Sunday, October 31, 2010

जनून

। जनून
सत्ता कैद में है जिनके
जनून चढ़ा है उनको
हाशिये के आदमी की
बर्बादी का ,
दमन भी हो रहा है
भयावह
वफादारी ,ईमानदारी
कर्म है पूजा का ।
हालात हो गए है
ऐसे
सच मानिये जनाब
बीच समंदर में
फंसी कश्ती में छेद
हो गया हो जैसे ।
इस जहा में
हाशिये के आदमी का
मधुमास
पतझड़ हो गया है
आज ही नहीं जनाब
कल भी
पादप से बिछुड़ा
पत्ता हो गया है ।
नहीं ठहरता अब
यकीन
आज के आदमी पर
बदलता है मुखौटा जो
मतलब -दर-मतलब पर ।
हार रहा है
कर्म सच्चा
आदमियत खुद की
बदनामी पर
आंसू बहा रही है
हाशिये के आदमी की
किस्मत
रुढिवादिता
और
रिश्वत डंस रही है
जनाब हाल
तो अब
और
भयावह हो रहे है
तरक्की
परिवारवाद ,भेदभाव की
चौखट पर
नृत्य कर रही है ।
सच जनाब
हाशिये के आदमी का
भविष्य
बीच समंदर में फंसी
कश्ती के छेद सा हो गया है
बच गया तो हिम्मत है
उसकी
नहीं तो बर्बादी का
उनको
जनून तो चढ़ा है। नन्दलाल भारती-- ३१.१०.२०१०







Saturday, October 30, 2010

उद्देश्य

उद्देश्य
मै मुस्करा -मुस्करा
नहीं थकता ,
पास होती कनक की
मादकता ।
बंदिशों में जकड़ा
मुस्करा पता नहीं
विषमता की
गंध सांस
भर पता नहीं ।
कठिन मेहनत
तरक्कियो से दूर
पटका गया ,
दिल पर दहकते
घाव का
निशान बन गया।
मन भेद की खाई
सनाराते देखे गए
लोग,
शाजिसे रचते
नित
नयी-नयी है लोग ।
भीड़ भरी दुनिया में
रुसुवईयो को झेला
परायी दुनिया
यहाँ तो लगा है
स्वार्थ का मेला ।
चाँद सितारे तोड़ने की
ललक
सदा लगी रही
खुले द्वार
तरक्कियो बस
जव़ा मकसद यही ।
नासूर सा जख्म
एकता का भाव
मन में ,
कुचल गयी आशा
तबाह
भविष्य इस जहा में ।
अच्छी दिनों की आस
बढती उम्र की बूढी सांस
दया धर्म-सदभाव की
पूरी हो जाती आस ।
निःसंदेह मेरे जीवन का
उदेश्य
सफल हो जाता
परायी दुनिया
पराये लोगो के बीच
मै
मुस्करा जाता .....नन्दलाल भारती

Wednesday, October 20, 2010

बचपन

बचपन ..
सोचा था ,
बड़े मन से
बच जायेगा
बचपन अपना ।
न बचा न हुआ
पूरा सपना ।
भावनाओ के साथ
आकाश छूने की
लालसा
जिंदगी चीज
क्या
बस खेल खा
सो जाना ।
आत्मीयजनो का प्यार
तहे दिल से
खुश हो जाना ।
सबका स्नेह
सब में बाँट देना
अनजाने में
बचपन सरक गया।
बचपन पर सवार
जवान हो गया
जवानी के साथ
सांध्य की राह चल पड़े
सोचा था
क्या
क्या से
क्या हो गए ।
यादो में खोये रह गए ।
बचपन गया
जवानी गयी
बूढ़े हो गए
सोचा था
बड़े मन से
होगा बचपन का
साथ
सोचा धरा रह गया
बचपन
छोड़ गया हाथ ....................नन्दलाल भारती

Thursday, October 14, 2010

वजूद

वजूद
सब कुछ भूल जाना
चाहता हूँ
रिसते घाव
छलकते आंसू
पेट की भूख
और
भेद का दंश भी ।
अफ़सोस
भेद की दीवार को
मज़बूत करने वाले लोग
कुछ भूलना ही
नहीं चाहते
कुरेदते रहते है
पुराने घाव ।
मै हूँ कि
सब कुछ भूल जाना
चाहता हूँ
दिल में
दफ़न प्यास के लिए ।
मेरा प्रयास निरर्थक
लगने लगा है जैसे .
हर तरफ धुँआ
पसरने लगा है ।
अथक प्रयास के बाद भी
नहीं जीत पा रहा हूँ
भेद का समर।
आहत हो गया है
मेरा सब कुछ ,
भूत भविष्य
और वर्तमान भी।
मौन संघर्षरत हूँ
फिर भी
भारती
उजले वजूद के लिए .....नन्द लाल भारती

एक और दिन

एक और दिन
अरमानो के जंगल में
बढ़ने लगे है हादसे
सोच पर नहीं लगा है
कोई ग्रहण लेकिन
बार-बार मन करता है
हर ग्रहण छांट दू
सामाजिक आर्थिक
या
चाहे हो अन्य कोई।
मन की गहराई में दबी
लालसाओ को
पूरा कर लू
हर सवाल का
जबाब ढूढ़ लू ।
कर लू,
तमाम मीठी कड़वी बाते
ना कर सका जो
अब तक
सम्माज की वेदना
संवेदना की बाते
अटक जाती है
कंठ में
सारी वे बाते
बेरुखी को देखकर ।
तरासता रहता हूँ
अभिव्यक्ति का रास्ता
तोड़ सकू सारा
मौन
खोल सकू
चहुमुखी तरक्की के रास्ते
बिना किसी रुकावट के ।
इन्ही सोचो में डूबा
कट जाता है भारती
ज़िन्दगी का
एक और दिन .........नन्दलाल भारती

Tuesday, October 12, 2010

ज़ंजीर

ज़ंजीर
पाँव जमे भी ना थे
जहा में
पहरे लग गए
ख्वाबो पर
पाँव जकड गए
ज़ंजीरो में
गुनाह क्या है
सुन लो प्यारे ...
आदमी होकर
आदमी
ना माना गया
जाति के नाम से
जाना गया
यही है
शिनाख्त बर्बादी की
मेरे और मेरे देश की
नाज़ है भरपूर
देश और देश की
मांटी पर
एतराज है भयावह
जातिभेद के बंटवारे की
लाठी पर
आजाद देश में
सिसकता हुआ
जीवन
कैसे कबूल हो प्यारे .....
आदमी हूँ
आदमी मनवाने के लिए
जंग उसूल नहीं हमारे
बुध्द का पैगाम
कण-कण में जीवित
नर से नारायण का
सन्देश सुनाता
दुर्भाग्य या साजिश
आदमी...
आदमी नहीं होता ॥
यही दर्द जानलेवा
पाँव की ज़ंजीर भी
डाल दिए है
जिसने नसीब पर ताले
लगे है शादियों से
ख्वाब पर पहरे
अब तोड़ दे
भेद की जंजीरे
मानवीय समानता की कसम खा ले
आजाद देश में ,
आदमी को छाती से लगा ले.......नन्दलाल भारती॥ ११.१०.२०१०




अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति
ज़माने की दर पर
बड़े घाव पाए है ,
हौशले बुलंद पर
खुद को दूर पाए है ।
पग-पग पर साजिशे
हौशले ना मरे
षणयंत्र के तलवार गरजे
पर रह गए धरे ।
क्या बयान करू
नसीब पर खूब चले आरे ,
लूट गयी तालीम
अभिव्यक्ति संबल हमारे ।
छल की चौखट पर
कर्म बदनाम हुआ ,
दहक उठे ख्वाब
फ़र्ज़ बदनाम ना हुआ ।
चाँदी का जूता नहीं
सिर पर नहीं ताज
फ़कीर का जीवन
अभिव्यक्ति का नाज़ ।
षणयंत्र भरपूर,
रास्ते बंद ,
ना चाहू खैरात ,
हक़ की ख्वाहिश ,
क्यों चढ़ी माथे
बैर की बारात ।
मिट जायेगा कल
आज पर कतरे जायेगे ,
छीन जाए रोटी भले
मर कर ना मर पायेगे ।
दीवाना समय का पुत्र
क्या मार पाओगे ,
आज लूट लो नसीब भले
एक दिन आत्मदाह
कर जाओगे ........नन्दलाल भारती॥ ११.१०.२०१०

Monday, October 11, 2010

.. धरोहर ॥
मांटी के लोदे -लोदे पर टिका
आशियाना ,
ईंट, पत्थर
या
हो खपरैल का ।
निहसंदेश साझे परिवार की
अमिट मिशाल रहा ।
जहा कईA पीढ़िया करती रही
एक साथ निवास ।
जहा हर एहसास
एक सा था
हुआ करता ।
छांव , धुप , चांदनी
या रही हो कलि रात ।
ठंडी ,गर्मी की तपन
या
सोंधी बयार।
लोग जहा होते थे
कलह, दंभ से बेखबर ।
सब का सब
होती थी एक नजर ।
उपजता था
जहा सच्चा विश्वास ।
अहंकार जहा सिर
माहि उठा पाता था ।
तीब्र आवेश भी
मर्यादा में ढल जाता था ।
सच यही तो सुख
और
पारिवारिक आनंद है ।
साझे परिवार का
खैपरैल की छांव का ।
मांटी के चूल्हे का सोंधापन
पीढियों का एक घर ।
जहा घर मंदिर
और
नारी गृहलक्ष्मी थी ।
यही तो
पारिवारिक सम्पदा
और
विरासत है ,
साझे परिवार के
स्थायीपन का भी ।
अफसोस बहुत कुछ
टूट रहा है ।
आधुनिकता का विषधर
अपनत्व साझेपन
और
पीढियों के कुनबे को
डंस रहा है ।
संवर लो भारती
पुरखो की धरोहर
संयुक्त परिवार
और
उसके निश्छल सोंधेपन को भी ............नन्दलाल भारती ... ११.१०.२०१०

Saturday, October 9, 2010

सिंहासन उखड सकता है..............

सिंहासन उखड सकता है.............
हसरतो को मिल रहे
घाव हजारो ,
दम्भी जमाना कर रहा
तिरस्कार प्यारे ।
मौज थी अपनी
धुन की पक्की ,
जीत पलको पर
बाढ़ सच्ची ।
हसरतो का क़त्ल
निरंतर,
उमड़ रहा परायापन का
समंदर ।
बेगानेपन की तूफान
बढ़ रही जो आज
दमन का भयावह
राज।
हाल हो गयी है
साख से बिछुड़े
पत्ते की तरह
जिद है अपनी भी यारो
पुआल की रस्सी की तरह .
जान गया हूँ
आदमी को बांटने वालो
कमजोर की नसीब को
नहीं मिलेगा मुकमल जहा
भेद का नर-पिशाच
नफ़रत की आग
दीन को दीन बनाये रखने की
साजिश जवान हो जहा ।
याद रखना हक़ छिनने वालो
दीन का शौर्य
इतिहास नया लिख सकता है ,
दे दो हिस्से का आसमान
वरना
सिंहासन उखड सकता है ......नन्दलाल भारती..१०.१०.२०१०

Friday, October 8, 2010

इंसाफ कहा प्यारे......

इंसाफ कहा प्यारे.....


इंसाफ की आस में
रोशनी होती
दिन पर दिन मंद ,
योग्यता आज बौनी
श्रेष्ठता के हौशले बुलंद ।
ऐसे में
इन्साफ कहा प्यारे
अरमानो पर
जब पड़ रहे हो ओले
जीवन संघर्ष
संभावनाओ में
योग्य कर्मशील अदना
जब जी रहा ह़ो
पल-पल खाकर हिचकोले ।
इन्साफ की ताक में
उम्र गुजर गयी ,
नसीब का बलात्कार
जीत भी हार हो गयी ।
किससे कैसी .......?
इन्साफ की आस
हाशिये के आदमी को
जब मान लिया
गया हो
अभिशाप ।
शैक्षणिक और व्यावसायिक
महारथ भी बौनी हो गयी ,
श्रेष्टता की तरक्की
दिन दुनी रात चौगुनी हो गयी ।
ऐसी फिजा में कैसे आएगी
तरक्की
आम-आदमी के अंगना
क्या जरुरी नहीं
हो गया अब आम-आदमी को
मौन तोड़ना ।
हक़ की लूट ,नसीब का बलात्कार
हाशिये का आम पढ़ा-लिखा आदमी
नित- सह रहा अत्याचार ।
दीन चौथे दर्जे के आदमी के
विकास के रास्ते बंद हो रहे
ललचाई आँखों से देखने के
हुक्म दिए जा रहे ।
आम-आदमी का भी कोई
अस्तित्व है
नकारा जा रहा
हक़ की मांग पर
पाँव तले जमीन तक
छिनने की साजिश हो रही
कैसे मिलेगा इन्साफ
योग्य आम- चौथे दर्जे के
आदमी को
भेद भरे जहा में
न सुनने वाला अब
कोई है पुकार ,
इस जहा में गूंज रही
श्रेष्ठता, भेद-भाव ,भाई-भतीजावाद की
फुफकार ....
समान तरक्की और समानता का
जीवन चाहिए
शिक्षित बनो संघर्ष करो
तभी होगा उध्दार
इन्साफ की आस में
अब ना और इंतजार .....नन्दलाल भारती .....०९.१०.०१०

उसूल

उसूल
जमाने की भी में
हम ना खो जाये
नहीं
इसका गम मुझे ।
गम है यही कि
उसूलो का जनाजा
ना निकल जाये ।
सींचे है
लहू- पसीने से
जो
किया है त्याग
विषपान कर।
जिंदा रखने के लिए
आदमियत का
सोंधापन ।
थाती तो यही है
मेरी ज़िन्दगी भर की।
पराई दुनिया में
उसूलो के दम
जिंदा रहा ।
खौफ लगाने लगा है
उसूलो को रौदने का
षड्यंत्र होने लगा है ।
नहीं बुझी है
प्यास भेद भरे जहा में ।
आसूओ से
प्यास बुझाने लगा हूँ ।
सजग रहता हूँ
हर दम भारती
कही मर ना जाए
मेरे उसूल
किसी फरेब में
फंसकर ...............नन्दलाल भारती ॥ ०८.१०.२०१०

Saturday, October 2, 2010

अपराध

अपराध
भला ये कैसा अपराध
निरापद अपराधी हो गया ,
भूखे श्वान को रोटी देना
जिल्लत बन गया
आदमी बदनाम हो गया ।
आदमी ब्रह्माण्ड का
सबसे होशियार प्राणी है
दूसरे ग्रह पर बसने की
कर रहा तैयारी है
विज्ञानं के युग में
छुआछूत भारी है
दलित की रोटी खाकर
उंच बिरादरी का श्वान
अपवित्र हो जाता है ।
रोटी देने वाले कर्मवीर को
दंड दिया जाता है
लहू को पसीना कर
फसल तैयार करने , निर्माण करने वाले को
अछूत कहा जाता है
सारा जहा शोषित, वंचित
दलित के श्रम से उपजी
रोटी खाता है
एहसान के बदले
कर्मवीर
दुत्कार पाता है ।
दुनिया बदली पर ना बदले
रुढ़िवादी रीतिरिवाज
जीवन की रीढ़
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर
अछूत है आज भी
आज़ादी के बाद भी ।
रोटी किसका पसीना पीकर
खिलती है
सारा जहा जानता है ,
दुर्भाग्य नहीं तो और
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर को
अछूत कहा जाता है ।
इसी श्रमवीर के पसीने से
तपकर रोटी मिल रही है
जिसके पसीने से
उपजी रोटी खाकर
दुनिया पल रही है .
उसी के हाथ से रोटी खाकर
उंच बिरादरी के श्वान का अभिमान ध्वस्त हो जाता है
रोटी देने वाले का स्वाभिमान कुचला जाता है ।
ये कैसा अन्याय
श्रमवीर अपराधी हो गया
जुल्म उपभोग करने वाला निरापद
कहते है अन्न उपजाने वाला भगवान् होता है
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर
यही तो कर रहे है
सम्मान के बदले पग-पग
अपमान पा रहे है
पुराना जाति परम्परा के नाम
बदसलूकी अपराध है यारो
नफ़रत की फसल को
समानता के गंगाजल से
सींचने का वक्त है
खा लो कसम फिर ना होगा
जाति-भेद के नाम
आदमियत का अपमान
शोषित,वंचित, दलित ,
हाशिये का आदमी श्रमवीर
दुनिया को यौवन देने वाला
धरती की छाती चीरकर
रोटी उपजाने वाला
सचमुच है भगवान...............नन्दलाल भारती ॥ ०१.१०.२०१०