Saturday, January 29, 2011

पेड़ का दर्द

पेड़ का दर्द ....
मै एक पेड़ हूँ कोई अपराधी नहीं
मैंने तो कोइ अपराध नहीं किया है
आदमी की आज़ादी में
कोइ खलल भी तो नहीं डालता हूँ
न तो बम कांड , न रेल रोको से मेरा कोई लेना-देना
और तो और मै पेड़ बम भी तो नहीं हूँ
मानव विकास का सच्चा सारथी हूँ
क्योंकि मै एक पेड़ हूँ...
एक पेड़ हूँ गुनाहगार नहीं
मौन खड़ा हूँ
इसका मतलब नहीं कि
मृत पड़ा हूँ
एहसास है चीत्कार नहीं
मै तो कल्याण में विश्वास रखता हूँ
क्योंकि मै एक पेड़ हूँ ..........
पूछता हूँ त्याग का ईनाम है सज़ा
ठोंकता है आदमी कील मेरी छाती में
लटका देता है
टायर -टयूब , बड़े-बड़े हेलोज़न
लगा देता है
फूहड़ नग्न चित्रों कि प्रदर्शनी
मै शर्मिंदा होता रहता हूँ खड़े-खड़े
क्योंकि मै एक पेड़ हूँ .....
आदमी के जीवन-मरण तक सहारा बनाता हूँ
दुःख-सुख में बराबर खड़ा रहता हूँ
जहर पीकर सांस देता हूँ
वही आदमी ठोंक देता है
छाती में कील
मै मौन खड़ा कराहता रहता हूँ
आदमी नाच उठता है मेरे दर्द पर
क्योंकि मै एक पेड़ हूँ.....
अनजान नहीं कि मेरे बिना जीवन संभव नहीं
वही आदमी दर्द देकर मुस्कराना सीख गया है
मै जहर पीकर जीवन देना
अकेला हज़ार पुत्र के सम्मान हूँ
मेरी बदनसीबी है कि
मिल रहे घाव पर घाव
क्योंकि मै एक पेड़ हूँ...............
मुझे भी दर्द होता है ,मेरे भी घाव पकते है
मवाद दहकता है
मै रोता रहता हूँ मौन
आदमी का फ़र्ज़ नहीं कि
मेरे दर्द को जाने
अरे मेरी छाती में कील मत ठोंको
मेरा क़त्ल मत करो
सच बयान कररहा हूँ
मैहू तो तुम्हारी सांस है
क्योंकि मै एक पेड़ हूँ................
मै हूँ तो तुम्हारे लिए भोजन है
दवाई है वस्त्र है
आज है कल सुरक्षित है
मै तो तुमको तुम्हारी भाषा में
अपना दर्द बता नहीं सकता
इतना जान लो मेरे ऊपर खतरा
तुम्हारी तबाही का संकेत है
मै दर्द बर्दाश्त कर सकता हूँ
बयान नहीं
मेरा दर्द तुम जानो
मै तुम्हारा जान गया हूँ
क्योंकि मै एक पेड़ हूँ................नन्द लाल भारती २४.०१.2011

ग्रामीण भारत महान है ....

ग्रामीण भारत महान है...
वो क्या सफ़र था उड़ रहे थे गुब्बार
जवां थे बवंडर धूल के
सपाट कही उबड़-खाबड़ सड़के
कही पहाड़ कही समतल मैदान
तन के जोड़-जोड़ बोल रहे थे
रंग-बिरंगे हाट तो कही मेले लगे थे ।
धोती घुटनों पर अटकी झूल रही थी
घूँघट दो-दो हाथ नीचे लटक रहे थे
हाट-मेले लग रहे थे
तितलियों के झोंके
बस का भोंपू दे देता
खुशिया अनेक
नन्ही परिया चहक उठती
जैसे में तारे अनेक ।
बस की रफ़्तार थामारे,घूँघट उठते
पिया के मिलन की आस में
ठहर जाता होंठ पर
सरसों के खेत का सौन्दर्य
मुस्कान अफीम की तान घोल जाती
मेले-ठेले निहाल खुशिया झराझर
कोताहाई का मौन बयान
तिरस्कार का न भाव था ।
धोती घुटने तक अटकी सुरगादार थीं भले
भरपूर मान था स्वाभिमान था हरा-भरा
घूँघट की ओट स्वर्णिम थी हया
हरे-भरे खेत माथे के ताज लग रहे थे
मौन गाँव का वृतांत कह रहे थे ।
घूँघट से वो बावरी
अफीम की नशा बो रही थीं
ना बसंत पर
हवा में सुगंध उड़ रही थी
क्या सफ़र थे बस का
शामगढ़, भानपुरा,सीतामऊ और पिपलियामंडी
कहीं आधुनिक सड़के तो कही पगडंडी .
जनवरी का अल्हड़पन बौड़म मन मेरा
मैं झूल रहा था बिन मौसम
बसंत की गोंद
मटमैली-फटी धोती,सिर पर पगड़ी का ताज
घूँघट में सभ्यता संस्कृति की धवल हया
मन में उपज रहे थे विचार
कैसा अद्भूत सुख है गाँव की माटी का
जा रहे शहर भागे-भागे
संयुक्त परिवार का सुख बिसार ।
गाँव का सुख स्वर्ग से सुन्दर
अभाव में भी धूल-माटी में खेलते बच्चे
पुस्तक थामे हाथो में बच्चे
आओ स्कूल चले हम के नारे लगते बच्चे
कह रहे थे जैसे
देश का स्वाभिमान है हमसे
हम है तो देश का मान है
ग्रामीण भारत महान है ।
बिछ जाए गाँव धरती पर विकास
कट जाए भूमिहीनता,निर्धनता, अशिक्षा के अभिशाप
पड़े पाँव सच्चे भारतवासी के जहा-जहा
धनिया -सरसों के खेत जैसे उपजे नज़ारे
हमारी रो बस यही पुरानी आस है प्यारे
पूरे सफ़र नयनो से खेले चाँद-सितारे
यही वृतांत है
ग्रामीण भारती का हमारे ................नन्द लाल भारती २१.०१.2011

Tuesday, January 25, 2011

जिंदाबाद.......

जिंदाबाद......
राष्ट्रीय त्यौहार आज़ादी का दिन
देश-घर-आहोहावा और
हर चोला के मग्न होने का दिन
इसी दिन की इन्तजार में
अनगिनत शहीद हो गए
खुद के लहू से
आज़ादी कि दास्तान लिख गए ।
आज़ादी का जश्न तिरंगा की मस्ती
हमारी जान, बाँट रहा ख़ुशी
धरती और गगन में
और
हम देशवासी एक दूसरे को ।
हमारी ख़ुशी को कोई
पैमाना नाप नहीं सकता
नहीं
समंदर को स्याही
और
पेड़ो को लेखनी बनाकर
लिखा जा सकता
हम इंसान,इंसानियत के
सर्वधर्म समता,सद्भावना के पुजारी ।
एक दर्द है हमारे दिलो में भी
आँखों को तरबतर कर देता है
आंसू से ।
आम हाशिये के आदमी को
आज़ादी के इतने दशको बाद
दीदार नहीं हुए
असली आज़ादी के
वह आज भी
आज़ादी से कोसो दूर फेंका ।
भय-भूख,शोषण-उत्पिदान,भूमिहीनता,दरिद्रता को
लाचार नसीब मान बैठा है
यही बड़ा दुःख है दिल का ।
कारन भी ज्ञात है
हमारे अपने मुखौटाधारी
लोकतंत्र के पहरेदार
छीन रहे है
शोषित वंचित आम आदमी का हक़
छिना तो मुग़ल शासको,सामंतवादी
और
गोरो ने भी मचा दिया था
तबाही
लोकतंत्र में भी
हाशिये का आदमी तरक्की से बेदखल
यह तो असली आज़ादी नहीं
न तो आज़ादी के लिए
जान देने वालो की थी यह चाह ।
अपना देश अपना संविधान
आम आदमी की तरक्की
आज आम आदमी ही असली
आज़ादी के सपने में जी रहा है
देश की आज़ादी के जश्न के दिन
वह भी बहुत खुश है
आजाद देश की आजाद हवा पीकर ।
देश में व्याप्त भ्रष्ट्राचार,अत्याचार,नक्सलवाद से
उबरने के लिए
एक और जंग की जरुरत है
तभी मिल सकेगी
आम हाशिये के आदमी को असली आज़ादी
तभी वह चल सकता है
विकास के पथ पर ।
ऐसा हो गया तो
विहास उठेगी शहीदों की आत्माये
असली आज़ादी को देखकर ।
आओ कर दे शंखनाद
विहास उठे
आम हाशिये का आदमी
राष्ट्र बन जाए धर्म
ऐसी सद्भावना कर सकती है
उध्दार
देश और हाशिये के आदमी का
यही सपना भी था अमर शहीदों का
आओ एक बार फिर
खा ले कसम
देश और आम आदमी के हित में
जिससे हमारी आज़ादी रहे आबाद
हर देशवासी क एक हो सुर
भारत माता की जय
२६ जनवरी जिंदाबाद ..............नन्द लाल भारती

Tuesday, January 18, 2011

चन्द्रहार

चन्द्रहार
मढ़े एकता के
भाल
चन्द्रहा ,
विषमता से विछोह
समभाव की मनुहार ।
नया खून नया जोश
ताज दे बात पुरानी ,
आज़ादी के रखवालो
एकता की अमर कहानी ।
कण-कण में
एकता का भाव
निश्छल बह रहा ,
उर में कल-कल करता
गंगा जल बह रहा ।
एकता की अमर
गाथा है हिन्दुस्तानी
उजली पहचान
दुनिया ने है मानी।
जातिधर्म का उन्माद
एकता का करे
खंडन
भेद की धूमिल छाया
समता मजबूत है
बंधन ।
शांति का सुर
बसंत हो
बारहों मॉस
मिटे मन की दरारे
कायम रहे
एकता का
इतिहास .....................नन्द लाल भारती /१८.०१.२०११

Monday, January 3, 2011

आओ कर ले विचार

आओ कर ले विचार ॥
मेहनतकश हाशिये का
कर्मवादी आदमी
फ़र्ज़ का दामन क्या थाम लिया ?
नजर टिक गयी उस पर जैसे कोई
बेसहारा जवान लड़की हो ।
शोषण,दोहन की वासनाये
जवान हो उठती है
कापते हाथो वालो
उजाले में टटोलने वालो के भी
दबंगता की बांहों में झूलकर ।
हाल ये है
कब्र में पाँव लटकाए लोगो का
जवान हठधर्मिता के पक्के धागे से
बंधो का क्या हाल होगा ?
जानता है
ठगा जा रहा है युगों से
तभी तो कोसो दूर है विकास से
थका हारा तिलमिलाता
ठगा सा छाती में दम भरता
पीठ से सटे पेट को फुलाता
उठता है गैती,फावड़ा
कूद पड़ता है
भूख की जंग में
जीत नहीं पता हारता रहता है
शोषण ,भ्रष्टाचार के हाथो
टिकी रहती है बेशर्म नज़रे
जैसे कोई
बेसहर जवान लड़की हो ।
यही चलन है कहावत सच्ची है
धोती और टोपी की
धोतियाँ तार-तार और
टोपिया रंग बदलने लगी है
तभी तो जवान है शोषण भ्रष्टाचार
और अमानवीय कुप्रथाये
चक्रव्यूह में फंसा
मेहनतकश हाशिये का आदमी
विषपान कर रहा है
बेसहारा जवान लड़की की तरह ।
खेत हो खलिहान हो
या
श्रम की आधुनिक मण्डी
चहूओर मेहनतकश
हाशिये के आदमी की
राहे बाधित है
सपनों पर
जैसे
पहरे लगा दिए गए हो ,
योग्य अयोग्य
साबित किया जा रहा है
कर्मशीलता योग्यता पर
कागाद्रिष्टि टिकी रहती है ऐसे
मेहेनात्काश हाशिये का आदमी
कोई बेसहर जवान लड़की हो जैसे ।
कब तक पेट में पालेगा भूख
कब तक ढोयेगा
दिन प्रतिदिन
मरते सपनों का बोझ
दीनता-नीचता का अभिशाप
कब तक लूटता रहेगा हक़
मेहनतकश हाशिये के
कर्मवादी आदमी का
आओ कर ले विचार ...........नन्दलाल भारती ०३.०१.2011
















फतह .

फतह
हार तो मैंने माना नहीं
भले ही कोई मान लिया हो
हारना तो नहीं
फना होना सीख लिया है
जीवन मूल्यों के रास्ते पर ।
बेमौत मरते सपनों के
बोझ तले दबा
कब तक विधवा विलाप करता
बेखबर कर्मपथ पर
अग्रसर
ढूढ़ लिया है
साबित करने का रास्ता ।
ज़माने की बेरहम
आंधिया
ढकेलती है
रौदने के लिए
रौद भी देती
अस्थिपंज़र धुल कणों में बदल जाता
ऐसा हो ना सका
क्योंकि मैंने
ज़मीन सा टिके रहना सीख लिया है ।
आंधिया तो ढकेलती रहती है
रौदने के लिए
ज़मीन से जुड़े रहना
जीत तो है
भले ही कोई हार कह दे
अर्थ की तराजू पर टंगकर
पद-अर्थ का अजान बढ़ाना
जीत नहीं
ज़मीन से जुदा कद बड़ी फतह है ।
घाव पर खार थोपना
मकसद नहीं
आंसू पोछना नियति है
इंसान में भगवान् देखना आदत
जानता हूँ
इंसानियत का पैगाम लेकर
चलने वालो की राह में
कांटे होते है
या दिए जाते है
कंटीली आह पर चले आदमी का
बाकी रहता है निशान
मानवीय एकता का दामन
थाम लिया है
यही तो किया है
कबीर,बुध्द और कई लोग
जो काल के गाल पर विहस रहे है
पाखण्ड और कपट के बवंडर
उठते रहते है
कलम की नोंक स्याही में डुबोये
बढ़ता रहता हूँ
फना के रास्ते।
मान लिया है क्या सच भी तो है
पुवाल की रस्सी
पत्थर काट सकती है
दूब पत्थर की छाती छेदकर
उग सकती है तो
मै देश-धर्म और
बहुजन हिताय की ऑक्सीजन पर
आंधियो में दिया थामे
ज़मीन से जुदा
क्यों
नहीं कर सकता फतह ....?
नन्द लाल भारती ०३.०१.२०११