Friday, December 27, 2013

देवता तो नहीं/कविता

देवता तो नहीं/कविता
मैं देवता तो नहीं पर ,
दुश्मनों की नब्ज पढ़ लेता हूँ ,
जीवन देने वाले की कसम ,
सच कहता हूँ ,
दुश्मनों के बीच दोस्त की तरह ,
सफ़र करता हूँ ,
सफ़र में मधुमास हुआ विरान ,
मिले दहकते जख्मों के निशान ,
दर्द के साथ जीवित है अरमान ,
उनकी बेरुखी निगल गयी अपनी जहां ,
लाख टूट कर भी ,
मरते सपनो की शैय्या पर ,
करवटे बदल ले रहा हूँ ……।
हारा  हुआ मान  रहे है नसीब के दुश्मन ,
जाति -पद-दौलत के तराजू पर नाप कर ,
बावला कद की तुला पर ,
खुद जीता हुआ समझ रहा हूँ ,
धृतराष्ट्र तुगलकी सरकार ,जातिवाद ,
भाई भतीजावाद फरमान दरबारी ,
शूद्र गंवार ढोल पशु नारी की भांति ,
शोषित  हो गया ताड़ना  का अधिकारी ,
कहाँ  हार मानता ,
वफ़ा का राही  समता का सिपाही
पूरी होश में पत्थरो पर लकीर
 खींचने में टूट रहा हूँ ,
गम तो  कोई  और नहीं ,इतना सा गम है
उम्र के रोज-रोज कम होने का दर्द है
हर दर्द के बोझ तले दबा ,
पत्थरो के जंगल में ,
समता की पौध रोप रहा हूँ ,
सच मैं कोई  देवता नहीं
कैद नसीब का मालिक दर्द से दबा,
शोषित इंसान हो गया  हूँ
दुश्मनो के बीच दोस्तों की तरह सफ़र कर रहा हूँ ..........
28.  12 . 2013  
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com

गरीब /कविता

गरीब /कविता
धनिखाओं  की बस्ती  में ,
दौलत का बसेरा ,
गरीबों की बस्ती में ,
भूख,अभाव का डेरा.……
वही मुसीबतों की कुलांचे ,
चिथड़ो में लपटे शरीर ,
चौखट पर लाचारी ,
कोस रहे तकदीर ………
गरीबो की तकदीरो पर ,
 डाके यहाँ ,
भूख पर रस्साकस्सी ,
मतलब सधते है वहाँ ……
मज़बूरी के जाल
उम्र बेचा जाता है ,
धनिखाओ की दूकान पर ,
पूरी कीमत नहीं  है .......
बदहाली में जीना मरना ,
नसीब है ,
अमीर की तरक्की ,
गरीब, गरीब ही रह गया है 
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com

Wednesday, December 25, 2013

विष की खेती / कविता

 विष की खेती / कविता
नेकी पर कहर बरस गया है ,
सगा आज बैरी हो गया है।
हक़ पर जोर
आजमाइश होने लगा है ,
लहू से खुद का ,
आज संवारने लगा है।
कभी  कहता दे दो ,
नहीं तो छीन लूँगा ,
कहता कभी सपने मत देखो
वरना आँखे फोड़ दूंगा।
मय की हाला में डूबा ,
कहाँ  उसको पता ,
बिन आँखों के भी
मन के तरुवर पर,
सपनों के भी पर लगते हैं।
हुआ बैरी अपना
जिसको लेकर बोया था
सपना।
धन के ढेर बौराया ,
मद चढ़ा अब माथ ,
सकुनी का यौवन ,
कंस का अभिमान हुआ साथ।
बिसर गयी नेकी ,
दौलत का भारी दम्भ ,
स्वार्थ के दाव नेकी घायल ,
छाती पर गम।
नेकी  की गंगा में ना
घोलो जहर ,
ना करो रिश्ते संग हादसे ,
देवता भी तरसे ,
मानव जीवन को
मतलब बस ना करो ,
विष की खेती
डरा करो खुदा  से ……
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com
 
उम्र/ कविता
वक्त के बहाव में
ख़त्म हो रही है उम्र ,
बहाव चट कर जाता है ,
जार एक जनवरी को
जीवन का एक और बसंत।
बची-खुची बसंत  की सुबह ,
झरती रहती है
तरुण कामनाएं।
कामनाओ के झराझर के आगे ,
पसर जता है मौन।
खोजता हूँ
बीते संघर्ष के क्षणो में
तनिक सुख।
समय है कि थमता ही नहीं,
गुजर जाता है दिन।
करवटों में गुजर जाती है रातें
नाकामयाबी की गोद में ,
खेलते-खेलते ,
हो जाती है सुबह ,
कष्टो में भी डुबकी रहती है ,
सम्भावनाएं।
उम्र के वसंत पर
आत्म-मंथन की रस्सा-कस्सी में
थम जाता है समय
टूट जाती है
उम्र  की बाधाएं।
बेमानी लगाने लगता है
समय का प्रवाह और
डंसने लगते है
जमाने के दिए घाव।
संभावनाओ की गोद में
अठखेलिया करता
मन अकुलाता है
रोज-रोज कम होती उम्र में
तोड़ने को बुराईयों का चक्रव्यूह
छूने को तरक्की के आकाश।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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जमा पूँजी /कविता
उम्र की जमा पूँजी ,
मुट्ठी में बंद रेत  की तरह ,
 सरके जा रही ,
मिनट ,घंटा,दिन,महीना ,
साल तक पहुँच रही .....
ये दुखती दास्ताँ
हर किसी के साथ ,
दोहराई जा रही ,……
वाह रे अपनी जहाँ के
भ्रम में फंसे लोग ,
नहीं पसीज रहा जिगर
नफ़रत की खेती बढती जा रही…
टूट -टूट खंड-खंड बिखर गए ,
दबे कुचलो को दंड मिल रहा ,
हाय रे जाति -धर्म की अफीम ,
नशा जालिम कम ही,
 नहीं हो रही………
अपनी जहां वालो ,
हिम्मत करो कह दो अलविदा ,
मानवीय समानता के पथ चल दो
अपनी जहां भ्रम है
पल-पल उम्र की जमा पूँजी ,
सरकती जा रही ,
जाति -भेद नफ़रत की खेती ,
बंद क्यों नही हो रही …………

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com
17 .12 . 2013








डर /कविता
आसपास देखकर डर  हूँ ,
कहीं से कराह कहीं से चीख ,
धमाकों की उठती लपटें देखकर।
इंसानो की बस्ती को जंगल कहना ,
जंगल का अपमान होगा अब
ईंट पत्थरो के महलों में भी ,
इंसानियत नहीं बसती।
मानवता को नोचने,
इज्जत से खेलने लगे है ,
हर मोड़ -मोड़ पर ,
हादशा बढ़ने लगा है।
आदमी आदमखोर लगने लगा है ,
सच कह रहां  हूँ ,
ईंट पत्थरो के जंगल में बस गया हूँ ।
मैं अकेला इस जंगल का साक्षी नहीं हूँ
और भी लोग है ,
कुछ तो अंधा -बहरा गूंगा बन बैठे हैं ,
नहीं जमीर जाग रहा है ,
आदमियत को कराहता देखकर।
यही हाल रहा तो वे खूनी  पंजे
हर गले की नाप ले लेगे धीरे-धीरे ,
खूनी  पंजे हमारी और बढे उससे पहले
शैतानो की शिनाख्त कर बहिष्कृत कर दे ,
दिल से घर -परिसर समाज और देश से।
ऐसा ना हुआ तो
 खूनी पंजे बढ़ते रहेंगे ,
धमाके होते रहेंगे ,
इंसानी काया के चिथड़े उड़ाते रहेंगे ,
तबाही के बादल गरजते रहेंगे ,
इंसानियत तड़पती रहेगी,
नयन बरसते रहेंगे ,
शैतानियत के आतंक  से
नहीं बच पाएंगे ,
छिनता रहेगा
 चैन कांपती रहेगी रूह ,
क्योंकि मरने से नहीं डर लगता
डर लगता तो ,
मौत के तरीको से ..........
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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तुला/कविता
नागफनी सरीखे उग आये है 
कांटे दूषित माहौल में।
इच्छाये मर रही है नित ,
चुभन से दुखने लगा है
रोम-रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है ,
चुभन कुव्यवस्थाओं की ,
रिसता जख्म  बन गया है ,
 भीतर ही भीतर।
हकीकत जीने नहीं देती ,
सपनों की उड़ान में जी  रहा हूँ ,
उम्मीद का प्रसून खिल जाए ,
कही अपने ही भीतर से।
डूबती नाव में
सवार होकर भी ,
विश्वास है ,
हादसे से उबर जाने का।
उम्मीद टूटेगी नहीं ,
क्योंकि ,
मन में विश्वास है
फौलाद सा।
टूट जायेगे आडम्बर सारे ,
खिलखिला उठेगी कायनात ,
नहीं चुभेंगे
नागफनी सरीखे कांटे ,
नहीं कराहेगे  रोम-रोम
जब होगा,
अँधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की तुला पर ,
भले ही दुनिया कहे व्यर्थ। ……
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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प्रतिकार/ कविता
याद है वो बीते लम्हे मुझे ,
भूख से उठती वो चीखे भी ,
जिसको  रौंद देती थी ,
वो सामंतवादी व्यस्था।
डर जाती थी ,
 मज़दूरो की बस्ती ,
 खौफ में जीता था हर वंचित ,
दरिद्रता बैठ जाती चौखट पर।
काफी अंतराल के बाद
सूर्योदय हुआ ,
दीन बहिष्कृत भी ,
सपनो के बीज बोने लगा।
वक्त ने तमाचा जड़ दिया
हैवानियत के गालों पर ,
दीन  का मौन टूट गया है ,
दीनता का हिसाब मागने लगा है।
आज़ाद हवा के साथ,
कल संवारने की सोच रहा है ,
आज भी गिध्द आँखे  ताक रही है।
तभी तो दीन दीनता से ,
उबर नहीं पा रहा है ,
बुराईयों का जाल टूट नहीं रहा है।
आओ करे प्रतिकार ,
बेबस भूखी आँखों में झाँक कर ,
कर दे संवृध्दि का बीजारोपण।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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जहर /कविता

खुले है पर,
 हाथ बंधे लग रहे हैं ,
खुली जुबान पर,
ताले जड़े लग रहे हैं।
चाहतों के समन्दर ,
कंकड़ों से   भर रहे हैं ,
खुली आँखों को,
 अँधेरे डस  रहे है।
लूट गयी तकदीर,
 डर  में जी रहे है,
कोरे  सपने ,आंसू बरस रहे हैं।
फैले हाथ नयन शरमा  रहे है ,
चमचमाती मतलब की खंजर ,
बेमौत मर रहे है।
समझता अच्छी तरह,
क्या कह रहे है,
बंधे हाथ,
खुले कान सुन रहे है।
बंदिशों से ,
घिरे वंचित ताक रहे है,
छिन गया सपना,
 कल को देख रहे हैं।
भीड़ भरी दुनिया में,
 अकेले रह गए है ,
अपनो की भीड़ में,
पराये हो गए हैं।
झराझर आंसुओ को,
 कुछ तकदीर कह रहे है ,
आगे बढ़ने वाले ,
पत्थर पर लकीर खींच रहे है।
क्या कहे कुछ लोग ,
खुद की खुदाई पर विहस रहे है ,
कैद तकदीर कर,
जाम टकरा रहे हैं।
दीवाने धुन के ,
जहां आंसू से सींच रहे हैं
उभर जाए कायनात शोषितो की
 उम्मीद में जहर पी रहे हैं।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
दरिद्रनारायण /कविता
मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ ,
जहां खेतिहर मज़दूरों की ,
चौखट पर नाचती है
भय-भूख और दरिद्रता आज भी ,
वंचितो की बस्ती अभिशापित है ,
बस्तियों के कुएं का पानी ,
अपवित्र है आज भी ,
भूखा नंगा ब्मज़दूर ना जाने कब से
हाड फोड़ रहा है
ना मिट रही है भूख ना ही ,
तन ढँक पा रहा है ,
कहने को आज़ादी है पर वो ,
बहुत दूर पड़ा है ,
भूमिहीनता के दलदल में खड़ा है ,
भय से आतंकित ,
कल के बारे में कुछ नहीं जानता
आंसू पोंछता आज़ादी कैसी
वह यह भी नहीं जानता ,
वह जानता है
खेत मालिको के खेत में खून पानी करना
मज़बूरी है उसकी
भूख-भय और पीड़ा से मरना
कब सुख की  बयार बही है ,उसकी बस्ती में
इतिहास भी नहीं बता सकता सही-सही ,
पीड़ित जन भयभीत जातीय बंटवारे की आग से ,
वह भी सपने देखता है ,
दुनिया के और लोगो की तरह
गांव कही धुप में पाक कर ,
उसके सपनो को पंक नहीं लग पाते ,
उसे भी पता लगाने लगा है
दुनिया की  तरक्की का
आदमी के चाँद पर  उतर जाने का भी।
वह नहीं लांघ पा रहा है
मज़बूरी की मज़बूत दीवारे ,
वह दीनता को  ढोते -ढोते  आंसू बोटा हुआ ,
कूंच कर  जा रहा है ,अनजाने लोक को
विरासत में भय-भूख और क़र्ज़ छोड़कर ,
अगला जन्म सुखी हो
डाल देते है परिजन मुंह में गंगाजल
मुक्ति की  आस में ,
दरिद्रनारायण को गुहारकर ,
मैं  भी माथा ठोंक लेता हूँ
पूछता हूँ क्या यही तेरी खुदाई है ....?
क्या इनका कभी  उध्दार होगा … ?
सच मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ
जहां अनेकों आँसू पीकर ,
बसर कर रहे है आज भी। ..........
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

एक बरस और /कविता
मान की गोद पिता  के कन्धों ,
गांव की माटी और
 टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से होकर,
उतर पड़ा कर्मभूमि में
सपनो की बारात लेकर।
जीवन जंग के रिसते घाव है सबूत
 भावनाओ पर घाव मिल रहे बहुत
संभावनाओ के रथ पर दर्द से ,
कराहता भर रहा उड़ान।
उम्मीदो को मिली ढाठी बिखरे सपने
लेकिन सम्भावना में जीवित है पहचान
नए जख्म से दिल दहलता ,
पुराने से रिस रहे निशाँ।
जातिवाद धर्मवाद उन्माद की धार ,
विनाश की लकीर खींच रही है ,
लकीरो पर चलना कठिन हो गया है ,
उखड़े पांव बंटवारे की लकीरो पर
सद्भावना की तस्वीर बना रहा हूँ।
लकीरो के आक्रोश में ज़िंदगियाँ हुई तबाह ,
कईयों का आज उजड़ गया ,
कल बर्बाद हो गया
ना भभके ज्वाला ना बहे आंसू ,
संभवाना में सद्भावना के ,
शब्द बो रहा हूँ।
अभिशापित बंटवारे का दर्द पी रहा
जातिवाद धर्मवाद की धधकती लू में ,
बिट रहा जीवन का दिन हर नए साल पर,
एक साल का और बूढ़ा हो जाता हूँ ,
अंधियारे में सम्भावना का दीप जलाये
बो रहा हूँ सद्भावना के बीज
सम्भावन है दर्द की खाद और
आंसू से सींच बीज
विराट वृक्ष बनेगे एक दिन,
पक्की सम्भावना है वृक्षो पर लगेगे ,
समानता सदाचार ,सामंजस्य और
आदमियत के फल ,
ख़त्म हो जाएगा धरा से भेद और नफ़रत।
सद्भावना के महायज्ञ में दे रहा हूँ ,
आहु ति जीवन के पल-पल की,
 सम्भावना बस ,
सद्भावना होगी धरा पर जब,
 तब ना भेद गरजेगा ,
ना शोला बरसेगा और ना टूटेंगे सपने
सद्भावना से कुसुमित हो जाए ये धरा ,
सम्भावना बस उखड़े पांव भर रहा उड़ान ,
सर्व कल्याण की कामना के लिए ,
नहीं निहारता पीछे छूटा भयावह विरान।
माँ की तपस्या पिटा का त्याग,
धरती का गौरव रहे अमर ,
विहसते रहे सद्कर्मो के निशान
सम्भावन की उड्डान में कट जाता है
मेरी ज़िन्दगी की एक और बरस
पहली जनवरी को …………।




डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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जयकार/कविता
बंजर हो गए  नसीब ,
अपनी जहां में ,
बिखरने लगी है आस,
तूफ़ान में
आग के समंदर ,
डूबने का डर है ,
उम्मीद के लौ के ,
बुझने का डर है।
जिन्दा रहने के लये ,
जरुरी है हौशला ,
कैद तकदीर का ,
अधर में है ,फैसला।
खुद को आगे रखने की ,
फिकर है ,
आम-आदमी की नही ,
जिकर है।
आँखे पथराने ,
उम्मीदे थमने लगी है ,
मतलबियो को कराहे भी ,
भाने लगी है।
कैद  तकदीर रिहा ,
नहीं हो पा रही है ,
गुनाह आदमी का ,
सजा किस्मत पा रही है।
बंज़र तकदीर को ,
सफल है बनाना ,
कैद तकदीर की मुक्ति को होगा ,
बीड़ा उठाना।
अगर हो  गया ऐसा तो ,
विहास पडेगा हर आशियाना ,
काल के भाल होगे निशान
जयकार करेगा ज़माना। .......
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

फना /कविता
मैं वंदना करता हूँ ऐसे इंसान की ,
बोटा है बीज जो सद्भावना का ,
रखता है हौशला त्याग का।
मेरा क्या मैं  तो दीवान हूँ ,
इंसानियत का ,
भले ही कोई इल्जाम मढ़ दे
या कहे पाखंडी ,
या दे दे दहकता कोई घाव नया।
निज-स्वार्थ से दूर
पर- पीड़ा से बेचैन इंसान में ,
भगवान् देखता हूँ ,
दूसरों के काम  वालों की,
वन्दना करता हूँ।
साजिशो  से बेखबर ,
सच्चा इंसान खोजता हूँ ,
जानता हूँ हो जाऊँगा फना ,
फिर भी डूबता हूँ
तलाशने पाक सीप ,
हो जिसमे संवेदना ,
उसे माथे चढ़ाना चाहता हूँ।
सच ऐसे लोग ,
परमार्थ के यज्ञ में होकर फना,
देवता बन जाते है ,
ऐसे देवताओ की ,
वंदना करता हूँ।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010







मुट्ठी भर आग /कविता
मुट्ठी भर आग से सुलगा दी है ,
अरमानों की बस्ती ,
लड़ रहा है आदमी अभिमान के तेग से ,
आग से उठे धुएं में दब रही हैं चीखें ,
हाथ नहीं बढ़ रहा है कमजोर की और,
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा
अमानुष मान लिया गया है
पसीने के साथ धोखा हो रहा है
और हक़ का चीरहरण भी
मुट्ठी भर आग के अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठ में आग भरने वाले ,
तकदीर का लिखा कहते है
मरते सपने धोने वाले छाल कहते है ,
दंश देने वाले तकदीर बनाने वाले बनते है ,
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा आदमी
वंचित हो गया है ,
समानता और आर्थिक समपन्नता से भी।
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग ने बाँट दिया है ,
आदमी को खंड-खंड
मुट्ठी भर आग  भरने वाले गुमान कर रहे है
पीड़ित के मरते सपने और
बिखराव को देखकर
मीठी भर आग में सुलग रहे
आदमी को छोटा मान अत्याचार कर रहे है
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग से उपजा धुंआ
चीर कर पीड़ितों की छाती
दुनिया की नाक के आर-पार होने लगा है
आग में जल रहा शीतलता की बाट  जो रहा
मुट्ठी भर आग ऐसा गहरा और
 बदनुमा दाग छोड़ चुकी है ,
धुलने के सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे है
अत्याचार बढ़ जाता है सर उठते ही
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रही है
मानवता और बढ़ रहा है उत्पीड़न
मुट्ठी भर आग अर्थात जातिवाद से ,
मुट्ठी भर आग से पीड़ा कहीं आक्रोश बने
उससे पहले चल पड़े समानता की राह
क्योंकि आग छीन रही है सकून ,सद्भावना
बाट रही है नफर
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

Monday, December 16, 2013

जमा पूँजी /कविता

जमा पूँजी /कविता
उम्र की जमा पूँजी ,
मुट्ठी में बंद रेत  की तरह ,
 सरके जा रही ,
मिनट ,घंटा,दिन,महीना ,
साल तक पहुँच रही .....
ये दुखती दास्ताँ
हर किसी के साथ ,
दोहराई जा रही ,……
वाह रे अपनी जहाँ के
भ्रम में फंसे लोग ,
नहीं पसीज रहा जिगर
नफ़रत की खेती बढती जा रही…
टूट -टूट खंड-खंड बिखर गए ,
दबे कुचलो को दंड मिल रहा ,
हाय रे जाति -धर्म की अफीम ,
नशा जालिम कम ही,
 नहीं हो रही………
अपनी जहां वालो ,
हिम्मत करो कह दो अलविदा ,
मानवीय समानता के पथ चल दो
अपनी जहां भ्रम है
पल-पल उम्र की जमा पूँजी ,
सरकती जा रही ,
जाति -भेद नफ़रत की खेती ,
बंद क्यों नही हो रही …………

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com
17 .12 . 2013








डर /कविता
आसपास देखकर डर  हूँ ,
कहीं से कराह कहीं से चीख ,
धमाकों की उठती लपटें देखकर।
इंसानो की बस्ती को जंगल कहना ,
जंगल का अपमान होगा अब
ईंट पत्थरो के महलों में भी ,
इंसानियत नहीं बसती।
मानवता को नोचने,
इज्जत से खेलने लगे है ,
हर मोड़ -मोड़ पर ,
हादशा बढ़ने लगा है।
आदमी आदमखोर लगने लगा है ,
सच कह रहां  हूँ ,
ईंट पत्थरो के जंगल में बस गया हूँ ।
मैं अकेला इस जंगल का साक्षी नहीं हूँ
और भी लोग है ,
कुछ तो अंधा -बहरा गूंगा बन बैठे हैं ,
नहीं जमीर जाग रहा है ,
आदमियत को कराहता देखकर।
यही हाल रहा तो वे खूनी  पंजे
हर गले की नाप ले लेगे धीरे-धीरे ,
खूनी  पंजे हमारी और बढे उससे पहले
शैतानो की शिनाख्त कर बहिष्कृत कर दे ,
दिल से घर -परिसर समाज और देश से।
ऐसा ना हुआ तो
 खूनी पंजे बढ़ते रहेंगे ,
धमाके होते रहेंगे ,
इंसानी काया के चिथड़े उड़ाते रहेंगे ,
तबाही के बादल गरजते रहेंगे ,
इंसानियत तड़पती रहेगी,
नयन बरसते रहेंगे ,
शैतानियत के आतंक  से
नहीं बच पाएंगे ,
छिनता रहेगा
 चैन कांपती रहेगी रूह ,
क्योंकि मरने से नहीं डर लगता
डर लगता तो ,
मौत के तरीको से ..........
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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तुला/कविता
नागफनी सरीखे उग आये है 
कांटे दूषित माहौल में।
इच्छाये मर रही है नित ,
चुभन से दुखने लगा है
रोम-रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है ,
चुभन कुव्यवस्थाओं की ,
रिसता जख्म  बन गया है ,
 भीतर ही भीतर।
हकीकत जीने नहीं देती ,
सपनों की उड़ान में जी  रहा हूँ ,
उम्मीद का प्रसून खिल जाए ,
कही अपने ही भीतर से।
डूबती नाव में
सवार होकर भी ,
विश्वास है ,
हादसे से उबर जाने का।
उम्मीद टूटेगी नहीं ,
क्योंकि ,
मन में विश्वास है
फौलाद सा।
टूट जायेगे आडम्बर सारे ,
खिलखिला उठेगी कायनात ,
नहीं चुभेंगे
नागफनी सरीखे कांटे ,
नहीं कराहेगे  रोम-रोम
जब होगा,
अँधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की तुला पर ,
भले ही दुनिया कहे व्यर्थ। ……
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
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प्रतिकार/ कविता
याद है वो बीते लम्हे मुझे ,
भूख से उठती वो चीखे भी ,
जिसको  रौंद देती थी ,
वो सामंतवादी व्यस्था।
डर जाती थी ,
 मज़दूरो की बस्ती ,
 खौफ में जीता था हर वंचित ,
दरिद्रता बैठ जाती चौखट पर।
काफी अंतराल के बाद
सूर्योदय हुआ ,
दीन बहिष्कृत भी ,
सपनो के बीज बोने लगा।
वक्त ने तमाचा जड़ दिया
हैवानियत के गालों पर ,
दीन  का मौन टूट गया है ,
दीनता का हिसाब मागने लगा है।
आज़ाद हवा के साथ,
कल संवारने की सोच रहा है ,
आज भी गिध्द आँखे  ताक रही है।
तभी तो दीन दीनता से ,
उबर नहीं पा रहा है ,
बुराईयों का जाल टूट नहीं रहा है।
आओ करे प्रतिकार ,
बेबस भूखी आँखों में झाँक कर ,
कर दे संवृध्दि का बीजारोपण।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com





जहर /कविता

खुले है पर,
 हाथ बंधे लग रहे हैं ,
खुली जुबान पर,
ताले जड़े लग रहे हैं।
चाहतों के समन्दर ,
कंकड़ों से   भर रहे हैं ,
खुली आँखों को,
 अँधेरे डस  रहे है।
लूट गयी तकदीर,
 डर  में जी रहे है,
कोरे  सपने ,आंसू बरस रहे हैं।
फैले हाथ नयन शरमा  रहे है ,
चमचमाती मतलब की खंजर ,
बेमौत मर रहे है।
समझता अच्छी तरह,
क्या कह रहे है,
बंधे हाथ,
खुले कान सुन रहे है।
बंदिशों से ,
घिरे वंचित ताक रहे है,
छिन गया सपना,
 कल को देख रहे हैं।
भीड़ भरी दुनिया में,
 अकेले रह गए है ,
अपनो की भीड़ में,
पराये हो गए हैं।
झराझर आंसुओ को,
 कुछ तकदीर कह रहे है ,
आगे बढ़ने वाले ,
पत्थर पर लकीर खींच रहे है।
क्या कहे कुछ लोग ,
खुद की खुदाई पर विहस रहे है ,
कैद तकदीर कर,
जाम टकरा रहे हैं।
दीवाने धुन के ,
जहां आंसू से सींच रहे हैं
उभर जाए कायनात शोषितो की
 उम्मीद में जहर पी रहे हैं।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
दरिद्रनारायण /कविता
मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ ,
जहां खेतिहर मज़दूरों की ,
चौखट पर नाचती है
भय-भूख और दरिद्रता आज भी ,
वंचितो की बस्ती अभिशापित है ,
बस्तियों के कुएं का पानी ,
अपवित्र है आज भी ,
भूखा नंगा ब्मज़दूर ना जाने कब से
हाड फोड़ रहा है
ना मिट रही है भूख ना ही ,
तन ढँक पा रहा है ,
कहने को आज़ादी है पर वो ,
बहुत दूर पड़ा है ,
भूमिहीनता के दलदल में खड़ा है ,
भय से आतंकित ,
कल के बारे में कुछ नहीं जानता
आंसू पोंछता आज़ादी कैसी
वह यह भी नहीं जानता ,
वह जानता है
खेत मालिको के खेत में खून पानी करना
मज़बूरी है उसकी
भूख-भय और पीड़ा से मरना
कब सुख की  बयार बही है ,उसकी बस्ती में
इतिहास भी नहीं बता सकता सही-सही ,
पीड़ित जन भयभीत जातीय बंटवारे की आग से ,
वह भी सपने देखता है ,
दुनिया के और लोगो की तरह
गांव कही धुप में पाक कर ,
उसके सपनो को पंक नहीं लग पाते ,
उसे भी पता लगाने लगा है
दुनिया की  तरक्की का
आदमी के चाँद पर  उतर जाने का भी।
वह नहीं लांघ पा रहा है
मज़बूरी की मज़बूत दीवारे ,
वह दीनता को  ढोते -ढोते  आंसू बोटा हुआ ,
कूंच कर  जा रहा है ,अनजाने लोक को
विरासत में भय-भूख और क़र्ज़ छोड़कर ,
अगला जन्म सुखी हो
डाल देते है परिजन मुंह में गंगाजल
मुक्ति की  आस में ,
दरिद्रनारायण को गुहारकर ,
मैं  भी माथा ठोंक लेता हूँ
पूछता हूँ क्या यही तेरी खुदाई है ....?
क्या इनका कभी  उध्दार होगा … ?
सच मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ
जहां अनेकों आँसू पीकर ,
बसर कर रहे है आज भी। ..........
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

एक बरस और /कविता
मान की गोद पिता  के कन्धों ,
गांव की माटी और
 टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से होकर,
उतर पड़ा कर्मभूमि में
सपनो की बारात लेकर।
जीवन जंग के रिसते घाव है सबूत
 भावनाओ पर घाव मिल रहे बहुत
संभावनाओ के रथ पर दर्द से ,
कराहता भर रहा उड़ान।
उम्मीदो को मिली ढाठी बिखरे सपने
लेकिन सम्भावना में जीवित है पहचान
नए जख्म से दिल दहलता ,
पुराने से रिस रहे निशाँ।
जातिवाद धर्मवाद उन्माद की धार ,
विनाश की लकीर खींच रही है ,
लकीरो पर चलना कठिन हो गया है ,
उखड़े पांव बंटवारे की लकीरो पर
सद्भावना की तस्वीर बना रहा हूँ।
लकीरो के आक्रोश में ज़िंदगियाँ हुई तबाह ,
कईयों का आज उजड़ गया ,
कल बर्बाद हो गया
ना भभके ज्वाला ना बहे आंसू ,
संभवाना में सद्भावना के ,
शब्द बो रहा हूँ।
अभिशापित बंटवारे का दर्द पी रहा
जातिवाद धर्मवाद की धधकती लू में ,
बिट रहा जीवन का दिन हर नए साल पर,
एक साल का और बूढ़ा हो जाता हूँ ,
अंधियारे में सम्भावना का दीप जलाये
बो रहा हूँ सद्भावना के बीज
सम्भावन है दर्द की खाद और
आंसू से सींच बीज
विराट वृक्ष बनेगे एक दिन,
पक्की सम्भावना है वृक्षो पर लगेगे ,
समानता सदाचार ,सामंजस्य और
आदमियत के फल ,
ख़त्म हो जाएगा धरा से भेद और नफ़रत।
सद्भावना के महायज्ञ में दे रहा हूँ ,
आहु ति जीवन के पल-पल की,
 सम्भावना बस ,
सद्भावना होगी धरा पर जब,
 तब ना भेद गरजेगा ,
ना शोला बरसेगा और ना टूटेंगे सपने
सद्भावना से कुसुमित हो जाए ये धरा ,
सम्भावना बस उखड़े पांव भर रहा उड़ान ,
सर्व कल्याण की कामना के लिए ,
नहीं निहारता पीछे छूटा भयावह विरान।
माँ की तपस्या पिटा का त्याग,
धरती का गौरव रहे अमर ,
विहसते रहे सद्कर्मो के निशान
सम्भावन की उड्डान में कट जाता है
मेरी ज़िन्दगी की एक और बरस
पहली जनवरी को …………।




डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com


जयकार/कविता
बंजर हो गए  नसीब ,
अपनी जहां में ,
बिखरने लगी है आस,
तूफ़ान में
आग के समंदर ,
डूबने का डर है ,
उम्मीद के लौ के ,
बुझने का डर है।
जिन्दा रहने के लये ,
जरुरी है हौशला ,
कैद तकदीर का ,
अधर में है ,फैसला।
खुद को आगे रखने की ,
फिकर है ,
आम-आदमी की नही ,
जिकर है।
आँखे पथराने ,
उम्मीदे थमने लगी है ,
मतलबियो को कराहे भी ,
भाने लगी है।
कैद  तकदीर रिहा ,
नहीं हो पा रही है ,
गुनाह आदमी का ,
सजा किस्मत पा रही है।
बंज़र तकदीर को ,
सफल है बनाना ,
कैद तकदीर की मुक्ति को होगा ,
बीड़ा उठाना।
अगर हो  गया ऐसा तो ,
विहास पडेगा हर आशियाना ,
काल के भाल होगे निशान
जयकार करेगा ज़माना। .......
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

फना /कविता
मैं वंदना करता हूँ ऐसे इंसान की ,
बोटा है बीज जो सद्भावना का ,
रखता है हौशला त्याग का।
मेरा क्या मैं  तो दीवान हूँ ,
इंसानियत का ,
भले ही कोई इल्जाम मढ़ दे
या कहे पाखंडी ,
या दे दे दहकता कोई घाव नया।
निज-स्वार्थ से दूर
पर- पीड़ा से बेचैन इंसान में ,
भगवान् देखता हूँ ,
दूसरों के काम  वालों की,
वन्दना करता हूँ।
साजिशो  से बेखबर ,
सच्चा इंसान खोजता हूँ ,
जानता हूँ हो जाऊँगा फना ,
फिर भी डूबता हूँ
तलाशने पाक सीप ,
हो जिसमे संवेदना ,
उसे माथे चढ़ाना चाहता हूँ।
सच ऐसे लोग ,
परमार्थ के यज्ञ में होकर फना,
देवता बन जाते है ,
ऐसे देवताओ की ,
वंदना करता हूँ।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010







मुट्ठी भर आग /कविता
मुट्ठी भर आग से सुलगा दी है ,
अरमानों की बस्ती ,
लड़ रहा है आदमी अभिमान के तेग से ,
आग से उठे धुएं में दब रही हैं चीखें ,
हाथ नहीं बढ़ रहा है कमजोर की और,
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा
अमानुष मान लिया गया है
पसीने के साथ धोखा हो रहा है
और हक़ का चीरहरण भी
मुट्ठी भर आग के अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठ में आग भरने वाले ,
तकदीर का लिखा कहते है
मरते सपने धोने वाले छाल कहते है ,
दंश देने वाले तकदीर बनाने वाले बनते है ,
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा आदमी
वंचित हो गया है ,
समानता और आर्थिक समपन्नता से भी।
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग ने बाँट दिया है ,
आदमी को खंड-खंड
मुट्ठी भर आग  भरने वाले गुमान कर रहे है
पीड़ित के मरते सपने और
बिखराव को देखकर
मीठी भर आग में सुलग रहे
आदमी को छोटा मान अत्याचार कर रहे है
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग से उपजा धुंआ
चीर कर पीड़ितों की छाती
दुनिया की नाक के आर-पार होने लगा है
आग में जल रहा शीतलता की बाट  जो रहा
मुट्ठी भर आग ऐसा गहरा और
 बदनुमा दाग छोड़ चुकी है ,
धुलने के सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे है
अत्याचार बढ़ जाता है सर उठते ही
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रही है
मानवता और बढ़ रहा है उत्पीड़न
मुट्ठी भर आग अर्थात जातिवाद से ,
मुट्ठी भर आग से पीड़ा कहीं आक्रोश बने
उससे पहले चल पड़े समानता की राह
क्योंकि आग छीन रही है सकून ,सद्भावना
बाट रही है नफर
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

Thursday, December 5, 2013

दूरियां /कविता

दूरियां /कविता
अपनी जहां अपनी ना हुई ,
शोषितो की तकदीर क़त्ल हुई ,
ये  जहां उन्ही की हुई है यारो  ,
बोया है जिसने दूरिया ,
 पैदा किया है
 गैरो के लिए मज़बूरियाँ
चौथे दर्जे के शोषित
कमेरी दुनिया के लोग
वफ़ा पर फना हो रहे ,
कर्म ही तो धर्म है को ,
जीवन का गहना कह रहे ,
भला क्या हुआ …………?
मुर्दाखोरो की बस्ती में
नसीब के नाम कर्म-श्रम का
चीर हरण ही तो है हुआ ,
बलात्कार पसीने का भी हो रहा ,
दब रही भरे जहां में सिसकियाँ
ये कैसा जहां  है ....?
भेद और स्वार्थ का नशा
है छाया
बोयी  जा रही है दूरियां। ……………………
डॉ नन्द लाल भारती
06 . 12 . 2013
आज़ाद दीप 15 -एम् वीणा नगर
इंदौर-452010  (मध्य प्रदेश )




दिल से बाहर करके तो देखो /कविता

जातीय नफ़रत का बारूद ना सुलगाओ
समता का गंगाजल अब द्वार-द्वार पहुंचाओ
जातिभेद शीतयुध्द है इस युध्द को अब बंद करो ,
जा तिभेद तोड़ो मानवता को स्वछन्द करो।
ना डंसे भेद समभाव की बयार बह जाने दो
नफ़रत नहीं स्नेह का स्पर्श दे दो ,
भारतभूमि ना बने जातिभेद का मरघट अब
तोड़ बंधन सारे समता का दीया जला दो।

धरती सद्भाव से होगी पावन ,
शांति भेद से नहीं एकता में बरसता है ,
आदमी जाति से नहीं कर्म से श्रेष्ठ बनता है
उंच-नीच से नहीं सद्भाव से सदप्यार फैलता है।
जाति के नाम पर ना अत्याचार करो अब,
आगे बढ़ शोषित वंचित को गले लगाओ
पतवार समता की बन बुध्द की राह हो जाओ ,
दंश धो रहे जो उन्हें समता का अमृत चखाओ।
जिसके ह्रदय में मानवता बसी है ,
वही  जातीय भेदभाव को धिक्कारता है ,
जिसके सीने में दर्द है वंचित के प्रति ,
तोड बाधाये  सारी वंचित से हाथ मिलाता है।
घाव है शोषित के ह्रदय पर विकराल ,
वह समानता की छांव में हर दर्द भूल सकता है
कर्म-फ़र्ज़ पर मिटने वाला उत्पीड़न झेल रहा ,
रिसते जख्मो का एहसास उध्दार कर सकता है।
जातिपांति का किला मज़बूत अब तोड़ना होगा ,
विषमता जब समता का रूप धर लेगा
जातीय भेद का आंधिया ख़त्म हो जायेगा
भारतभूमि पर समता का दीप जल जाएगा।
हाथ जोड़ कर बार बार कहता हूँ
जहा गरजे भेद वहा स्नेह लुटाओ
जब-जब हो भेद का वार तुम फूल चढ़ाओ
बोये भेद के बीज जो सभाव सीखो।
नफ़रत से सुख शांति नहीं आ सकती धारा पर
जातिभेद का सच्चे मन से त्याग करके देखो
आदमी हुए देव कई  बहुजन हिताय की राह चलाकर
सच मानो विषमता हारेगी विजय होगी तुम्हारी
जाति -पांति को दिल से बाहर करके तो देखो। ।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप 15 -एम् वीणा नगर
इंदौर-452010  (मध्य प्रदेश )



Friday, November 22, 2013

Hindi कविताye

अस्तित्व /कविता
चिंता की चिता  हुए ,
अस्तित्व संवारने में ,
जुट गया हूँ ,
बाधाएं भी निर्मित कर ,
दी जाती है ,
थकने लगा हूँ,
बार-बार के प्रहार से,
मैं डरता नहीं हार से ,
क्योंकि,
बनी रहती हैं
सम्भावनाये जीत   की
अंतर्मन में उपजे
सदविचारो में ,
अस्तित्व तलाशने लगा हूँ ,
मेरी दौलत की गठरी में हैं ,
कुलीनता,कर्त्तव्य निष्ठां,आदमियत ,
बहुजन सुखाय के ज्वलंत विचार।
जानता हूँ
पीछे मुड़कर देखता हूँ ,
विश्वाश पक्का हो जाता है
कि
मैं स्थाई नहीं परन्तु
स्वार्थी भी नहीं  हूँ
मैं दसूलत संचय के लिए नहीं ,
अस्तित्व के लिए संघर्षरत हूँ
टूटा नहीं है ,
मेरा विश्वास हादशों से ,
निखरी नहीं है ,
मेरी आस जानता हूँ
संभावनाओ के पर नहीं टूटे है ,
भले ही
दौलत की तुला पर निर्बल हूँ
कलम का सिपाही हूँ ,
बिखरी आस को जोड़ने में लगा हूँ ,
चिंता की चिता पर ,
सुलगते हुए भी
कलम पर धार दे रहा हूँ
अभी तक टूटा नहीं हूँ मैं,
दिल की गहराई में पड़े है
ज्वलंत साद विचारो के
ज्वालामुखी
जो
अस्तित्व को ,
जिन्दा रखने के लिए काफी है
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010








मुखौटा /कविता
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते ,
बेगाने जहा में ,
जीते रहे मरते-मरते
जहर पीए भेद भरी दुनिया में ,
गम से दबे डूबे रहे ,
आतंक अपनो का ,
अमानवीय दरारो के धूप,
छलते रहे ,
ना मिली छांव ,
रह गए दम्भ में भटकते-भटकते
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते ………………
उम्मीद कीजमीन पर ,
विश्वास की बनी है परते ,
विरोध की बयार में भी ,
दिन गुजरते रहे ,
स्याह रात से बेखबर ,
उजास ढूढते रहे ,
घाव के बोझ ,
फूंक-फूंक कदम रखते रहे ,
बिछुड़ गए कई ,
लकीर पर फ़क़ीर रहते -रहते ,
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
दिल में जवान मौसमी बहारे ,
गुजर रही यकीन पर राते
ना जाने कौन से नक्षत्र
वक्त ने फैलाई थी बाहें ,
कोरा मन था जो बेबस है ,
अब भरने को आहें
आदमी की भीड़ में ,
थक रहे अपना ढूढते ढूढते
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
नहीं अच्छा बंटवारा ,
जाति -धर्म के नाम पर
जुल्म रोकिये
खुदा के बन्दे सच्चे ,
छोटे हो या बड़े हर बन्दे को ,
गले लगाईये ,
समता शांति के नामे ,
मुखौटे नोंच  दीजिये ,
करवा गुजर गया ,
ना मिला सकून ,
लकीर पीटते -पीटते ,
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010








सम्भावना के फूल /कविता
जख्म पर जख्म
 अपनी ही जहां में
साथ चलने वाला ना मिला।
रोटी का बंदोबस्त ,
सर की छांव का इंतजाम ,
पसीने के भरोसे ,
विभाजित जहां में
सम्मान ना  मिला।
सर्वसमानता के नारे
कान तो गुदगुदाते ,
जख्म के अलावा
 कुछ ना मिला ,
भ्रमवश माना ,
तकदीर के खिल गए फूल ,
हकीकत में ,
टूटा हुआ आईना मिला।
घाव और गहरा हो गया
जब आदमी के चहरे पर
मुखौटा ही मुखौटा मिला।
कथनी और करनी को ,
खंगाला जब ,
आदमियत का लहूलुहान ,
चेहरा मिला।
आँखों में सपने ,
दिल घायल मगर ,
अपनो की महफ़िल में ,
मीठा जहर मिला।
बड़ी मन्नते थी ,
चखें आज़ादी का स्वाद असली ,
बिखर गए उम्मीदे ,
मानवीय एकता को ना ,
अवसर मिला।
छाएगी समता ,
चौखट -चौखट  होगी सम्पन्नता
सम्भावना का है ,
फूल खिला…………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010






विष बीज/कविता
चक्रव्यूह में फंसा  हूँ ,
आखिरकार ,
वह कौन सी योग्यता  है  ,
मुझमे नहीं है  जो ,
ऊँची -ऊँची डिग्रिया है ,
मेरे पास ,
सम्मान पत्रो की ,
सुवास भी तो है ,
अयोग्य हूँ फिर भी क्यूँ……… ?
शायद अर्थ की तुला पर
व्यर्थ हूँ ,
नहीं नहीं। .......
पद की दौलत मेरे पास नहीं है
बड़ी दौलत तो है ,
कद की ,
सारी दौलत उसके
 सामने छोटी है
फिर भी,
 अस्तित्व पर हमला ,
जुल्म शोषण,
अपमान का जहर
भेद की बिसात ..........
ये कैसे लोग है ?
भेद के बीज बोते है ,
बड़ा होने का दम्भ भरते है
अयोग्य होकर ,
कमजोर की योग्यता को,
नकारते है ,
आदमी को छोटा मानकर,
दुत्कारते है
सिर्फ जन्म के आधार पर,
कर्म का कोई स्वाभिमान नहीं ………
ये कैसा दम्भ है ,
बड़ा होने का ,
पैमाईस में छोटा हो जाता है ,
ऊँचा कर्म ऊंचा कद और
सम्मान भी।
कोई  तरीका है ,
विषबीज को नष्ट करने का ,
आपके पास
यदि हां तो श्रीमानजी,
अवश्य अपनाये
गरीब,वंचित, उच्च कर्म
और
कदवांन  को
कभी ना सताने की,
कसम खाये ,
सच्ची मानवता है यही
और
आदमी का फ़र्ज़ भी। ...........

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010






तस्वीर/कविता
ये कैसी तस्वीर उभर रही है ,
आँखों का सकून ,
दिल का चैन छिन  रही है .
 अम्बर घायल हो रहा है
अवनि सिसक रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
चहुंओर तरक्की  की दौड़ है
भ्रष्टाचार,महंगाई ,
मिलावट का दौर है ,
पानी बोतल में,
 कैद हो रहा है ,
जनता तकलीफो का
बोझ धो रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
बदले हालत में
 मुश्किल हो रहा है
जहरीला वातावरण,
 बवंडर उठ रहा है
जंगल और जीव
तस्वीर में जी रहे है
ईंट पत्थरो के जंगल की
बाढ़ आ रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
आवाम शराफत की चादर
ओढ़े सो रहा है।
समाज,भेदभाव और
गरीबी का
अभिशाप धो रहा है।
एकता के विरोधी ,
खंजर पर धार दे रहे है ,
कही जाति कही धर्म की ,
तूती  बोल रही है
 ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
 
तुला/कविता
नागफनी सरीखे उग आये है
कांटे ,
दूषित माहौल में
इच्छाये मर रही है नित
चुभन से दुखने लगा है,
रोम-रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है
चुभन कुव्यवस्थाओं की
रिसता जख्म बन गया है
अब भीतर-ही-भीतर।
सपनो की उड़ान में जी रहा हूँ'
उम्मीद का प्रसून खिल जाए
कहीं अपने ही भीतर  से।
डूबती हुई नाव में सवार होकर भी
विश्वास है
हादशे से उबार जाने का
उम्मीद टूटेगी नहीं
क्योंकि
मन में विश्वास है
फौलाद सा ।
टूट जायेगे आडम्बर सारे
खिलखिला उठेगी कायनात
नहीं चुभेंगे ,
नागफनी सरीखे कांटे
नहीं कराहेगे रोम-रोम
जब होगा ,
अँधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की,
तुला पर तौलकर
भले ही दुनिया कहे व्यर्थ…………………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010




आदमी बदल रहा है /कविता
देखो आदमी बदल रहा है ,
आज खुद को छल रहा है,
अपनो से बेगाना हो रहा है ,
मतलब को गले लगा रह है ,
देखो आदमी बदल रहा है …………
औरो के सुख से सुलग रहा है ,
गैर के आंसू पर हस रहा है,
आदमी आदमियत से दूर जा रहा है देखो आदमी बदल रहा है …………
आदमी आदमी  रहा है
आदमी पैसे के पीछे भाग रहा है ,
रिश्ते रौंद रहा है ,देखो आदमी बदल रहा है …………
इंसान की बस्ती में भय पसर रहा  है ,
नाक पर स्वार्थ का सूरज उग रहा है ,
मतलब बस छाती पर मुंग दल रहा है देखो आदमी बदल रहा है …………
खून का रिश्ता धायल हो गया है
आदमी साजिश रच रहा है
आदमी मुखौटा बदल रहा है देखो आदमी बदल रहा है …………
दोष खुद का समय के माथे मढ़ रहा है ,
मर्यादा का सौदा कर रहा है ,
स्वार्थ की छुरी तेज कर रहा है ,देखो आदमी बदल रहा है …………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010




आसमान/कविता
पीछे डर आगे विरान है,
वंचित का कैद आसमान है
जातीय भेद की,
 दीवारों में कैद होकर
सच ये दीवारे जो खड़ी है
आदमियत से  बड़ी है .
कमजोर आदमी त्रस्त  है
गले में आवाज़ फंस रही है
मेहनत और
योग्यता  दफ़न हो रही है ,
वर्णवाद का शोर मच रहा है
ये कैसा कुचक्र चल रहा है।
साजिशे रच रहा आदमी
फंसा रहे भ्रम में ,
दबा रहे दरिद्रता और
जातीय निम्नता के दलदल में ,
बना रहे श्रेष्ठता का साम्राज्य
अट्ठहास करती रहे ऊचता।
जातिवाद साजिशो का खेल है
अहा आदमियत फेल है ,
जमीदार कोई साहूकार बन गया है
शोषित शोषण का शिकार हो गया है।
व्यवस्था में दमन की छूट है
कमजोर के हक़ की लूट है।
कोई पूजा का तो
 कोई नफ़रत का पात्र है
कोई पवित्र कोई अछूत है
यही तो जातिवाद का भूत है।
ये भूत  अपनी जहा में जब तक
 खैर नहीं शोषितो की
आज़ादी जो अभी दूर है ,
अगर उसके द्वार पहुचना है
पाहा है छुटकारा
जीना है सम्मानजनक जीवन
बढ़ना है तरक्की की राह
गाड़ना है
आदमियत की पताका तो
तलाशना होगा और
आसमान कोई ...........डॉ नन्द लाल भारती










मौत/ कविता
जमीन  पर अवतरित होते ही ,
बंद मिठिया भी भींच जाती हैं ,
रुदन के साथ ,
गूंज उठता है संगीत ,
जमीन पर अवतरित होते ही।
आँख खुलते ,होश में आते,
मौत का डर बैठ जाता है ,
वह भी ढ़ीठ जुट जाती है ,
मकसद में।
जीवन भर रखती है ,
डर में ,
स्वपन में भी ,
भय पभारी रहता है ,
हर मोढ़ पर खड़ी रहती है
मौके की तलाश में।
ढीठ पीछा करती है ,
भागे-भागे ,
आदमी चाहता है ,
निकलना आगे
भूल जाता है,
पीछे लगी है मौत ,
अभिमान सिर  होता है
दौलत का ,
रुतबे की आग में कमजोर को
जलाने की जिद भी।
अंततः खुले हाथ समा जाता है ,
मौत के मुंह में,
छोड़ जाता है ,
नफ़रत से सना खुद का नाम।
कुछ लोग जीवन-मरन  के
पार उतर जाते हैं
आदमी से देवता बन जाते है ,
दरिद्रनारायण की सेवा कर।
मौत सच्चाई है ,
अगर अमर है होना ,
ये जग वालो ,
नेकी के बीज ही होगा बोना।
डॉ नन्द लाल भारती
साथ/कविता
जीवन क्या……?
जो जी लिया वही अपना
लोग पाये दुनिया परायी,
 सच है कहना।
जीवन में कैसे -कैसे धोखे ,
मोह ने लूटे ,
मतलब बस संग ,
डग भरते लोग खोटे।
मतलबी औरो को बर्बाद कर ,
शौक में जीते ,
आदमियत की छाती में ,
नस्तर घोप देते है।
भेद के पुजारी ,
चोट गहरा कर देते है।
गरीब के भाग्य का
ना हुआ उदय सितारा ,
गैरो की क्या .......?
अपनो ने हक़ है  मारा।
बदनेकी पर नेकी की
चादर दाल देते है ,
स्वार्थ में क्या मरना…?
सब साथ हो लेते है। डॉ नन्द लाल भारती


मंतव्य/कविता
ना जाने लोग क्यों ,
दबे हुए को दबाना चाहते हैं ,
नकाब तो ओढ़ते हैं ,
चोट खतरनाक करते हैं
वहॉ लोग,
त्याग की बात करते हैं। 
गाँठ  रखने  वालो का
कैसा भरोसा ……… ?
ये तो मंतव्य को तरासते हैं
गरीब का शोषण शौक ,
हक पर डाका
अधिकार समझते हैं।
बंदिशों  की तपन नहीं तो ,
और क्या कहे  ....?
 शोषित आज भी सिसक रहे ,
हर कोइ उम्मीद पर ,
खरा चाहता है ,
कर दरकिनार सिसकिया ,
दोहन चाहता है।
दबे हुए को दबाने का,
आतंक जारी है ,
यही तो बदनसीबी है ,
आंसू में बह रही  योग्यता सारी ,
क्या दबे को दबाना खुदाई है ,
तूफ़ान का  डर ,
आदमियत से जुदाई है ,
अगर श्रेष्ठ बनाने की ,
लालसा है दिल में
दबे कुचलों का करे उध्दार ,
सच्चे मन से ,
मिल जायेगा श्रेष्ठता का गंतव्य ,
मन में जब बसेगा गंगा सा मंतव्य… डॉ नन्द लाल भारती


रंज छाने लगा है/कविता
नाज पर आज अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है ,
मोह भी क्या बला है अपनो की ,
अपनी जहा में यारो ,
गले में सांस रुकने लगा है।
ना जाने कौन सा ,
इम्तहान अभी बाकी है
 संवारने की तमन्ना में ,
टूटते-बिखरते -जुड़ते रहा ,
उम्र भर
ना जाने क्यों अपनी जहां में ,
रंज छाने लगा है।
हादशों की गवाह   उम्र अपनी
नए -पुराने दर्द पोर-पोर चटकाते  ,
बदले वक्त में एक-एक घाव ,
भारी बहुत भारी लगाने लगा है।
ये खुदा बख्श दे अब कोई ताबीज ,
अपनी जहाँ का दर्द ,
सताने लगा है ,
नाज पर अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है।
डॉ नन्द लाल भारती / 11. 11. 2013



परिवर्तन/कविता
ह्रदय दीप मेरा ,
परिवर्तन का आगाज़ है ,
दीप को लहू दे रहा ऊर्जा ,
तन तपकर दे रहा है रोशनी ,
मन कर रहां ,
सच्ची विचारो का  आह्वाहन ,
मानवीय समानता के लिए।
भूख से कराह रहा ,
समानता की प्यास है ,
आर्थिक उत्थान  की
अभिलाषा है ,
कायनात के संग चलने की ,
सफ़र में बड़ी मुश्किलें है ,
पग-पग पर ]
बंटवारे के शूल खड़े है
हैम तो परिवर्तन के लिए ,
चल पड़े हैं.
 कर रहे है हवन
जीवन के बसंत को
बस,
 मानवीय समानता के लिए।
बुध्द ने यही कहा है
अप्पो दीप्पो भवः
बहुजन सुखाय का,
 मंत्र दिया है
जरुरी है
मानवीय एकता के लिए
बुराईयो पर ,
 हो गया  काबू
जिस दिन
धरती से मिट जायेगा
शोषण,उत्पीड़न और
वंचित का दमन भी
आओ परिवर्तन की मशाल
ह्रदय दीप से जलाये ,
मानवीय समानता के लिए …… डॉ नन्द लाल भारती
बदलते वक्त में /कविता
बदलते वक्त में खुद की तस्वीर,
टूटती हुई पाता  हूँ ,
रहनुमाओ की भीड़ में
दिल पर दर्द का बोझ पाता हूँ।
बहार भरे जहा में ,
कांटो की छांव पाता हूँ ,
हंसी के बीच आदमी को ,
उखड़ा-उखड़ा पाता  हूँ
क्या ख्वाब थे ,
बदलते वक्त में भी,
उजड़ा पाता हूँ
प्यासा मन प्यास के आगे ,
सांझ पाता हूँ।
क्या उमस है बंजर दिलो की ,
रिसते घाव बहते आंसू पाता हूँ ,
हवा भी कर रही खिलाफत ,
बदला तेवर पाता हूँ।
नैतिकता अपनी अडिग ,
पर जड़ हिलती पाता हूँ।
ना मिली समानता ,
पग-पग पर दीवार पाता हूँ।
क्या कहूँ दिल की बात ,
शब्दों की तपन से ,
होंठ सुलगता पाता हूँ ,
ना बदला ज़माना ,
हर और टूटती तस्वीर पाता हूँ……। डॉ नन्द लाल भारती
लब्ज/कविता
मेरे लब्ज ही मेरी गुहार है ,
और
उपस्थिति भी ,
देना चाहते है दस्तक
पाषाण दिलों पर ,
चाहते है ,
मानवीय एकता का वादा भी।
मेरे लब्ज ही मेरी पहचान है ,
मांगते है जो ,
समानता का अधिकार ,
मानवीय भेदभाव का करते है ,
बहिष्कार ,
बिखराव को सद्भाव में ,
बदलने की है ललक ,
कद की ऊंचाई का भी ,
यही है रहस्य।
मानवता के काम आये ,
महापुरुषो के अमर है
निशान ,
उनके एक-एक लब्ज
जीवित है ,
समानता,शांति और
सद्भावना के लब्ज,
मुझे भी देते है ,
हौशला शक्ति और
सामर्थ्य भी।
तभी तो,
 मानवीय भेद से लहुलुहान ,
कुरीतियो के त्याग की,
 बात कर रहा हूँ
विषमता के धरातल पर ,
विष पीकर भी
समानता के लब्ज जोड़ रहा हूँ ……डॉ नन्द लाल भारती
लकीर/कविता
खुली आँखे सपने आते,
सुनहरे प्यारे ,
विषमाद की आंधी ,
उड़ा ले जाती सारे।
कहाँ उम्मीद थमे ,
अपने-पराए बनते,
अवसर की ताक ,
 आस्तिन में साप रखते ।
भरे जहां में खो गया सकून ,
उजड़ी उजास ,
मोह का तूफ़ान,
घायल हो रही आस।
आँखों के नीर से ,
मतलब सींचने लगे है लोग,
हक़ छीन, ऊँचे आसन की आड़
करते हैं उपभोग।
आहत मन,चढ़े तराजू हरदम ,
दबंग की शान ,
ईमान पाये हलाहल ,
श्रम परेशान।
बूढ़ी व्यस्था बूढ़ी हुई सदिया ,
रौनक ना आयी ,
अटल लकीरे विषैली ,
क्या खूब यौवन है पायी।
फ़र्ज़ की ओट सह रहा चोट ,
वंचित इंसान ,
मिटा दो भेद की लकीरें,
जिसे संवारा है इंसान।  डॉ नन्द लाल भारती




पहचान/कविता
अब्र की कब्र पर,
बैठा आदमी ,
आदमियत का ,
क़त्ल कर रहा है आज
दुखती नब्ज को ,
कब्ज बख्श रहा
पसीजते घाव की,
बन रहा है  खाज
मन की मज़बूत गांठे,
मतलब तौल रहा
सकून से परे ,
संदेह में जी रहा ,
बहकने का जाम,
बहाना था काफी ,
आज खुद,
बहक रहा आदमी ,
जेहन में जहर ,
बेपरदा हो रहा है आदमी ,
छल का आदी ,
हो गया आदमी ,
जीवन मूल्य से ,
बिछुड़ गया आदमी
मानवता के राही को,
 दंश दे रहा आदमी
होगा जहां रोशन ,
मानवता को धर्म,
मान ले आदमी
……डॉ नन्द लाल भारती

तलाश/कविता
कविता की तलाश में ,
फिरता हूँ ,
खेत,खलिहान,बरगद की छांव ,
पोखर,तालाब बूढ़े कुएं ,
संपन्न शहर ,साधनविहीन गांवं
सामाजिक पतन ,भय,भूख ,
बेरोजगारी में झाकता हूँ ,
मन की दूरी ,
आदमी की मज़बूरी में ,
तकता हूँ ,
खाकी और खड़ी में तलाशता हूँ,
दहेज़ की जलन ,अर्धबदन ,
अत्याचार,आतंक ,
चूल्हे की आग ,
रोटी की गोलाई को ,
मापता हूँ ,
मूक पशुओ के क्रुन्दन ,
आदमी के मर्दन ,
ऊँचे पहाड़ ,नीचे मैदान में ,
उतरता हूँ
बैलगाड़ी की चाल ,
जहाज की रफ़्तार देखता हूँ,
गांव के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर
 चलता हूँ ,
शहर की सीमेंट -कंक्रीट की
 सडको में तलाशता हूँ,
कविता को हर कहीं,
 तलाशता हूँ ,
कही भी नहीं पाता हूँ ,
खुद के अंदर गहराई में ,
उतरता हूँ
कविता को ,
अनेको रूपो में पाता  हूँ ,
सच यही तो है ,
वह गहराई जहां से
 उपजती  है कविता ,
आत्मा की ऊंचाई और
दिल की गहराई से। …………डॉ नन्द लाल भारती