूंज रही मीरा की धुनें ,
वाहे गुरु
अनुराग रहे ।
ध्रितराष्ट्र को जग
धिक्कार रहा ।
ना तडपे भविष्य
ना आँखे
अब रोये
लिख दो
अमर गीत भारती
समय के आरपार
जग वाले गाए..........नन्दलाल भारती ३१.०८.२०१०

Sunday, August 29, 2010

जीवन विकासिनी

जीवन विकासिनी
हे नारी तुम हो
सृजनकारी ,
जगत कल्याणी
श्रद्धा हमारी ।
ब्रहम्स्वरुपी कराती सर्वस्व अर्पण
बंधी विरासत करती सम्पर्पण .
खिचती खाका पक्का
सृजन का सारा ,
सृष्टि की वरदान
झरती त्याग की धारा।
खुद को न्यौछावर करना
कोई तुमसे सीखे ,
दिव्यज्योति
दुर्गा, लक्ष्मी ,सरस्वती सरीखे ।
हे कल्याणी तुम बिन
जीवन कैसा ।.........?
ऋणी जग पर तू कहती
उपकार कैसा ............?
जीवनदायिनी
चलते रहना
काम है तेरा ,
ममता की मूर्ति
मंगलकारी है
नारी....
जहा पड़े पग
तेरे
साबित हुई
उपकारी ।
नेकी माने
जग सारा
वक्त कहे महान
जब तक चाँद में
शीतलता
सूरज में है
ताप
नभ जैसा उंचा नाम तेरा
तू ही है
धरती का
स्वाभिमान .........................नन्दलाल भारती ....२९.०८.२०१०

नारी

नारी
नारी तुम बुनती हो
नित ने सपने ,
करती हो
साकार हितार्थ बस
ना
अपने ।
चाहती हो
बटोरना
पर
बिन बटोरे रह जाती
ना किसी से कम
ना कोई
बात ऐसी।
मज़बूरिया
खूंटे से बढ़ी रहती
चाहती तोड़ना
पर
ना तोड़ पाती।
जीवनदायिनी
पाठशाला है वो
कमजोर तो नहीं .....?
विरासत में मिली।
दिन रात पिसती है
जो.........
चलना जिम्मेदारी
निभाती है वो ।
शोषण,उत्पीडन,दहेज़ से
घबराने लगी है
पंख फद्फड़ाने लगी है ।
भूत भविष्य वर्तमान है
जो............
सिसकती, छिनना चाहती है
बार-बार बलिदान
कर जाती है
वो................।
चाहती रचना नित नया
सदा से रचती आयी है वो
लक्ष्मी ]दुर्गा ,सरस्वती है
जो.............
कही पानी तो कही आग है
वो ......
नित नए सपनों के तार बुनती है
वो....
नवसृजन करती
वन्दनीय
नारी है जो............. नन्दलाल भारती २९.०८.२०१०

Friday, August 27, 2010

मुट्ठी में आसमान

मुट्ठी में आसमान ..
आज गाव को देखकर
ऐसा लगने लगा है ,
मानो हमारा गाव
तरक्की करने लगा है
कंडे थापने वाले हाथ
कलम थामने लगे है ।
गाव की दहलीज पर
सर्वशिक्षा अभियान
बेटा-बेटी माँ-बाप के
आँख ठेहुना सामान
दहेज़ भ्रूण ह्त्या पाप है
लड़की का जन्म पुण्य
नहीं कोई
अभिशाप है ।
आज के ये ब्रह्मवाक्य
गहराई तक
उतरने लगे है ।
बूढी रुढियो के दम
उखड़ने लगे है ।
तभी तो गाव की
लड़किया
साइकिल पर सवार
लड़कियों के झुण्ड
तितिलियो
जैसा रंग बिखेरता हुआ
मन को हमारे
सकून देने लगा है ।
पीछे झाँक कर मन
बोझिल
हो जाता है ,
क्यों
हुआ अन्याय
बूढी रुढियो के भ्रम
लड़की की तकदीर का
हुआ दहन।,
आज भी लड़किया
सिलाई पुरी से
उबी नहीं है ,
बदलते वक्त में
आसमान
छूने की ललक में
डूबी हुई है ।
एहसास
पुख्ता होने लगा है
लड़की का भाग्य
सवरने लगा है
मुट्ठी में
आसमान
आने लगा है ,
सच मुझे
यकीन होने लगा है
हमारा गाव भी
अब
तरक्की करने लगा है ..नन्दलाल भारती ॥ २८.०८.२०१०

पतिता

पतिता
गुलामी, माँ के पैरो की देख जंजीरे,
पतिताओ के घुघुरू उगले थे अंगारे।
आज़ादी को महासमर,
राजा रंक सब थे जुटे
देश भक्त पतिताए
कैसे रहती पीछे
वे भी कूद पड़ी ।
अज़ीज़न नर्तकी देशभक्त
कानपुर वाली
देश पर मर मिटने का
जज्बा रखने वाली ।
कानपुर में गोरो ने किया
आक्रमण जब
कूद पड़ी रणभूमि में
वीरांगना तब ।
दुर्भाग्यवस
गोरो के हाथ आ गयी
गोरो की शर्त माफ़ी मांगे,
हो गयी शहीद
रिहाई की शर्त को
ठोकर
मार गयी ।
पूना की चंदाबाई देशभक्त थी
गीतों से देशप्रेम की मशाल
जलाया करती थी ।
चंदाबाई का गीत प्रसिध्द एक
परिंदों हो जाओ आजाद
काहे तुम पिज़रे में पड़े
राजाजी जुल्म करे।
कशी की ललिताबाई
चंदा मांगती थी
खद्दरधारी चरखा
चलाया करती थी ।
अंग्रेज कोतवाल की तरफ
पीठ कर थी गाई
ऐसो की क्यों देखे सूरत
जिन्हें वतन से अपने नफ़रत।
आरा की गुलाबबाई
भी
शोला थी
आज़ादी खातिर
तलवार उठा ली थी ।
पतिताए भी धन्य ,
आज़ादी के समर तप
पवन हुई
भारत माता की बेड़िया
काटने में
सफल हुई।
भले भूल गया हो
इतिहास
पतिताए भी
आयी
देश के काम
ऐसी जानी-अनजानी
शहीद
पतिताओ को प्रणाम ......नन्द लाल भारती॥ २८.०८.२०१०

Wednesday, August 25, 2010

कैनवास

कैनवास
बिटिया बड़ी होने लगी है
और
मेरा घर लगने लगा है
छोटा ।
बिटिया
अंगुली पकड़ते-पकड़ते
उड़ान भरने लगी है
बौना हो गया है
वक्त
नन्ही अंगुलियों का
स्पर्श
कल की बात
लगती है।
बिटिया की सोच का
कैनवास
बड़ा हो गया है ,
बढ़ते कैनवास को
देखकर
बढ़ने लगा है
मेरा आत्मबल ।
बिटिया
जमा करने लगी है
रंग
दुनिया सजाने के लिए ।
खुद के खींचे खाके में
भर देती है
रंग और
जीवंत कर देती है
कल्पना
रह जाता हूँ
मै भौचक्का ।
सोचता हूँ
क्या...?
वही गिर-गिर कर चलती
तुतलाती दिवार पर
लकीर उकेरती
बिटिया है
जिसने थाम लिया है
कूंची
और
भरने लगी है
रंग
दुनिया के कैनवास पर....... नन्द लाल भारती ॥ २५.०८.२०१०

Monday, August 23, 2010

दर्द

दर्द
थक रहा हूँ
आवाज़ देकर
ना मिल रहा
कोई
साथ चलने वाला
फिजा में भर
चुकी है
जैसे हाला।
कहा सुन रहा
कोई
मेरी आवाज़
टंग गए है
दिलो पर
ताले ...
कानो की खिड़किया
हो चुकी है
बंद।
भरे जहा में
उफनते दर्द की
दरिया को
कोई रोकने वाला
ना मिला ।
दर्द भरी ज़िन्दगी को
किस्मत मान बैठा ,
कहा और किससे
करू गिला शिकवा
इस जहा में
दर्द के
सिवाय
और
क्या मिला.......नन्दलाल भारती २३.०४.१०

Sunday, August 22, 2010

परमपिता ..........

परमपिता
हे परमपिता
तुम
उनके अभिमान को
और
मत संवारो ।
दोषी तो है ,
पर
माया की चमक में खो जाते है ,
आपा में कर्तव्य आदमियत
और
सब कुछ।
जिनमे ना भाषा
ना सद्भाना का भार है ।
वे निंदक अभिमानी तो है ,
वे शरीर और सिक्को के बल पर,
यकीन करते है।
और की मर्यादा से
क्या लेना-देना उनको ।
अभिमान करता है
गुमराह जिनको ।
वे सम्मान को
कहा जानते है ।
सब जानकर भी
कामना करता हूँ ,
उनके कल्याण की ।
हे परमपिता
चेतना का संचार कर दो
उनमे ।
आमजन प्रेम और बंधुत्व की
राह चल सके वे ।
चित पर
ज्ञान की
लगामे दो उनको ।
कसाई सा ह्रदय
ना चहरे पर
आँखे है जिनके ।
हे परमपिता
सूर्य सा तेज
वायु सा वेग
गंगा सा निर्मल
ज्ञान का सागर
प्रदान करो ।
हे परमपिता
विरोधियो को,
परास्त करने की कोई
कामना
नहीं है मेरी ।
शक्ति दो
परमपिता
ताकि
विरोधियो के बीच
निर्भय चल सकू।
जहा स्वाभिमान
आजाद-अनुराग का
अनुभव करता हुआ
विरोध की परवाह
किये बिना
भारती
निर्भय निरंतर
सद्कर्म के पथ
बढ़ता रहू।
हे परमपिता
इतनी शक्ति दो......नन्दलाल भारती... २२.०८.२०१०

पतझड़

पतझड़
ख्वाब टूटने
ज़िन्दगी बिखरने लगी है ,
आजकल धड़कने भी ,
बहकने लगी है ।
आहिस्ता-आहिस्ता
दर्द बढ़ने लगा है ।
उजियारे में
अँधियारा
पसरने लगा है ।
तकदीर की बात पर
भरम बढ़ने लगा है
गिध्द दृष्टि से
खौफ
बढ़ने लगा है
परछाईयो से
डर
लगाने लगा है ।
सपने
स्वार्थ के पतझड़ में ,
गिरने लगे है ।
आशा निराशा में
डूब मरने लगी है ।
सिसकिया सुनने की
अब
फुर्सत नहीं है ।
उम्मीदों के जंगल में
भारती
पतझड़ उतरने लगा है।
ख्वाब टूटने
ज़िन्दगी बिखरने लगी है...................नन्दलाल भारती ... २२.०८.२०१०

Friday, August 20, 2010

सपनों की बरात

सपनों की बारात
मुझे भी सपने आते है ,
भले ही
तरक्की से वंचित हूँ।
मै सोता हूँ,
सपनों की बारात में,
नीद की गोलिया खाकर नहीं ।
थक कर सो जाता हूँ
रुखी सुखी रोटी खाकर ।
भर पेट पानी पीकर ,
बसर कर लेता हूँ,
सपनों में भी
भर नीद सो लेता हूँ।
महंगाई,उत्पीडन के संग
गरीबी ने भी घेरा है .
गैरो से क्या
शिकायत
अपनो ने भी पेरा है ।
मुझे रोने से
परहेज़ नहीं
एकांत में
रो लेता हूँ।
कहते है
उगता वही है
जो बोया जाता है
ना तो मैंने
ना ही
मेरे पुरखो ने
कोइ विष बृक्ष
लगाया ,
ना जाने कितनी पीढियों से
विषपान कर रहा हूँ।
मै थकता नहीं
क्योंकि
तन से बहता
पसीना है ,
मै वंचित अभावों में भी
मुझे आता जीना है ।
उम्मीद है
मेरा परिश्रम बेकार नहीं जायेग ,
मिलेगा हक़
कल ज़रूर मुस्कराएगा।
मै
यकीन पर
कायम हूँ
जीतूंगा जंग
खिलेगा
मेरे श्रम का रंग ।
मै
हारूँगा नहीं भारती
क्योंकि
मुझे जितना है ... नन्दलाल भारती ....२०.०८.२०१०



Thursday, August 19, 2010

सूझता नहीं ..

सूझता नहीं..
कुछ सूझता ही नहीं ,
अभिमान के अलावा।
ढँक लेता हूँ
चेहरा
उजाले में
बंद कर लेता हूँ
कान भी।
ना सुन सकू भंवरी
जैसी
औरतो की चीख पुकार।
बंद कर लेता हूँ
आँखे
ना देख सकू
गोहाना
ओर
बेलखेड सरीखा रक्तपात ।
मेरा क्या
रिश्ता क्या है मेरा ।
मै तो नकाबपोश
सिंहासन पर बैठा ।
क्या लेना देना
किसी कमजोर के
जलते घर ,
लूटती आबरू
ओर
दम तोड़ती
मानवता से ।
सचमुच
मै
गूंगे बहरे
अन्धो के बीच
गूंगा बहरा
और
अंधा हो गया हूँ
भारती
तभी तो
कुछ सूझता ही नहीं
अभिमान के अलावा ...नन्दलाल भारती .... १९.०८.२०१०






Wednesday, August 18, 2010

मंगलकामना

मंगल कामना ..
बंटवारे में
विषमता मिली
मुझे,
विरासत में
तुम्हे क्या दू ?
विधान संविधान के
पुष्प से
कोई सुगंध फ़ैल जाए ।
ह्रदय दीप को
कोई
ज्योतिर्पुंज मिल जाए ।
आशा की कली को
समानता का मिले
उजास ।
धन धरती से बेदखल
देने को बस
सद्भावना का
नैवेद्य है
मेरे पास।
ग्रहण करो
बुध्द जीवन वीणा
के
बने रहे सहारे ।
चाहता हूँ
जग को
ज्योति दो
नयन तारे ।
तुम्ही बताओ
भारती
शोषण उत्पीडन का
विष पीकर
साधनारत
जीवन को
आधार क्या दू ।
बंटवारे में
मिली विषमता
मुझे
तुम्हे मंगल
कामना
के अतिरिक्त
और
क्या दू........ नन्द लाल भारती ... १८.०८.२०१०

Saturday, August 14, 2010

चिट्ठाप्रहरी-आपके ब्लाँग का मोबाइल एग्रीगेटर: ब्लाँग एग्रीगेटर चिट्ठाप्रहरी का शुभारम्भ

चिट्ठाप्रहरी-आपके ब्लाँग का मोबाइल एग्रीगेटर: ब्लाँग एग्रीगेटर चिट्ठाप्रहरी का शुभारम्भ

जिंदाबाद .......

जिंदाबाद ....
राष्ट्रीय त्यौहार आजादी का दिन
देश- घर-आहोहावा
और
हर चोला के मग्न होने का दिन
इसीदिन की इन्तजार में
अनगिनत शहीद हो गए
खुद के लहू से आज़ादी की ,
दास्तान लिख गए ।
आज़ादी का जश्न
तिरंगा की मस्ती
हमारी जान
बाँट रहा ख़ुशी
धरती और गगन में
और हम देशवासी
एक दुसरे को ।
हमारी ख़ुशी को कोई
पैमाना नाप नहीं सकता
नहीं समंदर को स्याही
और
पेड़ो को लेखनी
बनाकर लिखा जा सकता
हम हो भी क्यों न
इतने खुश
आज़ादी तो परिंदों को भी
जान से प्यारी होती है
हम इंसान
इंसानियत के सर्वधर्म ,
समता सद्भावना के पुजारी ।
एक दर्द है
हमारे दिल में भी
आँखों को तरबतर कर देता है
आंसू से ......
आम हाशिये के आदमी को
आज़ादी के इतने दशको बाद
दीदार नहीं हुए
असली आज़ादी के
वह आज भी
आज़ादी से कोसो दूर
फेंका .....
भय-भूख,शोषण,उत्पीडन
भूमिहीनता ,दरिद्रता को
लाचार नसीब मान बैठा है
यही बड़ा दुःख है
दिल का ...
कारण भी ज्ञात है
हमारे अपने मुखौटाधारी
लोकतंत्र के पहरेदार
छीन रहे है
शोषित,वंचित आम आदमी का हक़
छिना तो मुग़ल शाशको ,सामंतवादी
और
गोरो ने भी मचा दिया था तबाही
लोकतंत्र में भी
हाशिये का आदमी तरक्की से बेदखल
यह तो असली आज़ादी नहीं
न तो आज़ादी के लिए
जान देने वालो की थी
यह चाह ॥
उनकी चाह थी
अपना देश वपना संविधान
आम आदमी की तरक्की
आज आदमी ही
असली आजे के सपने में
जी रहा है
देश की आज़ादी के जश्न के दिन
वह बहुत खुश है
आजाद देश की आजाद हवा पीकर ....
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार,अत्याचार, शोषण,भूमिहीनता
उत्पीडन , जातिवाद , नक्सलवाद से उबरने के लिए
एक और जंग की जरुरत है
तभी मिल सकेगी
आम हाशिये के आदमी को
असली आज़ादी
तभी वह चल सकता है
विकास के पथ पर...
ऐसा हो गया तो
विहस उठेगी शहीदों की आत्माये
असली आज़ादी को देखकर ।
आओ कर दे शंखनाद
विहस उठे आम हाशिये का आदमी
राष्ट्र बन जाए
धर्म .....
ऐसी सद्भावना कर सकरी है
उध्दार
देश और हाशिये के आदमी का
यही सपना भी था
अमर शहीदों का
आओ एक बार फिर खा ले कसम
देश और आम आदमी के हित में
जिससे हमारी आज़ादी रहे आबाद
हर देशवासी का एक सुर हो
भारत माता की जय
१५ अगस्त जिंदाबाद .......नन्दलाल भारती १४.०८.२०१०
( चलितवार्ता -०९७५३०८१०६६ ) -आज़ाद दीप - 15 ,एम्- वीणा नगर, इंदौर (म..)

Friday, August 13, 2010

सोचता हूँ

सोचता हूँ
सोचता हूँ बार-बार
विहस पड़े
मेरा भी मन
एक बार ।
व्यवधान खड़ा हो जाता है ,
कोंई---
उमंगें रुद देती है
अड़चने कोंई ना कोंई ।
चाहुओर मौत के
सामान बिकने लगे है ,
रोजमर्रा की चीजो में
जहर मिलाने लगे है ।
महंगाई है
भूख है
हवा प्रदूषित है ।
शासन है प्रशासन है
फिर भी
रिश्वतखोरी है
समता सम्पन्नता के वादे
तो बस
मुंहजोरी है ।
न्याय मंदिर है
दंड के विधान है
फिर भी अत्याचार है ।
बुध्द भावे की ललकार ,
फिर भी अनाचार है ।
चाहूओर मुश्किलों का घेरा
कहा से आये
मुस्कान
मोह,मद का बाज़ार
हावी सब है परेशान ।
खुश रहने के
उपाय विफल
हो जाते है
मुखौटाधारी मतलब का
दरिया पार कर जाते है
सच भारती
मै भी सोचता हूँ
बार-बार ,
विहस पड़े मेरा भी
मन एक बार....नन्दलाल भारती ..१4.०८.०१० (मोबाइल -०९७५३०८१०६६ )

धनिखा

धनिखा
धानिखाओ की बस्ती में ,
दौलत का बसेरा
गरीबो की बस्ती में
भूख अभाव का डेरा ।
अहि मुशिबतो की कुलांचे
चिथड़ो में लिपटे शरीर ,
हर चौखट पर
लाचारी
कोस रहे तकदीर ।
गरीबो की तकदीरो पर
पड़ते है डाके यहाँ,
भूख पर रस्साकसी
मतलब साधते है वहा ।
मज़बूरी के जाल
उम्र बेचा जाता है ,
धानिखाओ की दूकान पर
पूरा दाम नहीं ,
मिल पता है ।
बदहाली में जीना मरना
भारती
नासी बन गया है ,
अमीर की तरक्की
गरीब , बरिब ही रह गया है ...नन्दलाल भारती ..१4.०८.०१० ( मोबाइल -०९७५३०८१०६६ )

काबिलियत

काबिलियत
काबिलियत पर,
ग्रहण लगा दोधारी ,
योग्यता पर छा
महामारी
फ़र्ज़ और भूख ने
कैदी बना रखा है ,
मुश्किलों के समर ने
राहे रोक रखा है
चनसिक्को की
बदौलत
उम्र बिक रही है
श्रम की बाज़ार में
तक़दीर छीन रही है
मायुसी के
बादल
उखाड़ने लगे है
पर.....
तार-तार अरमानो को
भारती
ताग-ताग कर रहा बसरनन्दलाल भारती ( मोबाइल -०९७५३०८१०६६) 4.०८.२०१०


नारायण

नारायण
गरीब के दामन,
दर्द ,
चुभता निशान छोड़ जाता है ,
दर्द के बोझ जवान
बूढ़ा होकर रह जाता है ।
दर्द में झोकने वाला
मुस्कराता है
किनारे होकर,
बदनसीब थक जाता है
दर्द का बोझ ढोकर।
शोषित वंचित का
जुल्म
जुल्म आदमियत पर
दर्द का जख्म
रिस रहा उंच नीच के नाम पर ।
मातमी हो जाता है,
गरीब का जीवन सफ़र
सांस भरता गरीब
अभावों के बोझ पर ।
जंग अभावों से ,
हाफ-हाफ करता बसर,
चबाता रोटी
आंसुओ में भिगोकर ।
उत्पीडित नहीं
कर पाता पार
दर्द का दरिया
जीवन भर ।
दिया है दर्द
जमाने ने
दीन जानकर ।
गरीब का दामन
रह गया
जख्म का ढेर होकर ।
अर्द भरा जीवन
कटते लम्हे
काटो की सेज पर ,
अब तो हाथ बढाओ
भारती
डूबते की ओर
वंचित है ,
उठ जाओगे
नर से
नारायण होकर। ....नन्द लाल भारती १३.०८.२०१०

Wednesday, August 11, 2010

आज जैसा

आज जैसा
आज जैसा पहले
तो ना था ,
हंस रोकर भी ,
बेख़ौफ़ सो लेता था ।
मौज में
सब का प्यार
सब में बाँट देता था
शायद
तब बचपन था ।
उम्र क्या बढ़ी ?
फ़र्ज़ के पहाड़ के
नीचे आ गया हूँ ।
तमाम मुश्किलों से
निपटने के लिए ,
उम्र का बसंत
हो चूका हूँ ।
उम्र बेंचकर भी ,
टूटे ख्वाब में
बसर कर रहा हूँ ,
रोटी आंसुओ से ,
गीली कर रहा हूँ।
अभाव की चिता पर भी
जी लेता हूँ ।
जुल्म का जहर
पी लेता हूँ ।
उम्मीदों के दम
दम भर लेता हूँ।
असी की धार पर,
चल लेता हूँ,
पेट की बात है
तभी तो
हर दंश झेल लेता हूँ ।
सच मानो भारती
स्वर्ग सी
दुनिया में
रहकर भी
नरक भोग लेता हूँ ...नन्दलाल भारती ११.०८.२०१०

धर्म

धर्म
आजकल शहर
खौफ में
जीने लगा है ,
कही दिल
तो कही
आशियाना
जलने लगा है ।
आग उगलने वालो को
भय लगने
लगा है ,
तभी तो शहर का
चैन
खोने लगा है ।
धर्म के नाम पर
लहू का खेल
होने लगा है।
सिसकिया थमती नहीं
तब तक
नया घाव होने लगा है।
कही भरे बाज़ार
तो कही
चलती ट्रेन में
धमाका होने लगा है ।
आस्था के नाम पर,
लहू -कतरा-कतरा
होने लगा है ।
कैसा धर्म ?
धर्म के नाम
आतंक होने लगा है
लहुलुहान कायनात ,
धर्म बदनाम होने लगा है ।
आसुओ का दरिया ,
कराहने का शोर
पसारने लगा है ।
धर्म के नाम
बांटने वालो का
जहा रोशन होने लगा है ।
आसुओ को पोंछ भारती
आतंकियों को
ललकारने लगा है
धर्म सद्भाव बरसता
क़त्ल क्यों होने
लगा है
आजकल शहर ,
खौफ में जीने लगा है ..नन्दलाल भारती॥ ११.०८.२०१०

Monday, August 9, 2010

मेरी गली

मेरी गली में ..
मेरी गली में
कभी कभी
आया करो ,
दीन की ड्योढ़ी पर
पाँव पखारा करो ।
पसीने से नहाया,
आशियाना हमारा
मुश्किलों के दौर
जाने जग सारा ।
परिश्रम की रोटी
सोधापन खूब सारा ।
भारती अतिथि देवो
पर यकीं हमारा
मेरी गली में ,
कभी-कभी
आया करो.......नन्दलाल भारती ०९.०८.२०१०

गमो के दौर

गमो के दौर ..
गमो के दौर है,
मेरा क्या कसूर?
हालात के सताए
हो गए
मजबूर।
छाव की आस
धुप में बहुत
तपे हजूर।
बदकिस्मती हमारी
कांटे मिले भरपूर।
विष बाण का सफ़र
मान बैठा दस्तूर।
आंसुओ का पलको से
खेलना
तकदीर बन गया
हजूर ।
टूटे हुए
ख्वाब संग
भारती
उम्मीद से खड़ा
हूँ बहुत दूर।
गमो के दौर है
मेरा क्या कसूर..........नन्दलाल भारती ०९.०८.२०१०




दीन

दीन
मेरी किस्मत को
क्यों ?
दोष दे रहा जमाना ।
याद नहीं जमाने को
हक़ हज़म कर जाना ।
साजिश का हिस्सा
है मेरी मजबूरिया ।
पी लेता हूँ
ये विष कस लेता हूँ
तनहईया ।
रार नहीं ठानता
मई
खैरात चाहता ही नहीं ,
हाड को निचोड़कर
दम भर लेता हूँ तभी ।
हाड खुद का
निचोडना आता नहीं
सच
तब ये दुनिया वाले
जीने देते नहीं ।
सरेआम सौदा होता
जहा चाहते बेचते
वही ।
खुदा का शुक्र
मजदूर
होकर रह गए ।
खुद ना बिक़े
श्रम बेचकर
जी गए ।
जमाने से रंज
नहीं तो फक्र कैसा?
जमाने की चकाचौध में
भारती जी लेता हूँ
दीन होकर भी
दीनदयाल जैसा ........नन्दलाल भारती ०९.०८.२०१०

Sunday, August 8, 2010

मरुभूमि

मरुभूमि
बनी ज़िन्दगी मरुभूमि की सेज
अक्स बाँट रही दुनिया।
बेक़रार दिल
खुश्बू के फांक
बरसने
लगी है
अंखिया ।
कैसी चकाचौध
डसने लगी है
जमाने की खाईया ।
मरुभूमि की सेज
सजने लगी है
तन्हाईया ।
वक्त के समंदर
उमड़ने लगी है
आंधिया ।
सजाने लगी है,
काम क्रोध की दुसुवारिया ।
बंट गए अक्स ,
ज़िन्दगी के ,
चुभती रुसुवाईया ।
सवरे थे
कुछ सपने
अब उजाड़ने लगी है
आन्धिया ।
उम्र भागे
दिया सा ख्वाब
बसा दिल की गहराईया ।
खाक ज़िन्दगी ,
राख में जोड़ता
ज़ीने की लडिया
जेहनो में भरा करार
गढ़ता उजियारे की कलियाँ
कायनाते ख्वाब
चले साथ
छंट जाए आंधिया । नन्द लाल भारती ॥ ०८-०८-२०१०

Saturday, August 7, 2010

बौनी कसमे

गरीबो की बस्ती में
दीया जुगनू होता है ।
वहा अंधियारे
कनक का उजियारा
होता है।
माथे चिंता,
रोम-रोम चिता,
सुलगते है ।
दिल में गूंजती आह
बेवस सास भरते है।
नहीं मिला मसीहा
माया की दौड़ में
सब भागे ।
बेवासो की आँखे
ललचाई।
कोई जा रहा आगे ।
झोपडियो को
कहा ?
देखता
महलों में रहने वाला ।
माना मसीहा
पर
कहा
वो तो शोषण
करने वाला ।
थक गया
गरीब जोह जोह कर बाटे।
ना पलटी
किस्मत
कटती विपदा की राते ।
बौनी हुई कसमे
भारती
विसर जाते
सारे वादे ।
ताज निज मोह
गढ़ काल के गाल
सुनहरी यादे... नन्दलाल भारती ॥ ०८.०८.२०१०

Wednesday, August 4, 2010

पैगाम

जिन्दा हूँ
तो
चिराग है ,
गमे दिल ,
पल
-पल सुलगती आग है ।
ज़िन्दगी देने वाले
तेरी करामत का क्या राज है
कगी मेला कही झमेला
कही उदास आज है ।
कही रोना कही गाना
कही अँधेरा ही अँधेरा ,
कही बदनसीब के भाग्य का
नहीं हो रहा सबेरा ।
सिसक रहा बिच बाज़ार
न बन रहा सहारा कोई मेरा ।
हे ज़िनाही देने वाले
क्या दोष होगया मेरा
ज़िन्दगी एक ख्वाब है
विश्वास है मेरा ।
तड़पना ,ठोकरे खाना
क्या यही नसीब है मेरा ।
बस जी रहा हूँ
अरे सुने लो मेरी पुकार
तेरे बिछाए जाल में
नहीं गूंज रही गुहार ।
क्या इसीलिए बख्शा
जिनगी बेहाल रहू
तेरे बन्दों के बीच
तड़पता हर हाल रहू ।
सुन लो तुम
यहाँ नहीं कोई
सुनने वाला है मेरा
ज़िन्दगी है तेरी बख्शीश
तुमको पैगाम है मेरा । नन्द लाल भारती ०४.०८.२०१०

Thursday, July 22, 2010

उत्थान

मुश्किल के दौर से ,
गुजर रहा है
युवा साहित्यकार
ऐसे मुश्किल के दौर में भी
हार नहीं मान रहा है ।
ठान रखा है
जीवित रखने के लिए
साहित्यिक
और
राष्ट्रीय पहचान ।
ऐसे समय में जब
हाशिये पर
रख दियागया हो
पाठक दर्शक बन गए हो
स्वार्थ का दंगल चल रहा हो
साहित्यिक संगठन
वरिष्ठ मंच में
तब्दील हो गए हो
ठीहे की
अघोषित
जंग चल रही
क्या यह संकटकाल नहीं ?
वरिष्ठो को कल की
फिक्र नहीं
नाहि युवाओ के पोषण की ।
वे आज को भोगने में लगे है
युवाओ के हक़ छीने जा रहे है
राजनीति के सांचे में
हर सत्ता ढाली जा रही है ।
साहित्यिक ठीहे
कब्जे में हो गए है
युवा कलामकर
निराश्रित हो गए है
कब छटेगे
सत्ता
मोह के बादल ?
कब करेगे चिंतन
ये वरिष्ठ
कब्र में पाँव लटकाए लोग ?
कब गरजेगा युवा ?
कब होगा काबिज
खुद के हक़ पर ?
कब आएगी साहित्यिक ,
मानवीय समानता
और
राष्ट्र-धर्म की क्रांति ?
सही-सही बता पायेगे
सत्ता सुख में
लोट-पोत कर रहे
वरिष्ठ लोग ।
तभी
विकास कर पायेगा युवा
साहित्य और राष्ट्र भी
जब तक सत्ता कब्जे में है
तब तक कुछ संभव नहीं
नाहि साहित्य का
नाहि राष्ट्र का उत्थान
और
नाहि कर सकता है
युवा उत्थान । नन्द लाल भारती २०.०७.०१०

Wednesday, July 21, 2010

गुहार

जानता हूँ ,
पहचानता हूँ ,
नेक नियति ,
दुनिया बदलने का जज्बात
फ़र्ज़ पर कुर्बान होने की
ताकत एक बाप की ।
बाप ही तो है
मेहनत की कमाई से
जो
सुनहरा कल दे सकता है ,
खुद के परिवार
और
देश को ।
अफ़सोस यही बाप ,
जब बहक जाता है ,
सूरा की धार में बह जाता है ।
खुद इतना ,
नीचे गिर जाता है ,
पत्नी को आंसू ,
औलाद को खौफनाक कल
खुद धरती का
बोझ
बन जाता है ।
थूकते है
लोग सुराखोरी पर
कसते है व्यंग
परिवार की मजबूरी पर ।
सुरखोरो से है
गुहार
भारती हाथ ना लगाओ
नागिन को
डंस लेगी
पीढियों की बहार ........नन्द लाल भारती ......२१.०७.२०१०

Tuesday, July 20, 2010

मन की बात -३

दर्द कितना
क्यों न हो भारी
पलको को
नाम ना कीजिये
रात चाहे
जितनी भी हो
कारी
उम्मीद के उजास से
बसर कर लीजिये ...नन्दलाल भारती २०-०७-२०१०
०००००
आप योही मुस्कराते रहे ,
अभिलाषा है हमारी
दुआ कीजिये
कलम थामे
जिन्दगी
कट जाए
हमारी ....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
विष के दरिया में
रहकर
भी जी लेता हूँ
यादो के
के झरोखे में
दर्द
आज भी
पी लेता हूँ। नन्द लाल भारती ..२०.०७.२०१०

मन की बात-२

बगिया के फूल सभी अच्छे
फलेफूले भरपूर महके
बसंत की लय
कोकिला की सुरताल
मुस्कराते रहो
गुलाब से लाल
सुखा कल हो तुम्हारा
तरक्की से तुम्हारी
विहस उठे जग सारा।
सुन्दर बगिया के फूल
तुम
फूल हो
अच्छी-अच्छे
दुआ आज
सलाम तुम्हारे
कल को
ये बच्चे .....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
हर आँखों को
पढ़ा है
हमने ,
दास्तान नहीं
जानना चाहा
किसी ने ।
निगाहों को
पढ़कर
जो
बिज बोये है
टूटे अरमान
सच
हमने बहुत
रोये है ।नन्द लाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
किस्मत
एक
कल्पना
तो है ,
परन्तु
आत्मिक
शांति
का मूलमंत्र
भी है ....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
कर्म उचाईया
तो दे सकता है
बशर्ते
शोषण का
शिकार ना हो.....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०

Monday, July 19, 2010

मन की बाते - 1

संभावनाए
दूर-दूर
तक राह दिखाती है
सच काम भी
औरो के बहुत आती है ,
संवेदनाये
वेदना बन जाती है
तब ,
महफ़िल में घाव
पाती है जब
सरेआम विषपान
कराया जाता है
जाम की थाप पर
बदनाम किया जाता है
क्या नाम दू
ऐसे अफ्सानो को
खुदा समझ दे
बेगानों को
मेरा क्या भारती ?
शब्दों की धार जीवन
जहर पी जाऊँगा
बेगानों के बंज़र को
अपनेपन का
नाम दे जाऊगा .....नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
खाक खाहिशो के
जंगल को
नीर भरी आँखों से
सींचा करो ,
एक मुसाफिर है
हम
सदभाव के बोल
तो
बो दिया करो .... नन्द लाल भारती १९.०७.२०१० ,
०००००
कायनात को भान है
आदमी वही
होता
महान है ।
जुड़ जाये
जो गैरों के
दुःख-दर्द से
नहा उठे
समानता के भाव से ।
ईसा बुध्द याद है
जीवित
जिनकी फ़रियाद है
भारती
सद्कर्म की राह
आदमी महान
होता है
सच
खून से बड़ा
रिश्ता
दर्द का होता है .....नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०

कुछ रचनाये

उम्र गुजर जाएगी
योंहि
उम्मीद के सहारे ।
मुरझाई जिंदगी को
बुध्द की तरह
छांव दिया
करो प्यारे ...नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
जिंदगी के सफ़र में
निशान छोड़ते जाइए
ताकि
आने वाला
मुसाफिर पद चिन्ह पर
चल सके .....नन्द लाल भारती ॥ १९.०७२०१०
०००००
आज मुस्कराने को जी
चाहता है
मुबारक हुआ
दिन आज का
गगन है मगन
साथ आपका
फूलो का संग
सभी को सुहाता है
आज मुस्कराने को
जी चाहता है नन्दलाल भारती ... १९.०७.२०१०
०००००
माटी की काया
हमारी तुम्हारी
फ़र्ज़ का
बोझ
है भारी
औरो के भी
हक़ है
नहीं कोई शक है
किसी को
आना
किसी को
जाना है
कर्म की डगर पर
याद छोड़ जाना है ....नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
खौफ खा जाता हूँ
कलि परछाईया देखकर
खुदा खैर करे ,
जी लेता हूँ
औरो की
खुशिया देखकर ......नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०

कुछ रचनाये

मुश्किलों के दिनों में
किसी दोस्त ने
मदद किया है ।
यह मदद ,
क़र्ज़ मान लीजिये ।
दान नहीं
यह क़र्ज़ है
क़र्ज़ समझिये ।
वापस करना
धर्म मान लीजिये
दोस्ती है
कायम रखना
अगर
दोस्ती के ,
फ़र्ज़ पर
खरा उतरिये ... नन्द लाल भारती १९.0७.२०१०
०००००
मुबारक हो
यूं फूल सा
खिलखिला जाना ।
ठहरी रहे ये ,
जुड़ता रहे
नित नया तराना।
प्रसून सा
जीवन
नाचता रहे
भौरा।
आहट से
खिलखिला उठे
घरौंदा ।
मुबारक हो ,
हर रात
सुहानी बन जाए
जीवन की सुगंध से
वक्त गमकता
रह जाए .... नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
पीर की महफ़िल में
जख्म खुद का
खुद सहला लेता हूँ ,
पल-पल रंग
बदलती रगों को
कागज पर
उतार लेता हूँ..... नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०

Thursday, July 15, 2010

पत्थर के घर

पत्थर के घर
भान नहीं कौन
क्या ?
गुन रहा होगा
उल्लास की बयार से,
दिल विहस रहा होगा ।
खुदा की पौध के फूल है सब
पर हर को
खुशबू नहीं देता ।
जमाने के भीड़ में
कभी-कभी
कोई देवता रूप
धर लेता ।
खोजती आँखे ,
कोई मेहदी सा
रंग
नहीं छोड़ता ।
उत्सवी बाज़ार तो है
पर
अपनापन नहीं होता ।
उम्मीद का दरिया
खुद में
डूबने लगा है।
आदमी की भीड़ में
आदमी
अकेला लगाने लगा है ।
ढह रहे दरख

हर ओर
छाव कहा होगी ।
बाजारवाद की रस्मो में ,
सोधेपन की बात,
कहा होगी ?
बदलते अक्त में
नेकी का भाव गिर रहा ।
आदमी आज
खुद
खुदा बन रहा।
बिकाऊ है
सब कुछ पर
संतोष
नहीं बिक रहा ।
बूढी होती
सास को
उम्र का इंतजाम
नहीं हो रहा ।
महकती रहे
कायनात,
दुआ है हमारी ।
ना चुभे कांटे कोई ,
स्वर्ग सी हो
हरा हमारी ।
भारती धुल की ना उठे
आंधी,
महक उठे फुलवारी
पत्थरो के घर से
उठे बसंत
कामना है हमारी ...नन्दलाल भारती॥ १५.०७.२०१०

Tuesday, July 13, 2010

तलाश

तलाश
कविता की तलाश में
फिरता हूँ
खेत-खलिहान
बरगद की छाव
पोखर तालाब बूढ़े कुए
सामाजिक पतन,
भूख-बेरोजगारी में
झाकता हूँ।
मन की दूरी
आदमी की मजबूरी में
ताकता हूँ ।
तलाशता हूँ
कविता
कड़ी और खाकी में ।
दहेज़ की जलन
अम्बर अर्ध्बदन
अत्याचार के आतंक में ।
मूक पशुओ के क्रुन्दन
आदमी के मर्दन में ।
ऊँचे पहाड़ो ,
नीचे समतल मैदानों में ।
कहा-कहा नहीं
तलाशता कविता को ।
खुद के अन्दर
गहराई में
उतरता हूँ
कविता को
खिलखिलाता हुआ पता हूँ ।
सच भारती
यही तो है
वह गहराई
जहा से उपजती है
कविता
दिल की गहराई
आत्मा की ऊंचाई से । नन्द लाल भारती ॥ १3.०७.२०१०
जश्न
मुस्कराने की लालसा लिए
दर-दर भटक रहा हूँ।
हाल ए दिल
बयां करने को ,
तरस रहा हूँ।
दर्द आंकने वाला
नहीं मिल रहा कोई ।
दर्द नाशक के बहाने ,
रची जाती
साजिशे
कोई ना कोई ।
यहाँ रात के अँधेरे में
अट्टहास करता
डर है ।
दिन के उजाले में
बसा खौफ है ।
रक्त रंजित
दुनिया के आदी हो रहे ।
कही आदमी तो कही
आदमियत के
क़त्ल हो रहे।
दर्द के पहाड़ तले
दबा खाहिशो को
हवा दे रहा ।
आतंक से सहमा भारती
सर्द कोहरे से
छन रही धुप का
जश्न
मनाने से
डर रहा ....नन्दलाल भारती १३.०७.२०१०

Thursday, July 8, 2010

आदत सी हो गयी है .

आदत सी हो गयी है
भेद भरी इस ज़हा की
खा-खाकर ठोकरे
अब तो सीने में ,
दर्द लेकर जीने की
आदत सी हो गयी है ।
बेदर्द लोग थोपते है
दर्द बेख़ौफ़
छल-बल ,झूठ -फरेब की,
थामे तलवार
दुनिया की चकाचौध
हासिल कर चुके बेरहम लोग
खुद को खुदा मानने लगे है ।
देखकर जालिमो की साजिशे
इंसानियत को शर्म आने लगी है
खुदगर्ज़ पल-पल चेहरा
बदलने लगा है ।
कौन तौले आंसू दर्द का
आदमियत के दुश्मन
विहसने लगे है
मौके-बेमौके आँखे भर आई है
सच कहता हूँ
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत हो गयी है ।
दमन के बवंडर जब उठते है
शोषितों के नसीब की बलि
लेकर थमते है ।
रूह कॉप जाती है
ईमान बेपरदा हो जाता है
कर्मशीलता पर हो जाता है
वज्रपात ।
वंचित की बस्ती में
कायम रहती है
भय-भूख और कराह
देखा है पास से
पीया है आंसू भी
कई-कई राते नीद
नहीं आई है
कसम से
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत हो गयी है ।
छिनने की हवश
ऊंचे लोगो के नीचेपन को
हमने आँका है
दमन का बह चला है दरिया
लूट रहे हक़ , बाँट रहे दर्द
वंचितों की नसीब
कैद हो गयी है
सच कह रहा हूँ यारो
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत सी हो गयी है ।
नन्दलाल भारती-- ०८-०७-२०१०

Monday, July 5, 2010

लोकमैत्री

लोकमैत्री ..
लोक मैत्री की बाते
बिती कारी राते
बिहसा जन-जन
छाई जग में
उजियारी
नया सबेरा नई उमंगें
जीवित
मन के प्रपात
फ़ैलाने लगा
अब
लोकमैत्री का प्रकाश ।
सद्भावन का उदय
मन हुआ चेतन
जाति धर्म की बात नहीं
जग सारा हुआ
निकेतन ।
मान्य नहीं
जातिधर्म का समर
जय गान सद्भावना का
बिहस उठेगा
जीवन सफ़र ।
विश्वबंधुत्व की राह
नहीं होगा अब
मन खिन्न
ना होगा भेदभाव
ना होगा आदमी भिन्न।
भारती लोकमैत्री का भाव
विश्व एकता जोड़ेगा
ना गैर ना बैर
हर स्वर
सद्भावना की
जय बोलेगा ......नन्द लाल भारती ॥ ०५.०७.२०१०

विष की खेती

विष की खेती ..
नेकी पर कहर
बरस गया है
सगा आज
बैरी हो गया है ।
हक़ पर जोर ,
अजमाइश होने लगा है
लहू से खुद का ,
आज सवारने लगा है ।
कभी कहता दे दो ,
नहीं तो छीन लूगा
कहता कभी,
सपने मत देखो
वरना आँखे फोड़ दूंगा ।
माय की हाला में डूबा
कहा उसको पता,
बिन आँखों के भी
मन के तरुवर पर,
सपनों के भी
पर लगते है ।
हुआ बैरी अपना,
जिसको लेकर
बोया था सपना ।
धन के ढेर
बौराया
मद चढ़ा अब माथ
सकुनी का यौवन ,
कंस का अभिमान,
हुआ साथ ।
बिसर गयी नेकी
दौलत का भरी दंभ
स्वार्थ के दाव
नेकी घायल
छाती पर गम ।
नेकी की गंगा में
ना घोलो जहर
ना करो
रिश्ते के संग
हादसे
देवता भी तरसे ।
जीवन को भारती
मतलब बस ना करो
विष की खेती
डरा करो
खुदा से.................नन्द लाल भारती ... ०५.०७.२०१०

Saturday, July 3, 2010

नमन कर लो

नमन कर लो ॥
खौफज़दा कह रहे है
कौन है
वो ,
रोशनी पर
कारा पोत रहा है
जो ।
आवाज़ आती है
मंद सी ,
होगा कोई
अमन शांति का
विद्रोही
या
स्वार्थी फरेबी
कोई
या
कोई
उन्मादी अमानुष
आदमियत के माथे
गारा छोप रहा है
जो ।
आवाज़ पुनः
गूजती है ,
अरे अमन शांति
के दुश्मनों
विद्रोह से फूटेगी
चिंगारी जब
राख कर देगी
सारे वजूद तब
फरेब से खड़ी
इमारत को भी ।
त्याग दो
अमानवीय कृत्य
जमाने को सुखद
एहसास करा दो,
सच
हर लब पर होगा
एक स्वर
वो
कौन देवता है भारती
रोशन जहा
करने वाला
नमन कर लो.... नन्दलाल भारती.....०७.२०१०
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जीवन में सुखद उजास बाटते रहिये ,
ना जाने किस मोड़ पर सास साथ छोड़ दे ॥
नन्द लाल भारती ॥ ०३.०७.२०१०
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मर्यादा

मर्यादा
हुशन के सौदागरों ने
मर्यादाओ को
रौद रखा है ।
वे भी है
एक औरत की देन
विसार रखा है ।
बेपरदा ,बदमिजाजिया
करता सौदागर
दबा
क़र्ज़ तले
जिसके
सौदा करता
उसी का सौदागर । नन्दलाल भारती 02.०७.2010
०००००
नारी मुक्ति को खुला सलाम
चाहुओर तरक्की
यही है
पैगाम ।
नारी अस्मिता पर
आज खतरा
मदराया /madaraya है
आधुनिकता का
बिगड़ा रूप
निखर आया है।
तन के वस्त्र कम
होने लगे है
कही अर्ध्बदन
तो
कही तंग होने लगे है ।
मुक्ति का मतलब
अश्लीलता
क्यों हो रहा है
आधुनिकता व्यभिचार
क्यों
बन रहा है
अरे करो विचार
कैसी है
इ लाचारी
पश्चमी सभ्यता का
जाल
बेबसी नहीं
हमारी । नन्द लाल भारती ०२.०७.२०१०

Friday, July 2, 2010

आरजू

आरजू

आरजू है खुदा तुमसे
कांटो को भी भर दे
रहनुमाई से ।
ना धंसे
वे
उस पाँव में
बढ़ रहे हो
जो
जनकल्याण में ।
काँटों ने तो फूलो को ,
सवार रखा है
समाज के कांटो ने
तबाह कर रखा है ।
मशविरा है ,
हमारी समाज के
कांटो को साज दो
आदमियत की
सुरक्षा का भार
उन पर डाल दो ......नन्द लाल भारती ...०२.०७.२०१०

कागा

कागा
कागा भी आज राग ,
अलापने लगे है ।
असि पर आंकने वाले
मसीहा बनने लगे है ।
कैसे-कैसे चेहरे है
जमाने की भीड़ में।
उसूलो की तो बाते,
खेलते है
गरीब की भूख से ।
उसूले के मायने बदल ,
गए है आज ।
तरक्की बरसे खुद के द्वारे
सलामत रहे राज।
मय की मदहोशिया
मयखाने में थाप दे रहे
खुदा की कसम भारती
यही तो
तबाह कर रहे। नन्द लाल भारती ...०२.०७.२०१०

भरे जहा में ..

भरे जहा में ..
भरे जहा में
परायेपन की बेवफाई
मतलब का विष ,
डंसती भेद की परछाई ।
सामाजिक द्वेष की
आज के जग में ,
हौशला अफजाई
आहात मन उत्पीडन की ,
ना सुनवाई ।
समता की दीवाना
समझौतावादी झुक
जाता बार-बार
उसूलो का पक्का
ईमान ना झुका एक बार ।
बेबस भेद भरे जहा में
आशा ही जीवन का आधार
बड़े दर्द ढोए है,
विषमता ने छोपा है खार।
जीवन बना पतझड़
ना खिला तकदीर का तारा
गम की राहे लक्स आंसू
बैरी हुआ जग सारा ।
बाँट गयी कायनात
भारती तडपे बेसहारा
ना घेरे भेद अब
मानव उत्थान रहे ध्येय हमारा.......... नन्दलाल भारती॥ ०२-०७-२०१०

Thursday, July 1, 2010

पिता
मै पिता बन गया हूँ
पिता के दायित्व
और
संघर्ष को जीने लगा हूँ
पल-प्रतिपल ।
पिता की मंद पड़ती रोशनी
घुटनों की मनमानी
मुझे
डराने लगी है ।
पिता के पाँव में लगती ठोकरे
उजाले में सहारे के लिए
फड़कते हाथ
मेरी आँखे नाम कर देते है ।
पिता धरती के भगवान है
वही तो है ,
जमाने के ज्वार-भाटे से
सकुशल निकालकर
जीवन को मकसद देने वाले ।
परेशान कर देती है
उनकी बूढी जिद ,
अड़ जाते है
तो
अड़ियल बैल के तरह
समझौता नहीं करते
समझौता
करना तो सिखा ही नहीं है ।
पिता अपनी धुन के पक्के है
मन के सच्चे है
नाक की सीध चलने वाले है ।
पिता के जीवन का
आठवा दशक प्रारम्भ हो गया है
नाती-पोते ल;कुस हो गए है
मुझे भी मोटा चश्मा लग गया है
बाल बगुले के रंग में ,
रंगते जा रहे है
पिता है कि
बच्चा समझते है ।
पाँव थकते नहीं
उम्र के आठवे दशक में भी
भूले -भटके शहर आ गए
तो
आते गाव जाने कि जिद
गाव पहुचते
शहर रोजी-रोटी कि तलाश में आये
बेटा-बहू- नाती -पोतो कि फिक्र ।
पिता कि यह जिद
छाव लगती है
बेटे के जीवन की।
सच कहे तो यही जिद
थकने नहीं देती
आठवे दशक में भी पिता को ।
आज बाल-बाल बंच गए
सामने कई चल बसे
बस और जीप की खुनी टक्कर थी
सिर हाथ फेरकर मौत ने रास्ता
बाल ली थी ।
खटिया पर पद गए है ,
खटिया पर पड़े-पड़े
पिता होने का फ़र्ज़ निभा रहे है
कुल-खानदान ,सद्परम्पराओ की ,
नसीहत दे रहे है
जीवन में बाधाओं से
तनिक ना घबराना ।
कर्म-पथ पर बढ़ाते रहने का ,
आह्वाहन कर रहे है ।
यही पिता होने का फ़र्ज़ है
पिता अपनी जिद के पक्के है
और अब मै भी।
यक़ीनन ,
परिवार ,घर-मंदिर के
भले के लिए जरुरी भी है
मै भी समझाने लगा हूँ
क्योंकि मै पिता बन गया हूँ ।
औलाद के आज- कल की फिक्र
मुझे पिता की विरासत में ,
मिल रही है ,
यकीन है
मेरी फिक्र एक दिन
मेरी औलाद को
सीखा देगी
एक
सफल पिता के दावपेंच ..... नन्दलाल भारती ०१-०७-२०१०

Wednesday, June 30, 2010

मिल गया आकाश थोडा

मिल गया आकाश थोडा॥
खुदगर्ज़ जमाने वालो ने
खूब किये है जुल्म ,
अस्मिता,कर्मशीलता
योग्यता तक को
नहीं छोड़ा है ।
नफ़रत भरी दुनिया में
कुछ सकून तो है यारो
कुछ तो है
जमाने में देवतुल्य
जिन्हें
मुझसे लगाव थोडा तो है ।
जमा पूंजी कहू
या
जीवन की सफलता
बड़ी शिद्दत से निचोड़ा है।
बड़े अरमान थे
पर रह गए सब कोरे
कुछ है साथ
जिनकी दुआओं से
गम कम हुआ थोडा है ।
मैनहीं पहचानता
नहीं वे
पर जानते है
हर दिन मिल जाते है
थोकबंद
शुभकामनाओ के
अदृश्य पार्सल
भले ही जमाने वालो ने
बोया रोड़ा है।
अरमान की बगिया
रहे हरी-भरी
हमने खुद को निचोड़ा है ।
मेरा त्याग और संघर्ष
कुसुमित है
मिल रही है दुआए थोडा-थोडा ।
दौलत के नहीं खड़े कर पाए ढेर
भले ही पद की तुला पर
रह गए बेअसर
धन्य हो गया मेरा कद
दुआओं की उर्जा पीकर थोडा-थोडा ।
मै आभारी रहूगा
उन तनिक भर
देवतुल्य इंसानों का
जिनकी दुआओं ने मेरे जीवन में
ना टिकने दिया
खुदगर्ज़ जमाने का रोड़ा
सवरगया नसीब
मिल गया
अपने हिस्से का आसमान थोडा .............नन्दलाल भारती.......३०.०६.२०१०


रक्त कुंडली ॥
ना बनो लकीर के फकीर
ना ही पीटो ठहरा पानी
रूढ़ीवाद छोडो
विज्ञानं के युग में
बन जाओ ज्ञानी ।
जाति-गोत्र मिलन का वक्तनहीं
ना करो चर्चा
स्वधर्मी रिश्ते
रक्त कुंडली पर हो
खुली परिचर्चा ।
ये कुंडली खोल देगी
असाध्य ब्याधियो का राज
नियंत्रित हो जाएगी ब्याधिया
सुखी हो जायेगा समाज ।
विवाह पूर्व
रक्त कुंडली की हो जाये
अगर जाच ,
जीवन सुखी असाध्य ब्याधियो की
ना सताएगी आंच ।
हो गया ऐसा तो
रूक जायेगा
मृत्युदूतो का प्रसार
ना छुए मृत्युदूत-रोग
अब हो
रक्त कुंडली का प्रचार ।
ले लेते है जान
थेलेसिमिया एड्स रोग
कई-कई हजार
निदान बस विवाह पूर्व
मेडिकल जाच की है दरकार ।
ये जाच बन जायेगी
स्वस्थ -खुशहाल
जीवन का वरदान
आनुवंशिक असाध्य रोगों से
बचाना होगा आसान ।
जग मान चूका अब ,
माता-पिता है अगर
असाध्य रोगी ,
अगली पीढ़ी स्वतः
हो जाएगी
रोगग्रस्त-अपांग-भुक्तभोगी ।
छोडो रुढ़िवादी बाते
हो स्वधर्मी रिश्ते-नाते पर विचार
कर दो रक्त कुंडली मिलन का ऐलान
आओ हम सब मिलकर बनाये
संवृध-असाध्य-रोगमुक्त हिन्दुस्तान .....नन्दलाल भारती ...३०.०६.२०१०