Friday, February 25, 2011

अभिमान

अभिमान
चहरे पर विराजित,
कंस की शान
ह्रदय में उतरा ,
रावण का अभिमान ।
आह की उठती ज्वाला
विष बोता
जब-जब शैतान ,
ये कैसी तरक्की ?
अभिमानी का भगवान ।
जान गया
जग तो सुन्दर
कुसुमित
बुध्द का मान ,
बदमिजाज के माथे
झरती कराह की धार ,
दुःख बढ़ता अदने का
झराझर ,
शैतान का अभिमान ।
हे प्रभो ,
पहले धर वेश
कुचले शैतान ,
अब तो सुन लो
अर्ज़
कब तक दर्द सहेगा
अदना इंसान ।
नन्द लाल भारती॥ २५.०२.२०११

Sunday, February 20, 2011

आशीष की थाती

आशीष की थाती ...
माँ ने कहा था
मेहनत की कमाई खाना
काम को पूजा
फ़र्ज़ को धर्म
श्रम को लाठी समझना
यही लालसा है
धोखा फरेब से दूर रहना ।
लालसा हो गयी पूरी मेरी
जय-जयकार होगी
बेटा तेरी
चाँद-सितारों को गुमान होगा
तुम पर
वादा किया था
पूरा करने की लालसा
चरणों में सिर
रख दिया था
माँ के हाथ उठ गए थे
लक्ष्मी,दुर्गा और सरस्वती के
परताप एक साथ मिल गए थे ।
आशीष की थाती थामे
कूद पड़ा था
जीवन संघर्ष में
दगा दिया दबंगों ने
श्रम-कर्म-योग्यता को
न मिला मान
गरजा अभिमान
उम्मीदे कुचल गयी
योग्यता को वक्त ने दिया
सम्मान।
माँ का आशीष माथे ,
संभावना का साथ
हक़ हुआ लूट का शिकार
पसीने की बूँद
आँखों के झलके आंसू
मोती बन गए
विरोध के स्वर
मौन हो गए
माँ की सीख
बाप का अनुभव
पत्थर की छाती पर
डूब उग गए
उसूल रहा मुस्कराता
कैद तकदीर के दामन वक्त ने
सम्मान के मोती मढ़ दिए ।
हक़-पद-दौलत
आदमी के कैदी हो गए
ज़िंदगी के हर मोढ़ पर
आंसू दिए
संभावना को ना कैद कर पाई
कोंई आंधी
बाप के अनुभव
माँ के आशीष की थी
जिसके पास थाती ....नन्द लाल भारती ...१५.०२.२०११






Saturday, February 19, 2011

अब तो उठ जाओ

अब तो उठ जाओ ...
हे जग के पालन कर्ताओ
शोषित,भूमिहीन
खेतिहर मजदूर किसानो
कब तक रिरकोगे ताकोगे
वंचित राह
उठने की चाह बची है
अगर
आँखों में जीवित है
सपने कोई
देर बहुत हो गयी
दुनिया
कहा से कहा पंहुच गयी
तुम वही पड़े
तड़प रहे हो
पिछली शादियों से
शोषित भूमिहीन मज़दूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओ ........................
तोड़ने है बंदिशों के ताले
छूना है तरक्की के
आसमान
नसीब का रोना
कब तक रोओगे
खुद की मुक्ति का ऐलान करो
नव प्रभात चौखट आया
शोषित भूमिहीन मज़दूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओ ........................
जग झूमा तुम भी झूमो
नव प्रभात का करो सत्कार
परिवर्तन का युग है
साहस का दम भरो
कर दो हक़ की
ललकार
नगाड़ा नक्कारो का गूँज रहा
कर दो
बुलंद फुफकार
शोषित भूमिहीन मज़दूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओ ........................
कब तक ढोओगे
मरते सपनों का
बोझ
मुक्ति का युग है
हाथ रखो हथेली प्राण
मन भर उमंग
२१वी शादी का आगाज़
इंजाम तुम्हारे कर कमलो में
बहुत रिरक लिए
दिखा दो
बाजुओ का जोर
थम जाए
नक्कारो का शोर
शोषित भूमिहीन मज़दूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओ ........................
नव प्रभात विकास कि
पाती लाया है
मानवतावाद का आगाज़ करो
आर्थिक समानता की बात करो
अत्याचार,भ्रष्टाचार पर करने को वार
जग के पालन कर्ताओ
हो जाओ तैयार
समता की क्रांति का करो
ललकार
शोषित भूमिहीन मज़दूर किसानो
हुआ विहान जाग जाओ
अब तो उठ जाओ ........................
आंसू पीकर
दरिद्रता के जाल फंसे रहे
बलिदान से अब न डरो
हुआ विहान जागो
करो ताकत का संचय
कल हो तुम्हारा
विकास की बहे धारा
शोषित भूमिहीन मज़दूर किसानो
एक दूसरे की ओर
हाथ बढाओ
अब तो उठ जाओ ........................
नन्दलाल भारती ...०१.०१.२०११

Tuesday, February 15, 2011

नया सूर्योदय

नया सूर्योदय
करता बसंत की खेती
पावे अंजुलि भर-भर पतझड़
यह कैसा अत्याचार
आगन में बरसे अँधेरा
चौखट पर गरजे सांझ
हुंकारों का मरघट
उत्पात मचाया
शोषण उत्पीडन नसीब
बन रुलाया ।
ये कैसा
प्रलय
जहा उठती
दीन-शोषितों को
कुचलने की आंधी
क्रांति कभी करेगी प्रवेश
कोरे मन में
ना भड़कती अधिकार की
ज्वाला
चीत्कार से नभ
कांप उठता
धरती भी अब थर्राती
नसीब कैद
करने वालो के माथे
सिकन ना आयी ।
दुःख के बदल
वेदना की कराह
उठने की उमंग
नहीं टिकती यहाँ
अभिशाप का वास
जीवन त्रास यहाँ
भूख से कितने
बीमारी से कितने मरे
ना कोइ हिसाब यहाँ
कहते नसीब का
दोष
बसते दीन दुखी जहा
क्रांति का आगाज
हो जाये अगर
मिट जाती सारी बलाये
श्रम से झरे
सम्वृधि ऐसी
पतझड़ कुनबा हो जाये
मधुवन
कुव्यवस्था का षणयंत्र
डंसता हरदम
ना उठती क्रांति
सुलगते उपवन .
जीवन तो ऐसे बितता
जैसे
ना आदमी
बिलकुल पशुवत
क्या शिक्षा क्या स्वास्थ्य
क्या खाना-पानी
आशियाने में छेद इतना
आता-जाता बेरोक-टोक
हवा-पानी
शोषित-वंचित
भारत की दुखद कहानी.
वंचित भारत से अनुरोध हमारा
आओ करे क्रांति का आह्वाहन
सड़ी-गली परिपाटी का कर दे
मर्दन
भस्म कर दे
मन की लकीरे
समता के बीज बो दे
हक़ की आग लगे दे
वंचित मन में
सोने की दमक आ जाए
वंचित भारत में
नया सूर्योदय हो जावे
अँधेरे अम्बर में ...................नन्दलाल भारती

Saturday, February 5, 2011

कर्मपथ का राही

कर्मपथ का राही
कर्मपथ का राही विह्वल
बोये श्रम बीज
सींचे पसीना धवल ।
दुश्मन रौंदते
जुबान उगलती शोले ,
कर्म पूजा उद्देश्य
जिसका
दण्डित मुंह जब-जब खोले ।
हित पर मंजती तलवारे
कैद अधिकार की चाभी
देती आंहे ।
कर्म योगी बौड़म
पीकर आंसू धवल
बढ़ता-कराहता
पत्थर पर लकीर
खीचने को विह्वल ।
जानता है
आंसू देने वाला
हकदार को
ढाठी देने वाला
नरपिशाच
छिलता घाव
देता दर्द नया
पल-पल ,
नेक कर्म योगी ,
कर्म पथ का राही
वक्त का साज
काल के गाल पर
मान उज्जवल ॥ नन्दलाल भारती ...२५.०१.2011