Thursday, October 24, 2013

कविताyen

ज़िन्दगी /कविता
हे काल  तू ही ,गाल बजा दे ,
कब आएगी बहार ,
अदने की ज़िन्दगी में।
आह अपने बेगाने हो रहे है ,
माया से रिश्ते-नाते जुड़ रहे है।
अरमान वंचित-दीन के दफ़न हो रहे  ,
मर रहे सपने दिल में घाव बन रहे।
भाग्य -दुर्भाग्य में बदल रहा ,
आदमी -आदमी की तकदीर कैद कर रहा।
कर बंद तरक्की के रास्ते आदमी ने आंसू दिए,
अपराध खुद का तकदीर के माथे मढ दिए।
उम्मीदों को ग्रहण, थकता जा रहा
हिस्से आया पसीना नयन बरस रहा।
हे काल तू बता क्या से क्या हो गया ,
निचोड़ रहा हाड, सपना ताबा ह हो गया।
कैसी खता कमेरी दुनिया का आदमी ,
बहार से बिछुड़ गया ,
हे काल अब तो तू ही बता दे ,
कब आएगी बहार दीन वंचित ही ज़िन्दगी में।
डॉ नन्द लाल भारती
फ़रियाद /कविता
कर दिया फरियाद ,
भरे जहां में ,
आदमी को आदमी समझकर ,
दे दिया घाव ,
मतलब के तराजू पर तौलकर।
दर्द तो बहुत है ,
मतलबी दुनिया में यारो ,
जाति -धर्म, मतलब कर रहा चट ,
अरमान हजारो।
तभी तो पसीने में नहाया,
आंसू में रोटी गीला कर रहा ,
कमजोर आदमी
दूसरी और अभिमान की ,
शिखा पर बैठा
आदमी का खून  चूस रहा ,
दबंग आदमी।
घाव सहलाते हुए,
अपना मानने की लत मगर,
ना मिला सुनने वाला ,
पीते राह गए जहर।
लोभियों को नहीं रहा
फ़र्ज़ अब  याद,
मतलब भरे जहा में,
शोषित कहाँ करे फ़रियाद…?डॉ नन्द लाल भारती
अभिलाषा/कविता
अभिलाषा का दीप जलाये ,
तुमको ढूढ़ रहा हूँ ,
हे बुध्द भगवान ,
परमार्थ भूल गया ,
आज का इन्सान।
इंसानियत का चोल ,
है ,
छल-बल का,
अस्त्र थाम चूका है।
जाति -धर्म के नाम ,
सब कुछ जल रहा है वैसे,
असाध्य रोगी जिंदगी के लिए ,
तड़प रहा हो जैसे।
भगवान् बुध्द, महावीर,ईसा ,
एक बार साथ लौट आओ ,
समता की बुझती ,
ज्योति जला जाओ……….  डॉ नन्द लाल भारती




.........................................
मुसीबतों के बोझ बहुत ,
ढोये है,
खून के आंसू रोये है।
जमाने से घाव पाए है
कामयाबी से खुद को
दूर पाए है .
उम्र गुजर रही है
पत्थरो पर लकीर,
खींचते-खींचते ,
गुजर रहा है दिन,
संभावनाओ की ,
पौध सींचते-सींचते।
गम नहीं,
ना मिली कामयाबी
ना पत्थर पसीजा पाए
ख़ुशी है तनिक
काबिलियत के तिनके
रूप है पाए। … डॉ नन्द लाल भारती
............................................………… .

यादें /कविता

ये मृत्युलोक है प्यारे ,
माटी के ये पुतले ,
अमर नहीं हमारे।
हमसे पीछे बिछुड़े ,
हम भी  बिछुड़ जायेंगे ,
एक दिन सब ,
पञ्च-तत्व में खो जायेगे।
यादे ना बिसर पाएगी,
अच्छी या बुरी ,
यही रह जायेगी
बिछुड़ने का गम खाया करेगा ,
दिल मौके-बेमौके रुलाया करेगा।
जो यहाँ आये बिछुड़ते गए ,
सगे या पराये छोड़ गए यादे।
यहाँ कोइ नहीं रहा है अमर
आदमियत ना कभी मरी
ना पाएगी मर।
रहेगा ना अमर ,
औरो की काम आये
छोड़ना है जहां ,
नाम अमर कर जाए।
जीया जो दीन  शोषितों के लिए ,
नए नर से नारायण ,
हो जाएगा
मर कर भी अमर हो जायेगा।
डॉ नन्द लाल भारती




इंतज़ार/कविता
खाईयों को देखकर घबराने ,
 लगा हूँ ,
अपनो की भीड़ में ,
पराया हो गया हूँ।
दर्द से दबा,
गंगा सा एहसास नहीं पता हूँ।
आसमान छूने की तमन्ना पर ,
पर कुतरा पाता  हूँ।
पूर्वाग्रहों का प्रहार जारी है ,
भयभीत हूँ सदियों से ,
इस जहां में
मेरा कल ही नहीं ,
आज भी ठहर गया है,
रोके गए निर्मल पानी की तरह
सच मई घबरा गया हूँ,
विषधारा से।
डूबने के भय से बेचैन ,
बूढ़ी व्यस्था के आईने में
हाशिये पर पाता  हूँ..
बार-बार दिल पुकारता है ,
तोड़ दो ऐसा आईना जो ,
चहरे को कुरूप दिखता है ,
पर बार-बार हार जाता हूँ ,
हाशिये के आदमी के जीवन में
जंग जो है।
हर हार के बाद उठ जाता हूँ ,
बढ़ने लगता हूँ ,
परिवर्तन की राह ,
क्योंकि
मानवीय समानता चाहता हूँ
इसीलिए अच्छे कल के इन्तजार में
आज ही खुश हो जाता हूँ।
डॉ नन्द लाल भारती






अजनवी /कविता
अजनवी तो नहीं पर,
हो गया हूँ ,
वही,
जहां बसंत खो रहा है ,
जीवन का।
शहर की तारीफ अधिक भी ,
कम लगाती है
क्योंकि ऊँचा कद तो ,
इसी शहर का तो दिया है।
दुर्भाग्य नहीं तो और क्या  ?
जीवन निचोड़ कर जहां से
कुछ खनकते सिक्के पाता  हूँ ,
जहां पद की तनिक
ना पहचान ,
वही घाव पर घाव पाता  हूँ
योग्यता तड़प उठती है
कद घायल हो जाता है
वही।
बूढ़ी श्रेष्ठता का,
मान रखने वाले,
परखते हैं ,
अपनी तुला पर
और
बना देते है
निखरे कद को अजनवी।
पद दौलत से बेदखल भले हूँ
सकूंन  से जी रहा हूँ
शहर पहचान की छांव में
यही मेरा सौभाग्य है।
अजनवी हो सकता हूँ
लकीर खीचने वालो के लिए
पर ना यह शहर मेरे लिए
और
 ना मैं इस शहर के लिए
अजनवी………  डॉ नन्द लाल भारती









आसमान /कविता
पीछे डर आगे विरान है ,
वंचित का कैद आसमान है ,
जातीय-भेद की दीवारों में,
 कैद होकर
सच ये दीवारे जो खड़ी है
आदमियत से बड़ी है.
कमजोर आदमी त्ररस्ट है ,
गले में आवाज फंस रही है
मेहनत और योग्यता ,
दफ़न हो रही है
वर्णवाद का शोर मच रहा है
ये कैसा कुचक्र चल रहा है।
साजिशे रच रहा आदमी
फंसा रहे भ्रम में ,दबा रहे ,
दरिद्रता और
जातीय निम्नता के दलदल
बना रहे श्रेष्ठता का साम्राज्य
अव्थाहास कराती रहे ऊँचता
जातिवाद साजिशो का खेल है
यहाँ आदमियत फेल है
जमींदार कोई  साहूकार बन गया है
शोषित शोषण का शिकार हो गया है
व्यवस्था में दमन की छूट है
कमजोर के हक़ की लूट है
कोई पूजा का तो कोइ नफ़रत का पात्र है
कोइ पवित्र तो कोइ अछूत है
यही तो जातिवाद का भूत है।
ये भूत है जहां में जब तक
खैर नहीं शोषितों की  तब तक
आजादी जो अभी दूर है
अगर उसके द्वार पहुँचना है
पाना है छुटकारा ,
जीना है सम्मानजनक जीवन
गाड़ना है आदमियत की पताका तो
तलाशना होगा और कोई  आसमान।
डॉ नन्द लाल भारती



उम्र/कविता
वक्त के बहाव में ,
ख़त्म हो रही है उम्र,
हर एक जनवरी को जीवन का ,
एक और बसंत।
बची-खुची बसंत की सुबह
झरती रहती है ,
तरुण कामनाएं।
कामनाओं के झराझर के आगे ,
पसर जाता है मौन ,
खोजता हूँ
बीते संघर्ष के क्षणों में ,
 तनिक सुख।
समय है की थमता ही नहीं ,
गुजर जाता है दिन
करवटों में गुजर जाती है रातें
नाकामयाबी की गोद में ,
खेलते-खेलते
हो जाती है सुबह
कष्टों में भी दुबकी रहती हैं ,
संभावनाएं।
उम्र के बसंत पर
आत्म मंथन के रस्सा-कस्सी में
थम जाता है समय ,
टूट जाती है ,
उम्र की  बाधाएं।
बेमानी लगाने लगता है ,
समय का प्रवाह
और
डसने लगते है
ज़माने के दिए घाव ,
सम्भानावाओ की गोद में
अठखेलिया करता
माँ-अकुलाता है ,
रोज-रोज कम होती उम्र में ,
तोड़ने को बुराईयों का चक्रव्यूह
छूने  को तरक्की के आकाश।
डॉ नन्द लाल भारती



मधुमास/कविता
भविष्य के बिखरे पत्तो के निशान पर ,
आने लगा  है ,
उम्र का नया मधुमास,
रात-दिन हुए थे एक ,
पसीने बहे,खुली आँखों में सपने बसे ,
 वाद की शूली पर तंग गए अरमान ,
 पसीना मारे गए सपने
मरते सपनों की कंपित है साँस।
संभावना की धड़क रही है नब्जे ,
अगले मधुमास विहास उठे सपने ,
नसीब के नाम ठगा गया कर्म ,
मरुभूमि से उठती शोला की आंधी ,
राख कर जाती सपनों की जवानी ,
काँप उठता गदराया मन.
भेद की लपटों से सुलग जाता बदन.
तालीम का निकल चुका जनाजा
योग्यता का उपहास ,
सपनों का बजता नित बाजा ,
जीवन में खिलेगा मधुमास,
पसीने से सींचे
कर्मबीज   से उठेगी सुवास.
उजड़े सपनों के कंकाल से
छन कर गिरती परछाईं में
संभावनाओ का खोजता मधुमास ,
उमंगो पर लगा जाती-भेद का जादू-टोना
मरते सपने बने ओढ़ना और बिछौना।
संभावनाओ के संग जीवित उमंग
कर्म का होता पुनर्जीवित भरोसा ,
साल के पहले दिन
कर्म की राह गर्व से बढ़ जाता
संभावना की उग जाती कलियाँ ,
जीवन के मधुमास से छंट जाए आंधियाँ।
पूरी हो जाये वक्त के इस मधुमास ,
लुटे भाग्य को मिले उपहार बासंती
कर्म रहे विजयी ,
तालीम ना पाए पटकनी ,
जिनका उजड़ा भविष्य उन्हें मिले ,
जीवन का हर मधुमास ,
हो नया साल मुबारक ,
गरीब-आमिर सब संग-संग गाये गान
जीवन की बाकी प्यास ,
भविष्य के बिखरे पत्तो के निशान पर ,
छा जाये मधुमास। …………। डॉ नन्द लाल भारती






कैनवास/कविता
बीटिया बड़ी होने  लगी है
और
मेरा घर लगने लगा है ,
छोटा।
बीटिया  अंगुली पकड़ते-पकड़ते ,
उड़ान भरने लगी है
पीछे देखने पर लगता है ,
बौना हो गया है वक्त ,
नन्ही अंगुलियों का स्पर्श ,
कल की बात लगती है
बीटिया की सोच का कैनवास
बड़ा हो गया है ,
बढ़ते कैनवास को  देखकर ,
बढ़ने लगा है ,
मेरा आत्मबल।
बीटिया जमा करने लगी है ,
रंग ,
दुनिया सजाने के लिये।
खुद के खींचे खाके में ,
 भर देती है रंग ,
और
जीवंत कर देती है कल्पना
रह जाता हूँ मैं भौचक्का।
सोचता हूँ क्या …………?
वही गिर-गिर कर चलती
तुतलाती ,दीवार पर लकीर उकेरती
बीटिया है ,
जिसने थाम लिया है कूंची ,
और
भरने लगी है रंग,
 दुनिया के कैनवास पर.….डॉ नन्द लाल
भारती




उम्र का मधुमास /कविता
झाँक कर आगे-पीछे ,
देखकर बेदखली बेबसी की दास्तान ,
ढो  कर चोट का भार ,
पा कर तरक्की से दूर ,
लगने लगा है
गिरवी रख दिया उम्र का मधुमास।
ना मिली सोहरत ना मिली दौलत
गरीब के गहने की तरह ,
चाँद सिक्को के बदले ,
साहूकार की तिजोरी में
कैद हो गया उम्र का मधुमास।
पतझर झराझर उम्र के मधुमास
बोये सपने तालीम की उर्वरा  संग
सींचे पसीने से ,अच्छे कल की आस ,
बंटवारे की बिजली गिर पड़ी
भरे मधुमास।
सपने छिन्न-भिन्न ,राहे बंद
आहे भभक रही ,
ये कैसी बंदिशे,
साँसे तड़प-तड़प कह रही
किस गुनाह की सजा निरापद को
हक़ लूट गए भरे मधुमास।
तालीम की शवयात्रा, श्रेष्ठता का मान
दबंगता की बौझार,श्रम का अपमान
गुहार बनता गुनाह ,
सपनों का क़त्ल,
आज गिरवी कल से भी ना पक्की आस ,
डूबत खाते का हो गया
शोषित का मधुमास।
लहलहाता आग का तांडव
शोषित गरीब की नसीब होती नित कैद
उड़ान पर पहरे,संभावना पर बस आस
मन तड़प-तड़प कहता
ना मान ना पहचान ,
कहाँ गिरवी रख दिया ,
उम्र का मधुमास।
दीन शोषितो की पूरी हो जाती आस
नसीब के भ्रम से परदा हट जाता ,
मिलता जल-जमीन पर हक़ बराबर
तरक्की का अवसर सामान
ना  जाति -धर्म-क्षेत्रवाद की धधकती आग
मृत
शैय्या पर ना तड़पता मधुमास ,
ना तड़प-तड़प कर कहता
कहाँ गिरवी रख दिया ,
उम्र का मधुमास। डॉ नन्द लाल भारती






जीवन पथ/कविता
गिर-गिर कर चलने की जिद ने
सीखा  दिया है चलना ,
सिखने की जिद ने सीखा  दिया ,
ज़मीन पर पाँव टिकाना।
पाँव टिकाते-टिकाते ,
शुरू कर दिया
सपने भी देखना ,
देखते-देखते कर दिया है ,
साकार।
बिटिया के सपने ,
अब  हरने लगे  है ,
दर्द भी,
जीवन रक्षक दवाई की तरह।
कामयाबी की मिशाले तो अब ,
बदलने लगी है पुरानी  सोच ,
पाने लगे है आकार,
बेटा -बेटी एक सामान के विचार।
जाग चुका है जज्बा
कल्पनालोक रोशन करने का
बिटिया की उड़ान को देखकर ,
अब तो मन होता है कि ,
हर बेटी से कहूं
आ थाम लू तेरी अंगुली
और
चलना सीखाऊ जीवन पथ पर
जगा  दूं
जीवन के कैनवास पर
रंग भरने का जज्बा
क्योंकि
तुम हो तो रोशन है ,
ये दुनिया।  डॉ नन्द लाल भारती









शंखनाद  /कविता
कब तक दबाओगे आवाज़ ,
अब तो शंखनाद करने दो।
कब तक डंसेगा ,पुराना जख्म ,
अब तो पूज जाने दो।
अबला जीवन स्वीकार नहीं,
अब तो सबला  बन जाने दो।
घर-गृहस्ती का मान
 अमान्य नहीं 
अब तो नभ नाप लेने दो।
आरक्षण,
 ना कर पायेगा भला
खुद के पाँव खड़ी हो जान दो।
अधिकार हमें भी
आज़ादी का
अब तो थोंथी  बाते ,
बदल जाने दो।
क्या आंसू  पीकर ,
जीना ही नसीब है ,
अब तो मुक्ति पा जाने दो।
सीता-सावित्री का मुकुट भार नहीं
अब तो वक्त के साथ ,
चल जाने दो।
बहुत हुई अग्नि-परीक्षायें ,
और अब ना ,
बस अब तो पाँव टिकाने दो……… डॉ नन्द लाल भारती




मैं हारता चला गया /कविता
मैं हारता चला गया ,
चला राह ईमान ,फ़र्ज़ सेवा काम की
तबाह होती गयी मंजिले ,
उम्मीदों का खून होता चला गया ,
मैं हारता चला गया………
हार के बाद जीत की नई आशा
लहूलुहान संभलता चला गया
नया जोश नई उमंगें
घाव सहलाता चला गया
मैं हारता चला गया………
हार के बाद जीत की आशा
 रूठ-लूट सी गयी
 योग्यता बेबस लगने लगी
रिसते घाव पर
संतोष का मलहम
लगाता चला गया
मैं हारता चला गया………
जवान जोश संग  होश भी
बूढ़ी उम्मीदे सफ़ेद होती जटा
चक्षुओ पर मोटा ऐनक   डटा
मरता आज कल को फंसी की सजा
जहां में छलता चला गया
मैं हारता चला गया………
उम्मीदे मौत की शैय्या पर पडी
सद्काम -नाम बेनूर हो रहा
मृत शैय्या पर पड़े
भविष्य के सहारे
मरते सपनों की शव यात्रा
विष पीता -मरता चला गया
मैं हारता चला गया……… डॉ नन्द लाल भारती

अभिमन्यु की मौत/कविता
सब्र की खेती ,उम्मीदों की बदली
सूखने लगे उम्मीदों के सोते ,
वज्रपात कल का डरा रहा विरान ,
जहर पीकर कैसे जीये  कैसे सीये,
भेद-भरे जहां में बड़े दर्द पाए है ,
दर्द में जीना आंसू पीना ,
नसीब बन गया है।
तकलीफों के दंगल में
तालीम से मंगल की उम्मीद थी ,
वह भी छली गयी ,
श्रेष्ठता के दंगल में छल-बल के सहारे ,
अदना क्या अजमाए  जोर ,
जीना और आगे बढ़ने का जनून ,
मौन गिर-गिर उठाता कर्म के सहारे।
नहीं मिलता भरे जहां में कोई
आंसू का मोल समझने वाला
पकड़ा राह सधा- श्रम ,सपनों की आशा ,
खडी  भौंहे कुचल जाती अभिलाषा ,
ऐसा जहां है प्यारे,
स्वहित में परायी आँखों के सपने जाते है ,
बेमौत मारे।
ईसा,बुध्द और भी पूज्य हुए इंसान ,
कारण  वही जो आज है जवान ,
भेदभाव दुःख-दरिद्रता ,जीव दया, मानवहित ,
परपीड़ा  से उपजे दर्द को खुद का माना
किये काम महान ,
दुनिया मानती उन्हें भगवान।
वक्त का ढर्रा वही बदल गया इंसान
कमजोर के दमन में देख रहा
सुनहरा स्व-हित आज इंसान
दबंग के  हाथो कमजोर के सपनों का क़त्ल
अभिमन्यु के मौत समान
आओ खाए कसम ना बनेगे शैतान
ना बोएगे विष ना कमजोर का हक़ छिनेगे
मानवहित-राष्ट्रहित को समर्पित होगा जीवन
बनकर दिखायेगे परमार्थ  में सच्चा इंसान।
डॉ नन्द लाल भारती



निरापद/कविता
रात सो चुकी थी ,
मेरी आँखों से नींद दूर थी.
रह-रह कर करवटें
बदल रहा था ,
हर तरफ से भूत कोई
आँखों में उतर रहा था।
मैं आतंक से भयभीत था
लहू से रंगा खंजर हाथ में था
गैर नहीं कोई अपना ही था
दिल में लकीरों  का
ताना-बाना  था
अब घरौंदा  उजड़ने लगा था .
चहुतरफा
घेराव था ,
रिश्ते से लहू रिस रहा था।
भयभीत मैं,
 वह मुस्करा रहा था
मौजूद तबाही का पूरा ,
साजो-सामान था।
मैं सुलग रहा था
खुद के तन के ताप से ,
विजयी मुद्रा में
वह तर  बतर था जाम से।
बरबादियो का शंख ,
फूंक चुका था
,
मै  निरावाद जाल में ,
फंस चुका था।
रात चुप थी मैं बेचैन था,
कल से उम्मीद थी ,
आज से डर
था।
लहू का प्यासा,
 ताल ठोंक रहा था
उम्मीदों के बंजर को भारती
आंसुओ से सींच रहा था  …… डॉ नन्द लाल भारती







हमारी बेटियाँ /कविता
उगता हुआ सूरज शशि चाँद है ,
हमारी  बेटियाँ ,…………।
जमाने की बहार ,
सौभाग्य है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
नभ के तारे ,धरा की शान है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
बसंत है बहार है
रिश्ते की आन-मान है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
सभ्यता ,समाज के उजली
पहचान है
हमारी  बेटियाँ ,…………।
अफ़सोस कहीं भ्रूण हत्या
तो कही जलाई जा रही
हमारी  बेटियाँ ,…………।
भारती करें कठोर प्रतिज्ञा
बचाए आन-मान -पहचान
जो है
हमारी  बेटियाँ ,…………डॉ नन्द लाल भारती




कैसा धर्म /कविता
आजकल शहर खौफ में
जीने लगा है ,
कही दिल तो कही
आशियाना जल रहा है।
आग  उगलने वालो को,
भय लगाने लगा है .
तभी तो शहर चैन खोने लगा है।
धर्म के नाम पर ,
लहू का खेल होने लगा है।
सिसकियाँ थमती नहीं ,
तब तक नया घाव होने लगा है।
कही भरे बाजार तो कही चलती ट्रेन में,
 धमाका होने लगा है
आस्था के नाम पर,
लहू कतर-कतर होने लगा है।
कैसा धर्म ,धर्म के नाम
आतंक होने लगा है ,
लहुलुहान कायनात
धर्म बदनाम होने लगा है।
आसूओ का दरिया,
कराहने का शोर पसरने लगा है ,
धर्म के नाम बाटने वालो का
जहां रोशन होने लगा है ,
आसॊओ को पोंछ भारती
आतंकियों को ललकारने लगा है
धर्म सदभाव बरसाता ,
क़त्ल क्यों होने लगा है
आजकल शहर
 खौफ में जीने लगा है। डॉ नन्द लाल भारती






आओ चलो हमारे गाँव /कविता
आओ चलो हमारे गाँव,
सिसकता गाँव दिखता हूँ ,
विकास की विरान ,
तस्वीर दिखता हूँ ,
वंचित मजदूरों की बस्ती में ,
चिथडों में सम्मानित ,
लाज दिखता हूँ ,
पेट पीठ से कैसे लगता
पहचान कराता हूँ ,
छुआछुत का कैसे
पालथी मारा है कोढ़
मसीहाओ की खुल जाएगी पोल,
भय-भूख दीनता में ,
सॉत-जागता है गाँव,
असली तरक्की के नहीं पड़े है पाँव ,
झूठे है सारे आकड़े ,
धधक रहा है ,
तरस रहा है चौथा कुनबा
चलो तहकीकात करता हूँ ,
कैसा होता ,
मरते सपनों का दर्द,
कैसा होता दर्द से उपजा ,
नयन नीर
कैसे गरमाता चूल्हा ,
दृष्टिदान करता हूँ
चलो हमारे साथ ,
जहां होती हरदम सांझ
ऐसे गाँव  दिखाता हूँ ………………
डॉ नन्द लाल भारती

देखो आदमी बदल रहा है /कविता
देखो आदमी बदल रहा है,
आज खुद को छल रहा है ,
अपनों से बेगाना हो रहा है
मतलब को गले लगा रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.…………
और के सुख से सुलग रहा है
गैर के आंसू पर हंस रहा है ,
आदमी आदमियत से दूर जा रहा है ,
देखो आदमी बदल रहा है.………………
आदमी आदमी का नहीं हो रहा है
आदमी पैसे के पीछे भाग रहा है
रिश्ते को रौंद रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
इंसान के बस्ती में भय पसर रहा है
नाक पर स्वार्थ का सूरज उग रहा है
मतलब बस छाती पर मुंग दल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
खून का रिश्ता घायल हो गया है
आदमी साजिश रच रहा है
आदमी मुखौटा बदल रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
दोष खुद का समय के माथे मढ़ रहा है ,
मर्यादा का सौदा कर रहा है
स्वार्थ की छुरी तेज कर रहा है
देखो आदमी बदल रहा है.………………
डॉ नन्द लाल भारती







स्नेह विनय-अनुनय आज़ाद-अनुराग है बेटियाँ ,
धरती की साज रीति-प्रीति बासंती राग हैं  बेटियाँ।
…………………।
अनुराग अलौकिक,  माँ-बाप की स्वाभिमान है    बेटियाँ ,
 रिश्ते की डोर  भाई के माथे की चन्दन-तिलक है बेटियाँ।
……………
परिवार घर-मंदिर की फुलवारी है बेटियाँ ,
सच त्याग और  स्नेह की मूरत है  बेटियाँ।
…………………
बेटी है तो जीवन के हर पल बसा है बसंत,
बिन बेटी जीवन पतझड़ और रिश्तो का अंत ।
............
बेटी है तो रिश्तो में  उजला स्व-मान है ,
बसंत बयार बेटी, जीवन की  वरदान है ।
…………
डॉ नन्द लाल भारती /11. 10. 2013



देश-जन हित में ,बह रहे पसीने को ,जीवन की एक-एक बूंद कहना ,
खुदा की कसम अपनी जहां वालो, श्रमवीर को देव-तुल्य समझना ।
……………….
जीवन नईया  हाथ तुम्हारे बलिहारी
नर पिशाच निगाहे लाज रखना बनवारी।
…………………
हम तो बस मुसाफिर है    यारो  सांस  तक चलते है जाना ,
मतलबी लोग तम घनघोर मुश्किल  सफ़र पर पार है जाना ।
…………
जीवन बगिया में अपनी हादशे हुए , हो रहे निरंतर ,
कैद  नसीब,लूटते हक़ को बचाने के फेल सब मंतर  ।
……………….
नदियाँ  ढो -ढो  कर शहर की गन्दगी बन रही गंदे  नाले ,
अम्बर बौखलाता अब कही ये  प्रदूषण जीवन ना खा ले। 
------------------------
डॉ नन्द लाल भारती /09. 10. 2013
बेटियाँ जीवन सार हैं यारो
सुखद अनुभूति हजारो ,
धरती की है ऋतु बसंत  ।
रिश्ते की आन-मान शान ,
खौफ खाओ खुद से यारो ,
ना करो कन्या भ्रूण का अंत।।
डॉ नन्द लाल भारती /10. 10. 2013