Friday, July 22, 2011
संकल्प लिया है
बड़े अरमानो में रात
करवटें बदल-बदल कर
काटा था।
अफ़सोस दे गया
आज भी
शदियों से बीते रहे
कल की तरह ।
मेरे सब्र के बाँध टूटे
नहीं है
बुन लेता हूँ नित नया
अरमान का एक नया जाल ।
कल है की आता ही नहीं
ना ही मिलती है
दबे पाँव आने की
आहट
सर्वजन सुखाय के
बसंत की ।
सर्वजन सुखाय के अरमान लिए
रात की करवटों और
दिन की छटपटाहट में
जीवन का बसंत
पतझड़ की कराह लिए
बीत रहा है ।
मै सब्र की छांव में
अरमानो के कर्म बीज
श्रम से सींचता चला जा रहा हूँ
अफ़सोस
अपने नित होते बेगानों के
विष -कीट चट कर जा रहे है
अरमानो की फसल ।
उम्र के अभी तक के बसंत को
आंधी,तूफ़ान ओला वृष्टि से
अरमानो की खेती
उपज तो नहीं दे पाई है
पर मेरे संकल्प को रौंद
नहीं पाया है
जमाने का भेदभाव जो
अरमानो का दुश्मन है ।
अरमान हकीकत में आकार
पा सकेगे की नहीं
अब इसकी फिक्र नहीं है मुझे .
फिक्र है बस इस बात की
कि अरमानो को
रात कि करवट
दिन की छटपटाहट में
अरमानो को
जीवित रखने का जो
संकल्प लिया है
वे मर ना जाये
इनकी मौत मेरी मौत से
कम ना होगी .........नन्द लाल भारती २३.०७.२०११
उम्मीदों में जीना सीख गया हूँ
----------------------------
मरते हुए सपनों का दर्द
कितना भयावह होता है
मैं जान गया हूँ।
दर्द में जी रहा हूँ
उम्मीदों को सी
रहा हूँ
क्योंकि मैं
मरते हुए सपनों को
ऑक्सीजन देना
सीख गया हूँ।
यही मेरी कामयाबी है
पद और दौलत से बेदखल
खुली आँखों से सपने
देख रहा हूँ
उम्मीद में जी रहा हूँ ।
मानता हूँ मेरे सपनों का
क़त्ल हुआ है
जातीय भेद की बलिबेदी पर
तभी तो मैं और मेरे जैसे लोग
पद-दौलत और खुद की
जमीन से बेदखल है ।
बेरहम जमाना भले ही
सपनों का क़त्ल करता रहे
उम्मीद के धागे
सपनों को जोड़ते रहेगे
मै और मेरे जैसे लोग
दर्द से दबे रहकर भी
उम्मीद बढ़ते रहेगे ।
मान गया हूँ
इस जहा में जब तक
सामाजिक भेद और
आर्थिक अन्याय होगा
तब तक हाशिये के सपने
मारे जाते रहेंगे ।
मुझे भी मरते सपनों को
देखकर जीना आ गया
सपने तो सपने है
मरता हुआ देखकर
पलकें गीली तो होती है
योग्यता का क़त्ल हुआ
या मेरा या मेरे जैसे लोगो का
बात मौत की है
ये बे-वक्त मौत उम्मीदों को
मौत नहीं दे सकती
क्योंकि मेरे जैसे लोग ही नहीं
मै भी
उम्मीदों में जीना
सीख गया हूँ ...नन्द लाल भारती २२.०७.२०११
Thursday, July 21, 2011
जीत के लिए
मेरा मन बार-बार कहता है
हार नहीं मानूंगा
क्योंकि mere
mere paas kalam की taakat है .
बार-बार की हार के बाद भी
नए उत्साह के साथ
bahujan hitaay-bahujan sukhay के bhaw
bhaw के साथ बढ़ता रहूंगा .
भले ही जीत
मुझसे दूर की जाती रहे
athawaa की jaati रहे
shadiyo की tarah आज के daur में भी .
kyon ना हार की खाईं में
ढकलने का प्रयास
किया जाता रहे yogytaao के बाद भी
मै अपनी जिद पर
खडा रहूँगा ।
मेरी जीत
हाशिये के आदमी की जीत होगी
क्योंकि मै भी तो हाशिये का
ho gaya हूँ yogy hokar भी .
देखता हूँ
मेरी खुली आँखों के सपने
कौन chhinataa है
और कब तक या
दबाकर रखता है मेरी जीत
एक दिन जीतूँगा विश्वास है .
यही विश्वास मुझे मजबूती देता है
बार-बार की हार के बाद भी
उठ खड़ा होने का साहस भी .
तभी तो हार कर भी
जीत के लिए
उठ खड़ा ho जाता हूँ
और
निकल पड़ता हूँ
उदेश्य की राह पर .
इस विश्वास के साथ की
एक दिन जरुर जीतूँगा
बार-बार की हार के बाद
क्योंकि हकदार के
हक़ पर कोंई कब तक
अवैध कब्ज़ा जमा
सकता है .
हक़ की लड़ाई ladane वाला
कभी हार नहीं सकता
यही तो कर रहे है
desh के karodo
दलित-शोषित-वंचित
आम hashiye के log
abhaaw se jujhate huye भी
मै भी usmae se एक हूँ
तो मै kaise हार maan सकता हूँ
हार-हार कर भी
जीत के लिए बढ़ता रहूँगा
देखता हूँ कब haarta हूँ
जीत के लिए ...nand lal bharati २२.०७.2011
Sunday, July 10, 2011
Hindi Poems-Vandana,Janwadi & Basant
Hindi Poems-Vandana,Janwadi & Basant
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Tuesday, July 5, 2011
माँ का आशीष
पद-सत्ता कि आतुरता शांत तो नहीं हुई
नहीं माँ को दिया वचन पूरा कर पाया ।
खैर माँ को वचन तो मैंने दिया था
कहा किसी माँ ने लिया है कि
मेरी माँ लेती ।
माँ का नाम यानि
देना .....
अफ़सोस तो है मुझे
माँ को कोई सुख नहीं दे सका
शायद कैद नसीब कि वजह से ।
नसीब आज़ाद तो नहीं हुई
पसीने से सिंची फसल
ओले-तूफ़ान को सहते
फल देने लायक बनी भी ना थे
कि माँ चल बसी ...
कई सारे सवाल छोड़कर ।
आज भी मै संघर्षरत हूँ
श्रम कि मंडी में कोई
करिश्मा तो नहीं हुआ
नहीं कड़ी हुई मिशाल
हां कद बढ़ा पेट-परदा चल रहा है
माँ कि तैयार जमीन पर ।
माँ का वरदान सौभाग्य है
पद-सत्ता कि आतुरता
शांत नहीं हुई
हो भी कैसी सकती है
अदने की .............
जिस जहा में भेद और स्वार्थ का रोग लगा हो
कर्जदार रहूँगा सदा माँ का
माँ का ही तो आशीष है की
पराई दुनिया में
छूट रहे है अपने भी निशान
देखना कब होती है
कबूल जमाने को
माँ की भोर की दुआ ..............नन्द लाल भारती ०१.०७.२०११
कैद खजाने के मुंह राष्ट्रहित में खोल दिया जाना चाहिए.....
राष्ट्रहित में खोल दिया जाना चाहिए ...
आँखे तो सभी कि बरसती है
आंसू ...
ख़ुशी कि किसी कि
दुःख कि
यह खबर सुनकर
कि
तिरुवनंतपुरम के
पदनाभन स्वामी मंदिर के
खजाने ने
उगला पच्चास हजार करोड़ का धन ,
कानूनी रूप से जो
काला नहीं है
देशहित में उजाला भी
नहीं कह सकते ।
मंदिरों में कैर धन
देश के विकास में नहीं रखते
अर्थ है ....
सच ऐसा धन देश
और
जनता के हित में है
बे-----अर्थ ।
ऐसा धन होने का क्या
अर्थ .....
ना आये देश के काम
लगा लो अनुमान
छूट जाएगा पसीना
सैकड़ो मंदिर और है
जहा गड़े पड़े है
धन के भण्डार
ये कैद धन आता
देश के काम ....
पा लेता सुनहरा यौवन
देश और आवाम ।
मन बहुत रोता है
अकूत सम्पदा कैद है
देश के मंदिरों के तहखानो में
शोषित-वंचित आदिवासी जोह रहे है
बाट विकास कि
और तरस रहे है
रोटी के लिए ।
प्रश्न है ............?
क्या ये अकूत धन
पुजारियों कि कैद में रहना चाहिए
नहीं ना .....................
उन्हें क्या क्या चाहिए
रोजमर्रा के खर्च का प्रबंध
यह तो दान से मिल जाता है ।
वक्त आ गया है
मठाधिशो को सोचना चाहिए
देश और आवाम के विकास में
लगाना चाहिए .....
मंदिरों से गूंजा है अमृत वचन
दरिद्रो कि मदद के बिना देव भी
नारायण नहीं हो सकता
मंदिरों में कैद
खजानों के मुंह
राष्ट्रहित में खोल
दिया जाना चाहिए...............नन्द लाल भारती ०२.०७.२०११