Sunday, May 25, 2014

चाहत /कविता

चाहत /कविता
टूटा दिल  हजारो बार लूटा भाग्य अपनी जहां में
वो ना मिली चाह थी सदियों से जिसकी यारो
बेपनाह चाहत आज भी है उसी से
क्या क्या  ना हुआ ,आहे भरे नयनो से लहू तक बहे
कुर्बान हूँ आज भी उसी पर अपनी जहां में………।
सितम सहे लाखो दुःख में जीया दर्द पीया
पल-पल जहर भी मिला ,
हाय रे चाहत ना टूटा सिलसिला अपनी जहा में.………।
राह में कांटे फिजा में विष झोकने वालो
तुम्हारी जहा तुमको मुबारक
तुम तो कातिल रह गए भरी जहा में
तुम्हारी साजिशों की प्रेत छाया ,
मैं टूटी डाल का पंछी ,
नसीब कब्रस्तान बना दिया तुम्ही ने
मेहनत का चीर-हरण कर कर डाला तुम्ही ने
आदमी को दलित अछूत बना  दिया ,
इंसानियत के दुश्मनो ने भरी जहा में.………।
नहीं माना उनकी आदमखोर सत्ता
कतरा -कतरा फना होती रही ज़िन्दगी
पाषाण पर निशान छूटते  रहे अपने भी
नसीब और आदमियत के कातिल
लूटते रहे सपने बोते रहे विष बीज ,
भरी जहा में.………।
मर-मर कर  जिया पर न मरी उसकी चाह
सदियों से संघर्षरत आज भी जी रहा हूँ ,
साजिशो का जहर पीकर भी
महबूबा यानि मानवीय समता खातिर
चाह में उसकी हर दर्द सीते ,
टूटा दिल लिए दर-ब-दर आज भी
धर्माधीशों -राजनैतिक सत्ताधीशो ,
जागो उठो, आगे बढ़ो आह्वाहन करो
जातिवाद से परे ,मानवीय समानता का
अपनी  जहा में.………। डॉ नन्द लाल भारती 24.05.2014  

Saturday, May 10, 2014

हर दर्द पीये जा रहा हूँ /कविता

हर  दर्द पीये जा रहा हूँ /कविता
तथाकथित चौथे दर्जे का दंड
भेद भरी जहा मे
ये हो गया है कि
मै और मेरी वफ़ा पर
फ़ना  होने की  जिद
ना जाने क्यों  भा नहीं रही  ..........
मैं हूँ कि
लहूलुहान टूट-टूट कर भी
ख़ुद्दारी पर मरे जा रहा हूँ हर पल
पत्थर  दिलो पर
दूब उगाने की जिद मे
आज-कल स्वाहा किये जा रहा हूँ,
भेद भरी जहा मे ..........
लोग है  कि बोये जा रहे है
विष-बीज निरन्तर
खबरदार मै भी
अस्तित्व  की रक्षा के लिए
हूँ संघर्षरत आँख खुली तब से ही…………।
अस्तित्व ही तो अपनी पूंजी है
बाकी सब कुछ तो लूट लिया है
हक़ ,नसीब ,
आदमी होने तक का सुख भी
भेद भरी जहां वालो ने ………।
भेद भरी जहां मे,
इतना सा  ख्वाब है
आदमी होने क हर सुख मिले
यही  ख्वाब लिये
आदमी का दिया हर दर्द
पीये जा रहा हूँ
भेद भरी जहां मे जिये जा  रहा हूँ…………।
डॉ नन्द लाल भारती
15 -एम  वीणा नगर ,इंदौर -452010
 11 मई  2014

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Friday, May 9, 2014

फ़र्ज़ पर फना हुये जा रहा हूँ /कविता

फ़र्ज़ पर फना हुये जा रहा हूँ /कविता
वही खौफ डंसता रहता है
जहां उम्र के बीते मधुमास
लगना तो चाहिए  था स्वर्णिम अच्छा
पर ऐसा नहीं हो सका,
अपनी  भेद भरी जहां  मे।
चाहा था जोड़ लूंगा स्वर्णिम रिश्ता तालीम ,
लगन और कर्म से
गढ़ दूंगा पहचान था विश्वास
खौफ के साये, टूटती चली जा  रही आस ।
महत्व ,गतिशीलता और उद्देश्य
नहीं निखर सके योग्य होकर भी
ऐसे में कैसे,
अच्छा लग सकता है
जिम्मेदारियां  है मज़बूरियां है
भेद भरी अपनी जहॉ मे जीने की,
तभी तो खौफ मे ,
जीवन के  मधुमास का ज़ारी है   हवन
पल-पल भेद का विषपान करते हुये भी।
जानता हूँ पहचानता हूँ
पीछे के भयावह कब्रस्तान को
आगे आग उगलते रेगिस्तान को
जहां कर्म योग्यता तालीम को मान नही
वर्ण के नाम बदनाम वही
विशेषता श्रेष्ठता पहचान वर्णिक अभिमान
यही ठगा -ठगा संघर्षरत हूँ
जहा उम्र के मधुमास हुये विरान
वही फ़र्ज़ पर फना हुये जा रहा हूँ
डॉ नन्द लाल भारती
15 -एम  वीणा नगर ,इंदौर -452010
  10 मई  2014

संकल्प/कविता 
नित बे-मौत मरते सपनो
का बोझ थामे
कल की अभिलाषा मे ,जहां खड़ा पड़ा हूँ ,
उम्र के दर्जनों बसंत विरान हुये है वही
विक्षिप्त भी बुध्दिमान हुये और
ऊपर तक उठ गये वही,
अयोग्य योग्य हुए योग्य तो तरक्कियो पर
कब्जा तक कर लिये जैसे
जातीय योग्यता के तड़के से ,
ऐसा नहीं कि मै अयोग्य हू
तालीम,योग्यता ,बाह्य दुनिया के
दिए गए मान-सम्मान की पूँजी भी है
मेरे पास वही मेरी ताकत
फ़र्ज़ पर फना होने का हौशला भी
फिर भी अयोग्य हो गया हू ,
अपनी जहां मे शोषित पीड़ित
तरक्की से दूर फेंका हाशिये का
आदमी हो गया हूँ
इस सब की पुख्ता वजह भी है
वर्णिक बूढ़ी कुव्यवस्था ,
इस कुव्यवस्था  और इसके पहरेदारों ने
छिन लिय है आदमी होने का सुख
छाती पर रख दिया टनो बोझ
शोषण ,अत्याचार ,गरीबी ,भूमिहीनता
बेरोजगारी और जातिवाद का
दहकता हुआ दर्द
फिर भी मै और मेरी अभिलाषा 
जीवित है और रहेगी
क्योंकि शिक्षित हूँ संघर्षरत हू
यही मेरा संकल्प है वही मै भी  हूँ …………
डॉ नन्द लाल भारती
15 -एम  वीणा नगर ,इंदौर -452010
9 मई  2014


उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे /कविता
बंद मुट्ठियाँ  फ़ैलने क्या लगी ,
कि
मुर्दाखोर दृष्टि बिछाने मे ,
जुट गयीं जाल ,
लाख उद्यम के बाद भी
 सुरक्षित नहीं  रहा अपनी जहाँ मे ,
मान-सम्मान और अधिकार
लूट गये हक और नसीब भी
दमन ,शोषण के
तमाम औजारो के साथ
तन गयी
आदमियत विरोधी सरहदें भी
फैलती हथेलियों पर
धार्मिक सुलगते सलाखों से
लगा  दिया गया ,
अछूत होने का ठप्पा
उद्यम के माथे थम गयी बदनसीबी
ताकि बनी रहे सत्ता
भय-भ्रम -भूख के चक्रव्यूह मे
फंसे शोषित हाशिये के अछूत  लोग
बने रहे गुलाम
ये अपनी जहां वालो
अब तो आगे आओ
बंद मुट्ठियों को फ़ैलने दे
उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे
वक्त आ गया है
आदमी को आदमी समझने का
तोड़ने का सामाजिक-आर्थिक
विषमता की हर सरहदे
उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे ..........
डॉ नन्द लाल भारती
 15 -एम  वीणा नगर ,इंदौर -452010
7  मई  2014

Thursday, May 8, 2014

उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे /कविता

उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे /कविता
बंद मुट्ठियाँ  फ़ैलने क्या लगी ,
कि
मुर्दाखोर दृष्टि बिछाने मे ,
जुट गयीं जाल ,
लाख उद्यम के बाद भी
 सुरक्षित नहीं  रहा अपनी जहाँ मे ,
मान-सम्मान और अधिकार
लूट गये हक और नसीब भी
दमन ,शोषण के
तमाम औजारो के साथ
तन गयी
आदमियत विरोधी सरहदें भी
फैलती हथेलियों पर
धार्मिक सुलगते सलाखों से
लगा  दिया गया ,
अछूत होने का ठप्पा
उद्यम के माथे थम गयी बदनसीबी
ताकि बनी रहे सत्ता
भय-भ्रम -भूख के चक्रव्यूह मे
फंसे शोषित हाशिये के अछूत  लोग
बने रहे गुलाम
ये अपनी जहां वालो
अब तो आगे आओ
बंद मुट्ठियों को फ़ैलने दे
उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे
वक्त आ गया है
आदमी को आदमी समझने का
तोड़ने का सामाजिक-आर्थिक
विषमता की हर सरहदे
उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे ..........
डॉ नन्द लाल भारती
 15 -एम  वीणा नगर ,इंदौर -452010
7  मई  2014