Saturday, June 29, 2013

बे-रहम ज़माने में /कविता

बे-रहम ज़माने में /कविता

परवर निगार सलाम तेरी हस्ती को
जिसमे मैं भी हूँ शामिल ,
कौन सी गुनाह की सजा दे दी
जनाब ने……
बना दिया हाशिये  का आदमी
भर दिया जीवन में दर्द ही दर्द
तेरी खुदाई के दुश्मनों ने
निरापद को कैसी सजा ने दिया
जनाब ने … …
जीत-जीत कर हारा पर हार ना माना
मिट जाये भले मेरी हस्ती
तेरी हस्ती कैसे भूला सकूँगा
परवर निगार यकीन तेरी खुदाई पर ................
कैसे अमानुष लोग
करते दर्द-आंसू का उपभोग
करता रहा कोशिशे ,आखिर में
टूटी कश्ती अमनुशो ने ढकेल दी
मझधार में ................
लूट गए अरमान,अपनी जहाँ के सारे
उपजे  थे जो श्रम की खाद और अश्रुधार से
हाल बेहाल,छीन लिए हक़ की पतवार
जनाब ने ....................
परवर निगार  इंसान बनाया है
पत्थर तो नहीं
ठोकरों का दौर बे मुददत जारी है
क्या यही किस्मत हमारी है .................
छोटे लोग,छीन्टा कशी का शोर
कैद नसीब का मालिक
भेद भरे जहां में मेरी कहा हस्ती है
तुमने भी आँखे मूँद लिया है
शिक्षित बनो संघर्ष करो हक़ के लिए
कलम  की पतवार थमा कर .........
परवर निगार मेरी साँसे
तेरी खैरात पर चलाती है
मेरी ख्वाहिश है
शोषितों के लिए जी सकूं पल-पल
चलता रहूँ  अपनी जहां में
हौशला की पूँजी भर देना
टाँकता रहू वक्त के भाल
शोषितों की दास्ताँ
बे-रहम ज़माने में .................नन्द लाल भारती 30-06-2013

Friday, June 21, 2013

आज भी ...
कल भी बेहाल था अपना गाँव
आज भी है
अपना गाँव सदियों पहले
तरक्की से बहुत दूर पड़ा था
अफ़सोस आज भी .............
कहने को आजादी है
पर ये कैसी आज़ादी है
बार -बार सवाल उठता है
जातिवाद ,भूमिहीनता ,गरीबी
अशिक्षा,बेरोजगारी ,पक्षपात ,
भ्रष्ट्राचार को लेकर
पर सब कुछ अनुत्तर आज भी ..........
भूमिहीन भय,भूख में जी रहे है
गाँव समाज की जमीन
पहुँच और दबंगों के कब्जे में है
आवंटन आज भी दूर है ...............
शोषित हक़ से वंचित है
हक़ की आवाज़ नहीं उठ रही है
बेहोशी की हालत में सब मस्त है
पग-पग पर मौजूद है
गम भुलाने का सामान
गांजा दारू की भरपूर है दुकान
पसरी है बेबसी अपने गाँव
आज भी .........................
मत पाकर मतवाले हुए लोग
बेसुध पद- दौलत के पहाड़ पर खड़े है
अपने गाँव के  उपेक्षित लोग
हक़-श्रम की लूट,दीनता के दर्द में
तड़प रहे है आज भी ……
अपने गाँव-देश के शोषितों की
नसीब कैद है
धर्म और राजनीति के ठीहे पर
आज भी ............
जातिवाद ,भूमिहीनता,नशाखोरी
गरीबी और दहेज़ के बोझ से दबा
तरक्की से दूर अपना गाँव
कल भी बेहाल था
ताक रहा है राह
सामाजिक समानता की,
भूमिहीनता के अभिशाप से उबरने की
आर्थिक तरक्की की
आज़ाद देश में आज भी .......डॉ नन्द लाल भारती/22.06.2012