Tuesday, August 31, 2010

अमर गीत

अमर गीत ..
गंगाजल सरीखे
आँखों के पानी
का मोल,
आदमी रूप खुदा का
मन की गहराई से तोल ।
बहते आंसू को पोंछ ,
कमजोर के काम
आया जो ,
जगाया जज्बात
नेक देवतुल्य
सच्चा इंसान है वो ।
मर मिट जायेगे
सब पीछे
भी तो
यही हुआ ,
किया काम कल्याण का
आदमी
वही
खुदा हुआ ।
माया के हुश्न
तरबत्तर दीन को
सताया ,
वक्त ने दुत्कारा
ना
कभी जमाने को
याद आया ।
वक्त ने बिन पानी की
मीन सा तड़पाया ,
तानाशाहों ने भी
कफ़न
तक नहीं पाया ।
आदमी खुदा का रूप
उजियारा,
उठे हर हाथ
चिराग
मिटे हर अँधियारा ।
कृष्ण किये उध्दार
राम हुए पुरुषोत्तम
महावीर अहिंसा
बुध्द ने जलाई
समता की ज्योति
सर्वोत्तम ।
कबीर रविदास के शब्द
ललकार रहे ,
गूंज रही मीरा की धुनें ,
वाहे गुरु
अनुराग रहे ।
ध्रितराष्ट्र को जग
धिक्कार रहा ।
ना तडपे भविष्य
ना आँखे
अब रोये
लिख दो
अमर गीत भारती
समय के आरपार
जग वाले गाए..........नन्दलाल भारती ३१.०८.२०१०

Sunday, August 29, 2010

जीवन विकासिनी

जीवन विकासिनी
हे नारी तुम हो
सृजनकारी ,
जगत कल्याणी
श्रद्धा हमारी ।
ब्रहम्स्वरुपी कराती सर्वस्व अर्पण
बंधी विरासत करती सम्पर्पण .
खिचती खाका पक्का
सृजन का सारा ,
सृष्टि की वरदान
झरती त्याग की धारा।
खुद को न्यौछावर करना
कोई तुमसे सीखे ,
दिव्यज्योति
दुर्गा, लक्ष्मी ,सरस्वती सरीखे ।
हे कल्याणी तुम बिन
जीवन कैसा ।.........?
ऋणी जग पर तू कहती
उपकार कैसा ............?
जीवनदायिनी
चलते रहना
काम है तेरा ,
ममता की मूर्ति
मंगलकारी है
नारी....
जहा पड़े पग
तेरे
साबित हुई
उपकारी ।
नेकी माने
जग सारा
वक्त कहे महान
जब तक चाँद में
शीतलता
सूरज में है
ताप
नभ जैसा उंचा नाम तेरा
तू ही है
धरती का
स्वाभिमान .........................नन्दलाल भारती ....२९.०८.२०१०

नारी

नारी
नारी तुम बुनती हो
नित ने सपने ,
करती हो
साकार हितार्थ बस
ना
अपने ।
चाहती हो
बटोरना
पर
बिन बटोरे रह जाती
ना किसी से कम
ना कोई
बात ऐसी।
मज़बूरिया
खूंटे से बढ़ी रहती
चाहती तोड़ना
पर
ना तोड़ पाती।
जीवनदायिनी
पाठशाला है वो
कमजोर तो नहीं .....?
विरासत में मिली।
दिन रात पिसती है
जो.........
चलना जिम्मेदारी
निभाती है वो ।
शोषण,उत्पीडन,दहेज़ से
घबराने लगी है
पंख फद्फड़ाने लगी है ।
भूत भविष्य वर्तमान है
जो............
सिसकती, छिनना चाहती है
बार-बार बलिदान
कर जाती है
वो................।
चाहती रचना नित नया
सदा से रचती आयी है वो
लक्ष्मी ]दुर्गा ,सरस्वती है
जो.............
कही पानी तो कही आग है
वो ......
नित नए सपनों के तार बुनती है
वो....
नवसृजन करती
वन्दनीय
नारी है जो............. नन्दलाल भारती २९.०८.२०१०

Friday, August 27, 2010

मुट्ठी में आसमान

मुट्ठी में आसमान ..
आज गाव को देखकर
ऐसा लगने लगा है ,
मानो हमारा गाव
तरक्की करने लगा है
कंडे थापने वाले हाथ
कलम थामने लगे है ।
गाव की दहलीज पर
सर्वशिक्षा अभियान
बेटा-बेटी माँ-बाप के
आँख ठेहुना सामान
दहेज़ भ्रूण ह्त्या पाप है
लड़की का जन्म पुण्य
नहीं कोई
अभिशाप है ।
आज के ये ब्रह्मवाक्य
गहराई तक
उतरने लगे है ।
बूढी रुढियो के दम
उखड़ने लगे है ।
तभी तो गाव की
लड़किया
साइकिल पर सवार
लड़कियों के झुण्ड
तितिलियो
जैसा रंग बिखेरता हुआ
मन को हमारे
सकून देने लगा है ।
पीछे झाँक कर मन
बोझिल
हो जाता है ,
क्यों
हुआ अन्याय
बूढी रुढियो के भ्रम
लड़की की तकदीर का
हुआ दहन।,
आज भी लड़किया
सिलाई पुरी से
उबी नहीं है ,
बदलते वक्त में
आसमान
छूने की ललक में
डूबी हुई है ।
एहसास
पुख्ता होने लगा है
लड़की का भाग्य
सवरने लगा है
मुट्ठी में
आसमान
आने लगा है ,
सच मुझे
यकीन होने लगा है
हमारा गाव भी
अब
तरक्की करने लगा है ..नन्दलाल भारती ॥ २८.०८.२०१०

पतिता

पतिता
गुलामी, माँ के पैरो की देख जंजीरे,
पतिताओ के घुघुरू उगले थे अंगारे।
आज़ादी को महासमर,
राजा रंक सब थे जुटे
देश भक्त पतिताए
कैसे रहती पीछे
वे भी कूद पड़ी ।
अज़ीज़न नर्तकी देशभक्त
कानपुर वाली
देश पर मर मिटने का
जज्बा रखने वाली ।
कानपुर में गोरो ने किया
आक्रमण जब
कूद पड़ी रणभूमि में
वीरांगना तब ।
दुर्भाग्यवस
गोरो के हाथ आ गयी
गोरो की शर्त माफ़ी मांगे,
हो गयी शहीद
रिहाई की शर्त को
ठोकर
मार गयी ।
पूना की चंदाबाई देशभक्त थी
गीतों से देशप्रेम की मशाल
जलाया करती थी ।
चंदाबाई का गीत प्रसिध्द एक
परिंदों हो जाओ आजाद
काहे तुम पिज़रे में पड़े
राजाजी जुल्म करे।
कशी की ललिताबाई
चंदा मांगती थी
खद्दरधारी चरखा
चलाया करती थी ।
अंग्रेज कोतवाल की तरफ
पीठ कर थी गाई
ऐसो की क्यों देखे सूरत
जिन्हें वतन से अपने नफ़रत।
आरा की गुलाबबाई
भी
शोला थी
आज़ादी खातिर
तलवार उठा ली थी ।
पतिताए भी धन्य ,
आज़ादी के समर तप
पवन हुई
भारत माता की बेड़िया
काटने में
सफल हुई।
भले भूल गया हो
इतिहास
पतिताए भी
आयी
देश के काम
ऐसी जानी-अनजानी
शहीद
पतिताओ को प्रणाम ......नन्द लाल भारती॥ २८.०८.२०१०

Wednesday, August 25, 2010

कैनवास

कैनवास
बिटिया बड़ी होने लगी है
और
मेरा घर लगने लगा है
छोटा ।
बिटिया
अंगुली पकड़ते-पकड़ते
उड़ान भरने लगी है
बौना हो गया है
वक्त
नन्ही अंगुलियों का
स्पर्श
कल की बात
लगती है।
बिटिया की सोच का
कैनवास
बड़ा हो गया है ,
बढ़ते कैनवास को
देखकर
बढ़ने लगा है
मेरा आत्मबल ।
बिटिया
जमा करने लगी है
रंग
दुनिया सजाने के लिए ।
खुद के खींचे खाके में
भर देती है
रंग और
जीवंत कर देती है
कल्पना
रह जाता हूँ
मै भौचक्का ।
सोचता हूँ
क्या...?
वही गिर-गिर कर चलती
तुतलाती दिवार पर
लकीर उकेरती
बिटिया है
जिसने थाम लिया है
कूंची
और
भरने लगी है
रंग
दुनिया के कैनवास पर....... नन्द लाल भारती ॥ २५.०८.२०१०

Monday, August 23, 2010

दर्द

दर्द
थक रहा हूँ
आवाज़ देकर
ना मिल रहा
कोई
साथ चलने वाला
फिजा में भर
चुकी है
जैसे हाला।
कहा सुन रहा
कोई
मेरी आवाज़
टंग गए है
दिलो पर
ताले ...
कानो की खिड़किया
हो चुकी है
बंद।
भरे जहा में
उफनते दर्द की
दरिया को
कोई रोकने वाला
ना मिला ।
दर्द भरी ज़िन्दगी को
किस्मत मान बैठा ,
कहा और किससे
करू गिला शिकवा
इस जहा में
दर्द के
सिवाय
और
क्या मिला.......नन्दलाल भारती २३.०४.१०

Sunday, August 22, 2010

परमपिता ..........

परमपिता
हे परमपिता
तुम
उनके अभिमान को
और
मत संवारो ।
दोषी तो है ,
पर
माया की चमक में खो जाते है ,
आपा में कर्तव्य आदमियत
और
सब कुछ।
जिनमे ना भाषा
ना सद्भाना का भार है ।
वे निंदक अभिमानी तो है ,
वे शरीर और सिक्को के बल पर,
यकीन करते है।
और की मर्यादा से
क्या लेना-देना उनको ।
अभिमान करता है
गुमराह जिनको ।
वे सम्मान को
कहा जानते है ।
सब जानकर भी
कामना करता हूँ ,
उनके कल्याण की ।
हे परमपिता
चेतना का संचार कर दो
उनमे ।
आमजन प्रेम और बंधुत्व की
राह चल सके वे ।
चित पर
ज्ञान की
लगामे दो उनको ।
कसाई सा ह्रदय
ना चहरे पर
आँखे है जिनके ।
हे परमपिता
सूर्य सा तेज
वायु सा वेग
गंगा सा निर्मल
ज्ञान का सागर
प्रदान करो ।
हे परमपिता
विरोधियो को,
परास्त करने की कोई
कामना
नहीं है मेरी ।
शक्ति दो
परमपिता
ताकि
विरोधियो के बीच
निर्भय चल सकू।
जहा स्वाभिमान
आजाद-अनुराग का
अनुभव करता हुआ
विरोध की परवाह
किये बिना
भारती
निर्भय निरंतर
सद्कर्म के पथ
बढ़ता रहू।
हे परमपिता
इतनी शक्ति दो......नन्दलाल भारती... २२.०८.२०१०

पतझड़

पतझड़
ख्वाब टूटने
ज़िन्दगी बिखरने लगी है ,
आजकल धड़कने भी ,
बहकने लगी है ।
आहिस्ता-आहिस्ता
दर्द बढ़ने लगा है ।
उजियारे में
अँधियारा
पसरने लगा है ।
तकदीर की बात पर
भरम बढ़ने लगा है
गिध्द दृष्टि से
खौफ
बढ़ने लगा है
परछाईयो से
डर
लगाने लगा है ।
सपने
स्वार्थ के पतझड़ में ,
गिरने लगे है ।
आशा निराशा में
डूब मरने लगी है ।
सिसकिया सुनने की
अब
फुर्सत नहीं है ।
उम्मीदों के जंगल में
भारती
पतझड़ उतरने लगा है।
ख्वाब टूटने
ज़िन्दगी बिखरने लगी है...................नन्दलाल भारती ... २२.०८.२०१०

Friday, August 20, 2010

सपनों की बरात

सपनों की बारात
मुझे भी सपने आते है ,
भले ही
तरक्की से वंचित हूँ।
मै सोता हूँ,
सपनों की बारात में,
नीद की गोलिया खाकर नहीं ।
थक कर सो जाता हूँ
रुखी सुखी रोटी खाकर ।
भर पेट पानी पीकर ,
बसर कर लेता हूँ,
सपनों में भी
भर नीद सो लेता हूँ।
महंगाई,उत्पीडन के संग
गरीबी ने भी घेरा है .
गैरो से क्या
शिकायत
अपनो ने भी पेरा है ।
मुझे रोने से
परहेज़ नहीं
एकांत में
रो लेता हूँ।
कहते है
उगता वही है
जो बोया जाता है
ना तो मैंने
ना ही
मेरे पुरखो ने
कोइ विष बृक्ष
लगाया ,
ना जाने कितनी पीढियों से
विषपान कर रहा हूँ।
मै थकता नहीं
क्योंकि
तन से बहता
पसीना है ,
मै वंचित अभावों में भी
मुझे आता जीना है ।
उम्मीद है
मेरा परिश्रम बेकार नहीं जायेग ,
मिलेगा हक़
कल ज़रूर मुस्कराएगा।
मै
यकीन पर
कायम हूँ
जीतूंगा जंग
खिलेगा
मेरे श्रम का रंग ।
मै
हारूँगा नहीं भारती
क्योंकि
मुझे जितना है ... नन्दलाल भारती ....२०.०८.२०१०



Thursday, August 19, 2010

सूझता नहीं ..

सूझता नहीं..
कुछ सूझता ही नहीं ,
अभिमान के अलावा।
ढँक लेता हूँ
चेहरा
उजाले में
बंद कर लेता हूँ
कान भी।
ना सुन सकू भंवरी
जैसी
औरतो की चीख पुकार।
बंद कर लेता हूँ
आँखे
ना देख सकू
गोहाना
ओर
बेलखेड सरीखा रक्तपात ।
मेरा क्या
रिश्ता क्या है मेरा ।
मै तो नकाबपोश
सिंहासन पर बैठा ।
क्या लेना देना
किसी कमजोर के
जलते घर ,
लूटती आबरू
ओर
दम तोड़ती
मानवता से ।
सचमुच
मै
गूंगे बहरे
अन्धो के बीच
गूंगा बहरा
और
अंधा हो गया हूँ
भारती
तभी तो
कुछ सूझता ही नहीं
अभिमान के अलावा ...नन्दलाल भारती .... १९.०८.२०१०






Wednesday, August 18, 2010

मंगलकामना

मंगल कामना ..
बंटवारे में
विषमता मिली
मुझे,
विरासत में
तुम्हे क्या दू ?
विधान संविधान के
पुष्प से
कोई सुगंध फ़ैल जाए ।
ह्रदय दीप को
कोई
ज्योतिर्पुंज मिल जाए ।
आशा की कली को
समानता का मिले
उजास ।
धन धरती से बेदखल
देने को बस
सद्भावना का
नैवेद्य है
मेरे पास।
ग्रहण करो
बुध्द जीवन वीणा
के
बने रहे सहारे ।
चाहता हूँ
जग को
ज्योति दो
नयन तारे ।
तुम्ही बताओ
भारती
शोषण उत्पीडन का
विष पीकर
साधनारत
जीवन को
आधार क्या दू ।
बंटवारे में
मिली विषमता
मुझे
तुम्हे मंगल
कामना
के अतिरिक्त
और
क्या दू........ नन्द लाल भारती ... १८.०८.२०१०

Saturday, August 14, 2010

चिट्ठाप्रहरी-आपके ब्लाँग का मोबाइल एग्रीगेटर: ब्लाँग एग्रीगेटर चिट्ठाप्रहरी का शुभारम्भ

चिट्ठाप्रहरी-आपके ब्लाँग का मोबाइल एग्रीगेटर: ब्लाँग एग्रीगेटर चिट्ठाप्रहरी का शुभारम्भ

जिंदाबाद .......

जिंदाबाद ....
राष्ट्रीय त्यौहार आजादी का दिन
देश- घर-आहोहावा
और
हर चोला के मग्न होने का दिन
इसीदिन की इन्तजार में
अनगिनत शहीद हो गए
खुद के लहू से आज़ादी की ,
दास्तान लिख गए ।
आज़ादी का जश्न
तिरंगा की मस्ती
हमारी जान
बाँट रहा ख़ुशी
धरती और गगन में
और हम देशवासी
एक दुसरे को ।
हमारी ख़ुशी को कोई
पैमाना नाप नहीं सकता
नहीं समंदर को स्याही
और
पेड़ो को लेखनी
बनाकर लिखा जा सकता
हम हो भी क्यों न
इतने खुश
आज़ादी तो परिंदों को भी
जान से प्यारी होती है
हम इंसान
इंसानियत के सर्वधर्म ,
समता सद्भावना के पुजारी ।
एक दर्द है
हमारे दिल में भी
आँखों को तरबतर कर देता है
आंसू से ......
आम हाशिये के आदमी को
आज़ादी के इतने दशको बाद
दीदार नहीं हुए
असली आज़ादी के
वह आज भी
आज़ादी से कोसो दूर
फेंका .....
भय-भूख,शोषण,उत्पीडन
भूमिहीनता ,दरिद्रता को
लाचार नसीब मान बैठा है
यही बड़ा दुःख है
दिल का ...
कारण भी ज्ञात है
हमारे अपने मुखौटाधारी
लोकतंत्र के पहरेदार
छीन रहे है
शोषित,वंचित आम आदमी का हक़
छिना तो मुग़ल शाशको ,सामंतवादी
और
गोरो ने भी मचा दिया था तबाही
लोकतंत्र में भी
हाशिये का आदमी तरक्की से बेदखल
यह तो असली आज़ादी नहीं
न तो आज़ादी के लिए
जान देने वालो की थी
यह चाह ॥
उनकी चाह थी
अपना देश वपना संविधान
आम आदमी की तरक्की
आज आदमी ही
असली आजे के सपने में
जी रहा है
देश की आज़ादी के जश्न के दिन
वह बहुत खुश है
आजाद देश की आजाद हवा पीकर ....
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार,अत्याचार, शोषण,भूमिहीनता
उत्पीडन , जातिवाद , नक्सलवाद से उबरने के लिए
एक और जंग की जरुरत है
तभी मिल सकेगी
आम हाशिये के आदमी को
असली आज़ादी
तभी वह चल सकता है
विकास के पथ पर...
ऐसा हो गया तो
विहस उठेगी शहीदों की आत्माये
असली आज़ादी को देखकर ।
आओ कर दे शंखनाद
विहस उठे आम हाशिये का आदमी
राष्ट्र बन जाए
धर्म .....
ऐसी सद्भावना कर सकरी है
उध्दार
देश और हाशिये के आदमी का
यही सपना भी था
अमर शहीदों का
आओ एक बार फिर खा ले कसम
देश और आम आदमी के हित में
जिससे हमारी आज़ादी रहे आबाद
हर देशवासी का एक सुर हो
भारत माता की जय
१५ अगस्त जिंदाबाद .......नन्दलाल भारती १४.०८.२०१०
( चलितवार्ता -०९७५३०८१०६६ ) -आज़ाद दीप - 15 ,एम्- वीणा नगर, इंदौर (म..)

Friday, August 13, 2010

सोचता हूँ

सोचता हूँ
सोचता हूँ बार-बार
विहस पड़े
मेरा भी मन
एक बार ।
व्यवधान खड़ा हो जाता है ,
कोंई---
उमंगें रुद देती है
अड़चने कोंई ना कोंई ।
चाहुओर मौत के
सामान बिकने लगे है ,
रोजमर्रा की चीजो में
जहर मिलाने लगे है ।
महंगाई है
भूख है
हवा प्रदूषित है ।
शासन है प्रशासन है
फिर भी
रिश्वतखोरी है
समता सम्पन्नता के वादे
तो बस
मुंहजोरी है ।
न्याय मंदिर है
दंड के विधान है
फिर भी अत्याचार है ।
बुध्द भावे की ललकार ,
फिर भी अनाचार है ।
चाहूओर मुश्किलों का घेरा
कहा से आये
मुस्कान
मोह,मद का बाज़ार
हावी सब है परेशान ।
खुश रहने के
उपाय विफल
हो जाते है
मुखौटाधारी मतलब का
दरिया पार कर जाते है
सच भारती
मै भी सोचता हूँ
बार-बार ,
विहस पड़े मेरा भी
मन एक बार....नन्दलाल भारती ..१4.०८.०१० (मोबाइल -०९७५३०८१०६६ )

धनिखा

धनिखा
धानिखाओ की बस्ती में ,
दौलत का बसेरा
गरीबो की बस्ती में
भूख अभाव का डेरा ।
अहि मुशिबतो की कुलांचे
चिथड़ो में लिपटे शरीर ,
हर चौखट पर
लाचारी
कोस रहे तकदीर ।
गरीबो की तकदीरो पर
पड़ते है डाके यहाँ,
भूख पर रस्साकसी
मतलब साधते है वहा ।
मज़बूरी के जाल
उम्र बेचा जाता है ,
धानिखाओ की दूकान पर
पूरा दाम नहीं ,
मिल पता है ।
बदहाली में जीना मरना
भारती
नासी बन गया है ,
अमीर की तरक्की
गरीब , बरिब ही रह गया है ...नन्दलाल भारती ..१4.०८.०१० ( मोबाइल -०९७५३०८१०६६ )

काबिलियत

काबिलियत
काबिलियत पर,
ग्रहण लगा दोधारी ,
योग्यता पर छा
महामारी
फ़र्ज़ और भूख ने
कैदी बना रखा है ,
मुश्किलों के समर ने
राहे रोक रखा है
चनसिक्को की
बदौलत
उम्र बिक रही है
श्रम की बाज़ार में
तक़दीर छीन रही है
मायुसी के
बादल
उखाड़ने लगे है
पर.....
तार-तार अरमानो को
भारती
ताग-ताग कर रहा बसरनन्दलाल भारती ( मोबाइल -०९७५३०८१०६६) 4.०८.२०१०


नारायण

नारायण
गरीब के दामन,
दर्द ,
चुभता निशान छोड़ जाता है ,
दर्द के बोझ जवान
बूढ़ा होकर रह जाता है ।
दर्द में झोकने वाला
मुस्कराता है
किनारे होकर,
बदनसीब थक जाता है
दर्द का बोझ ढोकर।
शोषित वंचित का
जुल्म
जुल्म आदमियत पर
दर्द का जख्म
रिस रहा उंच नीच के नाम पर ।
मातमी हो जाता है,
गरीब का जीवन सफ़र
सांस भरता गरीब
अभावों के बोझ पर ।
जंग अभावों से ,
हाफ-हाफ करता बसर,
चबाता रोटी
आंसुओ में भिगोकर ।
उत्पीडित नहीं
कर पाता पार
दर्द का दरिया
जीवन भर ।
दिया है दर्द
जमाने ने
दीन जानकर ।
गरीब का दामन
रह गया
जख्म का ढेर होकर ।
अर्द भरा जीवन
कटते लम्हे
काटो की सेज पर ,
अब तो हाथ बढाओ
भारती
डूबते की ओर
वंचित है ,
उठ जाओगे
नर से
नारायण होकर। ....नन्द लाल भारती १३.०८.२०१०

Wednesday, August 11, 2010

आज जैसा

आज जैसा
आज जैसा पहले
तो ना था ,
हंस रोकर भी ,
बेख़ौफ़ सो लेता था ।
मौज में
सब का प्यार
सब में बाँट देता था
शायद
तब बचपन था ।
उम्र क्या बढ़ी ?
फ़र्ज़ के पहाड़ के
नीचे आ गया हूँ ।
तमाम मुश्किलों से
निपटने के लिए ,
उम्र का बसंत
हो चूका हूँ ।
उम्र बेंचकर भी ,
टूटे ख्वाब में
बसर कर रहा हूँ ,
रोटी आंसुओ से ,
गीली कर रहा हूँ।
अभाव की चिता पर भी
जी लेता हूँ ।
जुल्म का जहर
पी लेता हूँ ।
उम्मीदों के दम
दम भर लेता हूँ।
असी की धार पर,
चल लेता हूँ,
पेट की बात है
तभी तो
हर दंश झेल लेता हूँ ।
सच मानो भारती
स्वर्ग सी
दुनिया में
रहकर भी
नरक भोग लेता हूँ ...नन्दलाल भारती ११.०८.२०१०

धर्म

धर्म
आजकल शहर
खौफ में
जीने लगा है ,
कही दिल
तो कही
आशियाना
जलने लगा है ।
आग उगलने वालो को
भय लगने
लगा है ,
तभी तो शहर का
चैन
खोने लगा है ।
धर्म के नाम पर
लहू का खेल
होने लगा है।
सिसकिया थमती नहीं
तब तक
नया घाव होने लगा है।
कही भरे बाज़ार
तो कही
चलती ट्रेन में
धमाका होने लगा है ।
आस्था के नाम पर,
लहू -कतरा-कतरा
होने लगा है ।
कैसा धर्म ?
धर्म के नाम
आतंक होने लगा है
लहुलुहान कायनात ,
धर्म बदनाम होने लगा है ।
आसुओ का दरिया ,
कराहने का शोर
पसारने लगा है ।
धर्म के नाम
बांटने वालो का
जहा रोशन होने लगा है ।
आसुओ को पोंछ भारती
आतंकियों को
ललकारने लगा है
धर्म सद्भाव बरसता
क़त्ल क्यों होने
लगा है
आजकल शहर ,
खौफ में जीने लगा है ..नन्दलाल भारती॥ ११.०८.२०१०

Monday, August 9, 2010

मेरी गली

मेरी गली में ..
मेरी गली में
कभी कभी
आया करो ,
दीन की ड्योढ़ी पर
पाँव पखारा करो ।
पसीने से नहाया,
आशियाना हमारा
मुश्किलों के दौर
जाने जग सारा ।
परिश्रम की रोटी
सोधापन खूब सारा ।
भारती अतिथि देवो
पर यकीं हमारा
मेरी गली में ,
कभी-कभी
आया करो.......नन्दलाल भारती ०९.०८.२०१०

गमो के दौर

गमो के दौर ..
गमो के दौर है,
मेरा क्या कसूर?
हालात के सताए
हो गए
मजबूर।
छाव की आस
धुप में बहुत
तपे हजूर।
बदकिस्मती हमारी
कांटे मिले भरपूर।
विष बाण का सफ़र
मान बैठा दस्तूर।
आंसुओ का पलको से
खेलना
तकदीर बन गया
हजूर ।
टूटे हुए
ख्वाब संग
भारती
उम्मीद से खड़ा
हूँ बहुत दूर।
गमो के दौर है
मेरा क्या कसूर..........नन्दलाल भारती ०९.०८.२०१०




दीन

दीन
मेरी किस्मत को
क्यों ?
दोष दे रहा जमाना ।
याद नहीं जमाने को
हक़ हज़म कर जाना ।
साजिश का हिस्सा
है मेरी मजबूरिया ।
पी लेता हूँ
ये विष कस लेता हूँ
तनहईया ।
रार नहीं ठानता
मई
खैरात चाहता ही नहीं ,
हाड को निचोड़कर
दम भर लेता हूँ तभी ।
हाड खुद का
निचोडना आता नहीं
सच
तब ये दुनिया वाले
जीने देते नहीं ।
सरेआम सौदा होता
जहा चाहते बेचते
वही ।
खुदा का शुक्र
मजदूर
होकर रह गए ।
खुद ना बिक़े
श्रम बेचकर
जी गए ।
जमाने से रंज
नहीं तो फक्र कैसा?
जमाने की चकाचौध में
भारती जी लेता हूँ
दीन होकर भी
दीनदयाल जैसा ........नन्दलाल भारती ०९.०८.२०१०

Sunday, August 8, 2010

मरुभूमि

मरुभूमि
बनी ज़िन्दगी मरुभूमि की सेज
अक्स बाँट रही दुनिया।
बेक़रार दिल
खुश्बू के फांक
बरसने
लगी है
अंखिया ।
कैसी चकाचौध
डसने लगी है
जमाने की खाईया ।
मरुभूमि की सेज
सजने लगी है
तन्हाईया ।
वक्त के समंदर
उमड़ने लगी है
आंधिया ।
सजाने लगी है,
काम क्रोध की दुसुवारिया ।
बंट गए अक्स ,
ज़िन्दगी के ,
चुभती रुसुवाईया ।
सवरे थे
कुछ सपने
अब उजाड़ने लगी है
आन्धिया ।
उम्र भागे
दिया सा ख्वाब
बसा दिल की गहराईया ।
खाक ज़िन्दगी ,
राख में जोड़ता
ज़ीने की लडिया
जेहनो में भरा करार
गढ़ता उजियारे की कलियाँ
कायनाते ख्वाब
चले साथ
छंट जाए आंधिया । नन्द लाल भारती ॥ ०८-०८-२०१०

Saturday, August 7, 2010

बौनी कसमे

गरीबो की बस्ती में
दीया जुगनू होता है ।
वहा अंधियारे
कनक का उजियारा
होता है।
माथे चिंता,
रोम-रोम चिता,
सुलगते है ।
दिल में गूंजती आह
बेवस सास भरते है।
नहीं मिला मसीहा
माया की दौड़ में
सब भागे ।
बेवासो की आँखे
ललचाई।
कोई जा रहा आगे ।
झोपडियो को
कहा ?
देखता
महलों में रहने वाला ।
माना मसीहा
पर
कहा
वो तो शोषण
करने वाला ।
थक गया
गरीब जोह जोह कर बाटे।
ना पलटी
किस्मत
कटती विपदा की राते ।
बौनी हुई कसमे
भारती
विसर जाते
सारे वादे ।
ताज निज मोह
गढ़ काल के गाल
सुनहरी यादे... नन्दलाल भारती ॥ ०८.०८.२०१०

Wednesday, August 4, 2010

पैगाम

जिन्दा हूँ
तो
चिराग है ,
गमे दिल ,
पल
-पल सुलगती आग है ।
ज़िन्दगी देने वाले
तेरी करामत का क्या राज है
कगी मेला कही झमेला
कही उदास आज है ।
कही रोना कही गाना
कही अँधेरा ही अँधेरा ,
कही बदनसीब के भाग्य का
नहीं हो रहा सबेरा ।
सिसक रहा बिच बाज़ार
न बन रहा सहारा कोई मेरा ।
हे ज़िनाही देने वाले
क्या दोष होगया मेरा
ज़िन्दगी एक ख्वाब है
विश्वास है मेरा ।
तड़पना ,ठोकरे खाना
क्या यही नसीब है मेरा ।
बस जी रहा हूँ
अरे सुने लो मेरी पुकार
तेरे बिछाए जाल में
नहीं गूंज रही गुहार ।
क्या इसीलिए बख्शा
जिनगी बेहाल रहू
तेरे बन्दों के बीच
तड़पता हर हाल रहू ।
सुन लो तुम
यहाँ नहीं कोई
सुनने वाला है मेरा
ज़िन्दगी है तेरी बख्शीश
तुमको पैगाम है मेरा । नन्द लाल भारती ०४.०८.२०१०