Tuesday, December 28, 2010

नववर्ष

नववर्ष
वक्त के बहाव में ख़त्म हो रही है
उम्र
बहाव चाट कर जाता है
हर एक जनवरी को
जीवन का एक और बसंत ।
जानता हूँ ,
नहीं रूक सकेगा बहाव
काम आने लायक बना रहू
औरो के
नववर्ष से पक्की है आस
बची खूंची की सुबह
झरती रहती है
तरुण कामानाये ।
कामनाओं के
झराझर के आगे
पसर जाता है मौन
खोजता हूँ
बिते संघर्ष के क्षणों में
तनिक सुख ।
समय है कि
थमता ही नहीं
गुजर जाता है दिन
करवटों में
गुजर जाती ही
राते ......
नाकामयाबी कि गोंद में
खेलते-खेलते
हो जाती है
सुबह
कष्टों में भी दुबकी रहती है
सम्भावनाये ।
उम्र के बसंत पर
आत्ममंथन कि रस्साकस्सी में
थम जाता है जैसे
समय ।
टूट जाती है
उम्र
कि बाधाये
बेमानी लगने लगता है
समय का प्रवाह
और
डसने लगते है
ज़माने के दिए घाव
संभावनाओ कि गोंद में
अठखेलिया करता
मन अकुलाता है
रोज-रोज कम होती उम्र में
तोड़ने को बुरईयो का
चक्रव्यूह
और
छूने को तरक्की के
आकाश
नववर्ष से ऐसी है आस ।
पूरी हो आमजन की
कामनाये
बुराईयो पर ठनके
चाबुक
शपथ,
राष्ट्रीय सम्पति का ना होवे
नाश ........
नववर्ष मानवीय समानता का बने
मधुमास ...
आमजन के मन बजे झांझ
होवे सांझ सुहानी
चमकता रहे विहान
बूढ़े माँ-बाप कि बनी रहे छाया
दीन-नारायणी कि
राह अड़े ना कांटे ...
नववर्ष द्वार-द्वार सौगात बांटे
हो सके तो द्वार आना
तेरे आगमन पर हो जाऊँगा
एक साल का
और बूढ़ा
ह्रदय कि गहरी से गुज़ेगी
शहनाई
नववर्ष तेरा आना हो
मंगलकारी
दीन-धनिखा
एक स्वर में
एक दूजे को बांटे
तुम्हारे आगमन कि बधाई............नन्द लाल भारती

Thursday, December 23, 2010

एक बरस और ...........

एक बरस और
माँ की गोद पिता के
कंधो
गाव की माटी
और
टेढ़ी-मेढ़ी
पगडण्डी से होकर
उतर पड़ा
कर्मभूमि में
सपनों की बारात
लेकर ।
जीवन जंग के
रिसते घाव है
सबूत
भावनाओ पर वार
घाव मिल रहे बहुत ,
संभावनाओ के
रथ पर
दर्द से कराहता
भर रहा उड़ान ।
उम्मीदों को मिली
ढाठी
बिखरे सपने
लेकिन संभावनाओ में
जीवित है
पहचान
नए जख्म से दिल
बहलाता
पुराने के
रिस रहे निशान ।
जातिवाद-धर्मवाद
उन्माद की धार
विनाश की लकीर
खिंच रही है
लकीरों पर
चलना
कठिन हो गया है ,
उखड़े पाँव
बंटवारे की लकीरों पर
सद्भावना की
तस्वीर बना रहा हूँ ।
लकीरों के आक्रोश में
जिन्दगिया हुई
तबाह
कईयों का
आज उजड़ गया
कल बर्बाद हो गया ,
ना भभके ज्वाला
ना बहे आंसू
संभावना में
सद्भावना के शब्द
बो रहा हूँ ।
अभिशापित
बंटवारे का दर्द
पी रहा
जातिवाद-धर्मवाद की
धधकती लू में ,
बित रहा
जीवन का दिन
हर नए साल पर
एक साल का
और
बूढा हो जाता हूँ ........
अंधियारे में
संभावनाओ का दीप जलाये
बो रहा हूँ
सद्भावना के बीज ।
संभावना है
दर्द की खाद
और
आंसू से सींचे बीज
विराट
वृक्ष बनेगे
एक दिन........
पक्की संभावना है ,
वृक्षों पर लगेगे
समानता सदाचार
सामंजस्य
और
आदमियत के फल
ख़त्म हो जायेगा
धरा से
भेद और नफ़रत ।
सभावना के
महायज्ञ में
दे रहा हूँ आहुति
जीवन के पल-पल का
संभावना बस..........
सद्भाना होगी
धरा पर जब
तब
ना
भेद गरजेगा
ना शोला बरसेगा
और ना
टूटेगे सपने
सद्भाना से
कुसुमित हो जाए
ये धरा ,
संभावना बस
उखड़े पाँव
भर रहा उड़ान ,
सर्व कल्याण की
कामना के लिए
नहीं
निहारता
पीछे छूटा
भयावह
विरान...........
माँ की तपस्या
पिता का त्याग
धरती का गौरव रहे
अमर
विहसते रहे
सद्कर्मो के निशान
संभावना की उड़ान में
कट जाता है
मेरी जिनगी का
एक बरस
और
पहली जनवरी को .....नन्द लाल भारती








Thursday, December 16, 2010

सौदामिनी

सौदामिनी
हे सौदामिनी तू राम रहीम बुध्द
ईसा की राह चलना,
कुरान,बाइबिल, वेद पुराण
का पाठ करना ।
बुध्दम शरणम गच्छामि
गीता गुरुग्रंथ का बखान करना ,
बहुत हुआ संहार
अब उध्दार के राह चलना ।
दिल की मैल को कर साफ़
सेवा का का भाव रखना ,
ना हार जीत
बस
सद्प्यार की बात करना ।
गीत गाये जमाना
नेकी के ख्वाब हमारा ,
बहुत किया विध्वंस
अब
संकल्प हो तुम्हारा ।
सब धरती माँ के दुलारे
ना रखना बैर भाव मन में ,
नेक कर्म की मधुर धुन
छोड़ दो
धरती गगन में ।
हे सौदामिनी
कल्याण बसंत बहार
लेकर आना ,
सर्व एकता की चले बयार
तुम नव चेतना का
बिगुल बजाना ।
हे सौदामिनी
कर दे उपकार
ढीठ बुराईया हो राख ,
बह उठे तरक्की की
बयार निराली
मिट जाए
हर भूख की आग ।
पुकारता भारती सौदामिनी तुम्हे
आओ
एकता की मीनार बनाए ,
बयारो में सजे
धुन ऐसी हर इंसान
ख़ुशी के गीत गाये ................नन्द लाल भारती

Friday, December 10, 2010

झरोखे से

झरोखे से
दरारों ने जुल्म को
आंसुओ से
संवार रखा है ,
आशा की परतों को
ज़माने से रोक रखा है ।
कराहटो का आहटो में
धुँआ -धुँआ
सा लग रहा है ,
परिंदों में क्रुन्दन
लकीरों पर
अआमी मर रहा है ।
आँखों में सैलाब
दिल में दर्द
उभरने लगा है ,
आदमी के बीच
सीमाओ का
द्वन्द बढ़ने लगा है ।
दिल पर नई-नई
पुरानी खरोचे के
निशान बाकी है ,
खून से नहाई लकीरे
लकीरों की क्या झांकी है ।
जुल्म के आतंक के साए
मन रहा नित मातम
बस्तियों से उठ रही
चीखे
आदमी ढाह रहा सितम ।
सहमा सहमा सा कमजोर
चहुओर धुँआ -धुँआ है
छाया ,
आदमी-आदमी की नब्ज को
नहीं पढ़ पाया ।
भर गयी होती
घावे
दिल की दरारे अगर ,
आदमी खंड-खंड न होता
ना हुआ ऐसा मगर ।
चल रहा खुलेआम
जोर का जंग
आज भी ,
लकीरों के निखार का
यही राज भी ।
दिलो को जोड़ देते
भारती स्नेह के झोको से
छंट जाती आंधिया
बह जाता सोधापन
दिल के झरोखों से ...............नन्दलाल भारती