Tuesday, September 28, 2010

स्वार्थ का कूड़ा

.. स्वार्थ का कूड़ा ॥
स्वार्थ का कूड़ा जब
जिंदगी में
घर कर जाता है ना ,
आँखों से सूझता ही नहीं,
दिल भी मानो मर जाता है ।
आदमी पिशाच होकर
कुख्यात हो जाता है
तानाशाह स्वार्थी के नाम से ।
आज भी कई नर पिशाच
जड़ खोद रहे है
इंसानियत की
गरीब जनता की
शोषित पीड़ित जनों की ।
निर्भय भर्ष्टाचार का आतंक
मचा रहे है ।
नकाब ओढ़े बढ़ रहे है
तरक्की की ओर
जब नकाब छंट
जाएगा ना
तब खिताब मिलेगा
आदमखोर
स्वार्थ तानाशाह का ।
सचमुच स्वार्थ के कूड़े में
दबे लोग ,
स्टालिन, पोलपोट,हिटलर ही तो
कहे जाते है ।
अरे नकाबपोशो
उतर जाएगा
एक दिन नकाब जब ना
खुद दाग लेकर मुंह छिपाओगे
या
कर लोगे
आत्मदाह
हिटलर की तरह ।
तुम्हारी पीढिया
नहीं ढो पाएगी
ख़िताब को ।
सच मानो स्वार्थ का कूड़ा
जब सिर चढ़ जाता है ना ।
आदमी को आदमखोर बना देता है ।
स्वार्थ के दाग को धोते -धोते
कई पीढिया
शर्मशार हो जाती है
अभी तक तो
ऐसा ही हुआ है ,
स्टालिन,हिटलर और पोलपोट के साथ .......नन्दलाल भारती ... २८.०९.२०१०







Sunday, September 19, 2010

सम्मान

सम्मान
वेद पुरानो ने माना
हमने भी दिया है
सम्मान ,
पति नारी जहा है
मान
वहा पालथी मारे
सम्पन्नता
कथन महान ।
वज्र सी कठोर
अग्नि सी
प्रचंड
पुष्प सी अभिलाषा
मिट जाती
फ़र्ज़ पर
खंड-खंड।
उज्जवल मनोरथ
परिवार की
कश्ती ,
लक्ष्मी सरस्वती
दुर्गा की
प्रतिमूर्ति ।
आदर्श आज
भी
जहा में
निश्छल मान
मानव-मन में ।
मान को बहार
स्वाभिमान को चाहिए
उड़ान ,
घर बना रहे मंदिर
त्याग के
बदले नारी को
सम्मान चाहिए .......... नन्दलाल भारती .....१९.०९.२०१०

धरती का साज

धरती का साज
नारी जीवन विरह का
पर्याय नहीं ,
परमार्थ की सौगात
उत्पीडन का जीव नहीं ।
नयनो में आंसू अथाह
उर से बरसे
वचन महान
पग पड़े जहा,
वहा सम्व्रिधि के बने
निशान ।
नारी जीवन न्यौछावर
और
सौगात ,
खुद से बेखबर
परिवार की फिक्र में
बोती आस।
होंठो पर मुस्कान
पलको पर आंसू के
हार,
व्यथा का बोझ भरी
नारी जाती
जीत-जीत कर हार ।
पुलकित जग
ममता की निर्मल छांव
धरती की साज
नारी
कुसुमित परिवार
जहा -जहा
पड़े तेरे पाँव .......नन्दलाल भारती ... १९.०९.२०१०





NARAYANI

नारायणी
गंगा सी मनोरथ वाली
नारायणी ,
मानवता का गौरव
जगत कल्याणी ।
दया अपार
ममता का सागर अथाह ,
घर परिवार पर आते ,
दुःख का झोंका
कर जाती कराह ।
मर्यादा खातिर
हर
हलाहल पी जाती ,
पति को परमेश्वर
खुद अर्धांगिनी कही जाती ।
स्वार्थ की आंधी
जीवन में भर रही है
खार,
आँखों से झरता नीर
कल्याणी होती लाचार।
अन्धविश्वासी लोग
सीता भी छली गयी
अग्नि परीक्षा
देकर भी मुक्त नहीं हुई ।
आज भी
कल्याणी कर रही गुहार
समानता का
मांग रही
अधिकार
चाहती बुराईयो का
बहिष्कार ।
हे दुनिया वालो
गंगा सी
मंतव्य
वाली की
सुनो पुकार
क्यों विष पीये
कल्याणी
दे दो
अधिकार ............नन्दलाल भारती.... १९.०९.२०१०

Saturday, September 18, 2010

वक्त के कैनवास पर

वक्त के कैनवास पर
छांव को छांव मान लेना
भूल हो गयी ,
परछईया भी रूप
बदलने लगी है
दाव पाते कलेजा चोंथ
लेती है
कहा खोजे छाँव
अब तो
छांव भी आग उगलने लगी है ।
छांव की नियति में
बदलाव आ गया है
वह भी शीतलता देती है
पहचानकर
छांव में अरमानो का
जनाजा सजने लगा है
क़त्ल का पैगाम मिलाने लगा है ।
मुश्किल से कट रहे
बसंत के दिन
शामियाने से मातम
फुफकारने लगा है
उम्र की भोर में
शाम
पसारने लगी है ।
तमन्ना थी
विहान होगा
सजेगे सितारे
कलयुग में नसीब तड़पने लगा है ।
मधुमास को मलमास
डंसने लगा है
नहीं तरकीब कोई
चाँद पाने के लिए
उम्र गुजर रही
सद्कर्म की राह पर
बहुरूपिये छांव ने
दागा है किये
वेश्या के प्यार की तरह
आमी छांव की आड़
धुप बोने लगा है
खौफ खाने लगा है
ना विदा हो जाऊ जहा से
छांव से सुलगता हुआ
सपनों की बारात लिए
ऐसा कैसे होगा .............?
भले जमाना न सुने फरियाद
फ़रियाद करूंगा
कलम से
वक्त के कैनवास पर
लिखूंगा बेगुनाही की दास्ताँ
भले क़त्ल कर दिए जाए सपने
मै संभावना में
कर लूँगा बसर
कलम थामे कल के लिए ............नन्दला भारती ......१८.०९.२०१०

Friday, September 17, 2010

उम्मीद

उम्मीद ..
म्मीद पर उम्मीद
जीवन रसधार ,
गैर-उम्मीद टूटी
हिम्मत
डूबे मझधार ।
जीवन का दुःख-सुख
ओढ़ना-बिचौना
उम्मीद पर उंगली
रिश्ता हुआ बौना ।
उम्मीद बोती
निराशा में अमृत -आशा
जन-जन समझे
उम्मीद की परिभाषा ।
उम्मीद के समंदर में
जीवित है सपने
टूटी उम्मीद
बिखरी चाहत
बैर हुए अपने ।
उम्मीद है बाकि
पतझड़ में बरसे
बसंत
उम्मीद का ना कोइ
ओर-छोर ना है अंत ।
उम्मीद विश्वास
बन जाते
जग के बिगड़े काम
मंदिर मस्जी,गिरजाघर
बुध्द का कहे पैगाम।
उम्मीद जीवन
या
दूजा नाम धरे भगवान
उम्मीद है
जीवन की डोर
टूटी हुआ वीरान ।
मैंने भी थाम लिया है
उम्मीद का दामन
चली तैयार बार-बार
नसीब बनी रेगिस्तान ।
काबिलियत का क़त्ल
हक़ पर सुलगे
सवाल ,
लूटी नसीब सरेआम
खड़ा तान ऊंचा भाल ।
अभिमान दहके
फूटा शोला विष सामान
उम्मीद के दामन लिपटा
गढ़ गयी पहचान ।
उम्मीद वन्दनीय
गाद,खुदा, प्रभु का प्रतिरूप
जमी रहे परते
उम्मीद की छंट जायेगी धुप .............नन्दलाल भारती ॥ १७.०९.२०१०

हिंदी हिन्दुस्तान की आत्मा है


Thursday, September 16, 2010

सुगंध

सुगंध
जमीन पर आते ही बंधी
मुट्ठिया खिंच जाती है ,
रोते ही ढोलक की थाप पर
सोहर गूंज जाता है ।
जमीन पर आते ही
तांडव नजर आता है,
समझ आते ही
मौत का डर बैठ जाता है ।
मौत भी जुटी रहती है
अपने मकसद में ,
आदमी को रखती है
भय में ।
सपने में भी
डरती रहती है
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर
मुंह बाए कड़ी रहती है ।
परछाइयो से भी चलती है
आगे-आगे
आदमी भी कहा कम
चाहता निकल जाए आगे ।
भूल जाता आदमी
तन किराये का घर
रुतबे कि आग में
कमजोर को भुजता जाता
मानव कल्याण में जुटा नर,
नर से नारायण हो जाता ।
मौत जन्म से सात लगी
पीछे पड़ी रहती है
सांस को शांत करके ही रहती है ।
सबने जान लिया पहचान लिया
जीवन का अंत होता है
ना पदों जातिधर्म के चक्रव्यूह
बो दो सद्कर्म
और
सद्भावना कि सुगंध
आदमी अमर
इसी से होता है.................नन्दलाल भारती ... १६.०९.२०१०
हिंदी है तो hai हम ,हिंदी पर प्रहार देगा गम ही गम

Wednesday, September 15, 2010

उपकार

उपकार ..
नफ़रत किया जो
तुमने क्या पा जाओगे ?
मेरे हालत एक दिन
जरुर बह जाओगे ।
गए अभिमानी
कितने
आयेगे
और
गरीब कमजोर को
सतायेगे ।
मै नहीं चाहूगा
कि वे बर्बाद हो
पर
वे हो जायेगे ।
जग जान गया है
गरीब कि
आह
बेकार नहीं जाती
एक दिन ख़ुद
जान जाओगे ।
मै कभी ना था
बेवफा
दम्भियो ने
दोयम दर्जे का
मान लिया
शोषित के दमन कि
जिद कर लिया ।
समता का पुजारी
अजनबी हो गया
कर्मपथ पर
अकेला चलता गया ।
वे छोड़ते रहे
विषबान,
घाव रिसता रहा
आंसुओ को स्याही मान
कोरे पन्ने सजाता रहा ।
शोषित कि
काबिलियत का
अंदाजा ना लगा
भेद का जाम ,
महफ़िलो में
शोषित अभागा लगा ।
वक्त का इन्तजार है
कब करवट बदलेगा
दुर्भाग्य पर कब
हाथ फेरेगा ।
मेरी आराधना कबूल करो
प्रभु
नफ़रत करने वालो के
दिलो में
आदमियत का भाव
भर दो
एहसानमंद रहूगा
तुम्हारा
उपकार कर दो ....नन्दलाल भारती ... १५.०९.२०१०




Tuesday, September 14, 2010

आते हुये लम्हों

आते हुये लम्हों
हे आते हुये लम्हों
बहार की ऐसी बाया लाना ,
नवचेतना, नव परिवर्तन
नव उर्जावान बना जाना ।
अशांति विषमता,
महंगाई की प्रेत छाया
ना मदराये
ना उत्पात ना भेदभाव
ना रक्तपात
ना ममता बिलखाये।
मेहनतकश धरती का सूरज चाँद
नारी का बढे सम्मान ,
न तरसे आँखे
मेहनत पाए
भेद रहित सम्मान ।
जल उठे मन का दिया ,
तरक्की के आसार
बढ़ जाए
माँ बाप की ना टूटे
लाठी
कण-कण में ममता
समता बस जाए ।
भेद का दरिया सूखे
दरिंदो का ना गूंजे हाहाकार ।
इन्सोनो की बसत में बस
गूंजे
इंसानियत की जयजयकार।
देश और मानव
रक्षा के लिए
हर हाथ थामे तलवार
तोड़ दीवारे भेद की सारी
देश-धर्म के लिए रहे तैयार ।
जाती धर्म के ना पड़े ओले
अब तो मौसम बसंती हो जाए
शोषित मेहनतकश की चौखट तक
तरक्की पहुँच जाए ।
एहसास रिसते जख्म का दर्द
दिल में फफोले खड़े है ,
मकसद निज़दिकी उनसे
जो तरक्की समता से
दूर पड़े है ...
बीते लम्हों से नहीं
शिकायत
पूरी हो जाए अब
कामना ,
हे आते हुये लम्हों
आस साथ तुम्हारे
सुखद हो
नवप्रभात
सच हो जाए
खुली आँखों का सपना ...नन्द लाल भारती॥ १४.०९.२०१०
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हिंदी माता है, माता का अपमान सम्मान तो नहीं
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Monday, September 13, 2010

राह जाना है

राह जाना है ..
ये दीप आंधियो के प्रहार से
थकने लगा है ,
खुली आँखों के सपने
लगे है धुधले .
हारने लगी है अब उम्मीदे
भविष्य के रूप लगने लगे है
कारे-कारे ।
लगने लगा है
होंठ गए हो सील
पलको पर आंसू लगें है
पलने ।
वेदना के जल , उम्मीद के बादल
लेकर लगे है चलने ।
थामे करुणा कर
जीवन पथ पर निकल पड़ा
पहचान लिया जग को
यह दीप थका ।
उम्र के उडते पल
पसीने की धार झराझर
फल दूर नित दूर होता रहा
सुधि से सुवासित
दर्द से कराहता रहा ।
कर्म के अवलंबन को
ज्वाला का चुम्बन
डंस गया
घायल मन के
सूने कोने में
आहत सांस भरता गया ।
भेद की ज्वाला ने किया
तबाह
पत्थर पर सिर पटकते
दिन गुजर रहा
घेरा तिमिर
बार-बार
संकल्प दोहराता रहा ।
जीवन का स्पंदन
चिर व्यथा को जाना ।
दहकती ज्वाला की छाती पर
चिन्ह है बनाना
याद बिखरे विस्मृत,
क्षार सार माथे मढ़ जाना
छाती का दर्द
भेद के भूकम्प का आ जाना
कब लौटेगे दिन
कब सच होगा
पसीने का झरते जाना
उर में अपने पावस
जीवन का उद्देश्य
आदमियत की राह है जाना ..... नन्दलाल भारती १३.०९.२०१०

Sunday, September 12, 2010

उम्र
वक्त के बहाव में
ख़त्म हो रही है
उम्र ,
बहाव चट
कर जाता है
हर एक जनवरी को
जीवन का एक और बसंत।
बची खुची बसंत की सुबह
झरती रहती है
तरुण कामनाये ।
कामनाओ के
झरझर के आगे
पसर जाता है
मौन,
खोजता हूँ
बीते संघर्ष के क्षणों में
तनिक सुख।
समय है
कि
थमता ही नहीं
गुजर जाता है दिन ।
करवटों में गुजर जाती है
राते
नाकामयाबी कि गोद में
खेलते-खेलते
हो जाती है सुबह
कष्टों में भी दुबकी रहती है
सम्भावनाये ।
उम्र के बसंत पर
आत्ममंथन कि रस्साकसी में
थम जाता है समय
टूट जाती है
उम्र कि बढ़ाये
बेमानी लगाने लगता है
समय का प्रवाह
और
डसने लगते है
जमाने के दिए घाव
संभावनाओ कि गोद में
अठखेलिया करता
मन अकुलाता है
रोज-रोज कम होती
उम्र में
तोड़ने को बुराईयो का
चक्रव्यूह
छूने को तरक्की के
आकाश ...नन्दलाल भारती॥ १२.०९.२०१०

Thursday, September 9, 2010

MADHUMAAS

मधुमास ..
भविष्य के बिखरे पत्तो के निशान पर
आनुए लगा है
उम्र का नया मधुमास
रात दिन एक हुए थे
पसीने बहे
खुली आँखों में सपने बसे
वाद की शूली पर टांगे गए
अरमान
व्यर्थ गया पसीना
मारे गए सपने
मरते सपनों की कम्पित है
सांस ।
संभावना की धड़क रही है
नब्जे
अगले मधुमास के
विहस उठे सपने
नसीब के नाम ठगा गया कर्म
मरुभूमि से उठती
शोले की आंधी
राख कर जाती
सपनों की जवानी
काप उठाता गदराया मन
भेद की लपटों से
सुलग जाता बदन ।
तालीम का निकल चुका
जनाज़ा
योग्यता का उपहास
सपनों का बजता नित
बाजा
जीवन में खिलेगा मधुमास
बाकी है आस
पसीने से सींचे
कर्मबीज से उठेगी सुवास ।
उजड़े सपनों के कंकाल से
छनकर गिरती परछाई में
संभानाओ को खोजता
मधुमास
सुलगते रिश्ते भविष्य के
कत्लेआम
उमंगो पर लगा जादू-टोना
मरते सपने बने
ओढ़ना बिछौना ।
संभावनाओ के संग
जीवित उमंग
कर्म होता पुनर्जीवित
भरोसा
साल के पहले दिन
कर्म की राह गर्व से बढ़ जाता
संभावनाओ की उग जाती कलियाँ
जीवन के मधुमास से छंट जाए
आंधिया ।
पूरी हो जाए
मुराद
वक्त के इस मधुमास
लुटे भाग्य को मिले
उपहार बासंती
कर्म रहे विजयी
तालीम
ना पाए पटकनी
जिनका उजड़ा भविष्य
उन्हें मिले जीवन का हर मधुमास
हो नया साल मुबारक
गरीब-अमीर सब संग-संग गाये गान
जीवन की बाकी प्यास
भविष्य के बिखरे
पत्तो के निशान पर
छा जाए मधुमास .......नन्दलाल भारती ॥ ०९.०९.२०१०

Wednesday, September 8, 2010

देखा है

देखा है
इसी शहर में
बेगुनाह की
अर्थी
उठते हुए देखा है ,
उन्माद की आग में ,
आशियाना
जलते हुए देखा है ।
आदमी को आदमी का खून,
बहाते हुए देखा है .
इसी शहर में
देवालय के द्वार
क़त्ल होते हुए देखा है ,
बेरोजगारी की उमस में
हड़ताल होते हुए
देखा है ।
न्याय की पुकार में
अन्याय
होते हुए
हमने देखा है ।
अपनो को माया की ओट
बैर
लेते देखा है ।
इसी शहर में
रिश्तो की तड़पते हुए
देखा है ।
दीन के आंसू पर
लोगो को
मुस्कराते हुए देखा है ।
मद की ज्वाला में
गरीब को
तबाह करते हुए देखा है ।
इसी शहर में
कमज़ोर को
बिलखते
हुए देखा है ।
श्रम की मंडी में
भेद की आग लगते हुए
देखा है ।
भेदभाव की खंज़र से
आदमियत का
क़त्ल
होते हुए देखा है ।
दम्भियो को
दीन के अरमानो को
रौदते हुए
देखा है ।
सफ़ेद की छाव
बहुत कुछ
काला होते हुए
हमने देखा है ।
शहर की चकाचौंध में
दीनो के घर
उजड़ते हुए देखा है।
शूलो की राह
जीवन होता तबाह
भारती
हमने देखा है ।
इसी शहर में
हर जुल्म जैसे
खुद पर
होते हुए
हमने देखा है .....नन्दलाल भारती ०८.०९-२०१०

Tuesday, September 7, 2010

सलाम

सलाम ..
माँ तुम्हारी देह
२७ अक्टूबर २००१ को
पंचतत्व में खो गयी थी
माँ मुझे याद हो तुम
तुम्हारी याद दिल में बसी है ।
आज भीतुम्हारा एहसास
साथ साथ चलता हा मेरे
बिलकुल बरगद की छाव की तरह।
दुःख की बिजुड़ी जब कड़कती है
ओढा देती हो आँचल
मेरी माँ
अंदाजा लग जाता है
मुझे
तुम्हारे न होकर भी
होने का ।
सुख-दुःख में तुम्ही
तो
याद आती हो
तुम्हारी कमी
कभ-कभ बहुत रुलाती है ,
जब ओसरी में गौरैया
जाते बर्तन के
फेंके पानी से
जूठन चुनकर अपने
बच्चो के मुंह में
बारी-बारी से
डालती है ।
तब तुम और तुम्हारा
संघर्ष
बहुत याद आता है
उभर आता है
धुधली यादो में बसा मेरा बचपन भी
माँ
तुम उतर आती हो
परछाई सरूप मेरे सामने
और
रख देती हो सर पर हाथ ।
कठिन फैसले की जब
घडी आती है
जीवित हो जाती हो जैसे तुम
ह्रदय की गहराईयो में
राह बदल लेती है
हर मुश्किलें ।
माँ तुम्हारे आशीष की छाव
फलफूल रहे है
तुम्हारे अपने
सींच रहे हा तुम्हारे सपने
और
रंग बदलती दुनिया में
टिका हूँ मै भी ।
माँ तेरे PRATI श्रद्धा ही
जीवन KA UTTHAAN है
यही श्रद्धा देती रहेगी
हमें
तुम्हारी थपकियो KA एहसास भी ।
माँ तुम तो नहीं हो
देह रूप में
विश्वाश है
तुम मेरी धड़कन में बसी हो
हर माताओं के लिए
गर्व का दिन है
मात्रिदिवास
आराधना का दिन है
आज कअ
मेरी दुनिया है
मेरी माँ स्वर्गीय सामारी
करते है
वंदना तुम्हारी
मारकर भी अमर है
तेरा नाम
हे माँ तुम्हे सलाम....नन्दलाल भारती ..०७.०९.२०१०

Sunday, September 5, 2010

रिसाव..

रिसाव
रिश्तो का अथाह
दरिया रिस रहा,
अफ़सोस
कुछ भी नज़र
नहीं आ रहा ।
धीरे-धीरे दरिया
भी खाली हो जाता है ,
शेष
बेकार रह जाता है ।
धरती में दरार
पड़ जाती है ,
दिलो में
गाठे भी
हो जाती है।
जाने लोग
अनजान हो रहे है ।
रिश्ते मोम की तरह
पिघल
रहे है ।
आकाश की बाहों में सूरज
रोज टंग जाता है ,
चाँद भी
खुद के वसूल
पर
खरा नज़र आता है ।
कुछ तो
नहीं बदल रहा
ये आदमी
जरुर बदल रहा।
आदमी ये
ढेर चूक कर गया है ।
भनक तक
जैसे नहीं पाया है।
आधुनिकता के जाल में
फंस गया है ,
अकेलेपन के दलदल में
धंस गया है .
बहुत कुछ
चूक कर रहा
आज भी ,
भूल गया
रिश्तो का स्वाद भी ।
रिश्तो का
आशियाना
रिस रहा
कोई उपाय नहीं
सूझ रहा
भारती
कौन सा गम
रोक सकेगा
रिश्तो के रिसा को ..............नन्दलाल भारती ...०५.०९.१०

Saturday, September 4, 2010

TARANA

तराना
ये दिशाए
भी
कर रही
शिकायत
धुल के अंधेरो में ।
घुटने लगा है
दम
बेख़ौफ़ सास लेने में ।
बुराईयों का
बेशर्म दौर है
आज
जमाने में ।
मर्यादा थरथर्रार रही
जैसे
गाय कट रही
कसाईखाने में ।
कमजोर की लूट रही
आबरू
आज जमाने में ।
डर-डर के दिन
काट रहा
पडा हो कत्लखाने में ।
मांग रहा भीख
जो
लगा था
कल बनाने में ।
निति की निकल रहा
जनाजा
स्वार्थ के आशियाने में ।
सूरज तड़प
चाँद तरस
रहा
आज के मयखाने में ।
सद्बुध्दी का यज्ञ
वक्त लगा मुंह
छिपाने में ।
विध्वंस का ज्वर
अमानुषता की हवस
हाईटेक जमाने में ।
जकड दो बुराईयों को
भारती
गूँज उठे
ख़ुशी के तराने
हर आशियाने में ..नन्दलाल भारती..०४.०९.२०१०

Friday, September 3, 2010

फिक्र


फिक्र

ज्यो-ज्यो बेटी
बड़ी
होने लगी है,
फिक्र
बढ़ने लगी है .
मै
जानता हूँ ,
मेरी फिक्र से
बेटी
फिक्रमंद है ।
वही तो है
जिसे बाप के दर्द का
एहसास है
सच बेटी ही तो है ,
असली दुनिया ।
तमन्ना है
मेरी भी
वह
आसमान छू ले ।
यकीन है ,
वह हार
ऊँचाईया छू लेगी ,
क्योकि
उसमे
उड़ने की ललक है ,
तभी तो अव्वल है ।
बेटी ही तो है ,
जो बाप के लिए
पूजा करती है
सुबह-शाम भगवान् की।
कभी
गुरु
बन जाती है
तो
कभी
शिष्या ,
कभी
डांटती है
तो
कभी
समझाती है ,
कभी
सिर पर
हाथ फिरती है
सुरक्षा का ।
सच
बेटी को फिक्र है
बाप और खानदान के
मर्यादा की ,
माँ-बाप और भाई को
फिक्र है
उसके
कल की-----नन्दलाल भारती....०३.०9.२०१०

Thursday, September 2, 2010

फ़कीर

फ़कीर॥
मानता हूँ
अपनो की भीड़ में
अज़नवी
हो गया हूँ
दर-दर की ठोकरे ,
बंद गली का
आदमी हो गया हूँ
वाद के भीड़ में
तरक्की के दरवाजे
अदनो के लिए
बंद है
माया की बाज़ार में
आदमी,आदमी में
अंतर्द्वंद है
धोखा फरेब आदमी को बाटने
वाला आदमी
अक्लमंद है
माया की बाज़ार में
हार में हार नहीं है
आदमी के बीच
रार ही सच मायने में
मेरी हार है
मुझे गम नहीं है
अपनी तार-तार नसीब का
सकूं से जीने नहीं देता
गम दरार का
खेलकर खून तोड़कर यकीन
नहीं चाहता
तरक्किया
मेरा इतना सा
ख्वाब है
खुली रहे मन की
खिरकिया
जीवित भीड़ में
गुहार कर थकने
कागा हूँ
आँख खुली तभी से
काँटों की नूक पर चल रहा हूँ।
एक चाह है भारती
पत्थर दिलो पर
एक लकीर खिंच दू
दरारों की द्वन्द से
भले ही फ़कीर रहू...............नन्दलाल भारती ... ०२.०९.२०१०

Wednesday, September 1, 2010

जन्नत- ए -धरती

जन्नत--धरती
सोंधी माटी की सुगन्ध,
भिन्नती तन-मन
झरती पहली
किरण
जहा
वह अपना गाव ।
खेत से नहाकर
आती
सोंधी बयार
पेड़ से कोयल की
कू-कू
उड़ेलती रसधार ।
गेहू की क्या
मौज मस्ती
सरसों का खेत
निराला बसंती रंग
तितलियों का
झुण्ड
दिवाली-होली का रंग।
गन्ने का घुलता
रस
मिश्री हुआ संसार ।
पानी में खड़ा
धान करे
ललकार ।
हर खेत उगले
सोना
ऐसा अपना गाव
नर से नर का प्रेम
निश्छल
मीठी वाणी
महुवे की छाव ।
उसर क्या बंज़र ],
खेत ना कोइ परती
सच
गाव अपना
जन्नत-ए-धरती ।
हाद्फोड़ मेहनत
का नतीजा
धन्य वो महान,
चीर धरती निकाले
सोना किसान
भगवान्।
अफ़सोस खोती ग्रामीण
कला
सपना हुआ
पुरवे का पानी ,
बढ़ती जनसंख्या
घटता रोजगार
किसकी बेईमानी ,
ना खोये
गाव
ना हो पुराने
साधनों का
लोप भारती
विहसे सदा
माटी का सोंधापन
बना रहे
अपना गाव
जन्नत-ए-धरती । नन्दलाल भारती .... ०१.०९.२०१०