Monday, December 21, 2015

हमने देखा है /कविता

हमने देखा है /कविता 
अपनी जहां में हमने देखा है 
जातिभेद में डूबे शैतान को 
उंच-नीच के  तूफ़ान को 
हाशिये के आदमी की 
ज़िन्दगी में 
आग लगाते हैवान को 
जी हाँ हमने देखा है  ........... 
अपनी जहां में हमने देखा है 
शोषित आदमी की कैद करते 
नसीब 
लूटते अरमान को 
शोषित आदमी की ज़िन्दगी 
आग का दरिया सिर पर 
तेज़ाब के बोझ को 
दर्द में जीते आंसू से 
ज़िन्दगी सींचते शोषित को 
जी हाँ हमने देखा है  ........... 
अपनी जहां में हमने देखा है 
हुनर की दुत्कार को 
योग्यता के बलात्कार को 
जातिवाद के ठीहे पर 
आदमियत के क़त्ल को 
सच कहूँ शोषित आदमी के 
साथ हुए हर जुल्म को 
जी हाँ हमने 
अपनी छाती पर होते हुए देखा है ........... 
डॉ नन्दलाल भारती 22.12  2015 

Sunday, December 20, 2015

आदमियत का गीत /कविता

आदमियत का गीत /कविता 
मैं अदना अपनी जहां का सिपाही बस 
मेरी चाह नहीं मैं 
राजपाट का मालिक बन जाऊं 
वैभव के  शीर्ष बैठ इतराऊं,……… 
बस अदने की चाह  इतनी सी 
सब गले मिले,सबको गले लगाऊं 
ना करे कोई विष की खेती,
ना डँसे जातिभेदका  विषधर 
संग संग चलो आगे बढ़ो
अपनी चाह यही प्यारे 
अपनी जहा गाए,मैं भी सुर  मिलाऊँ  
सब गले मिले,सबको गले लगाऊं……… 
जाति भेद  किया बहुत बिनाश 
अमानुषता के दाग को धो डाले 
जहाँ के माथे ,समता का रंग रच डाले
अपनी जहां का इसी में कल्याण 
यही गुहार लगाऊं 
अपनी चाह  नहीं कि मैं 
वैभव के  शीर्ष बैठ इतराऊं……… 
अप्पो दीपो भवः का भान 
देश धर्म अपना 
राष्ट्र धर्मग्रन्थ हो संविधान 
राष्ट्र और जनहित में फ़र्ज़ निभाये 
समतावादी समाज का  करे शंखनाद 
क्या छोटा क्या बड़ा 
भेदभाव तज  सब गले मिले,
सबको गले लगाऊं ……… 
चाह नहीं वैभव के शीर्ष बैठ इतराऊँ 
समता सदभावना की बयार 
जातिवाद का ना हो विवाद 
भारतवासी यही  पहचान यही बताऊँ 
 आदमी हूँ 
आदमियत का गीत  सुनाऊँ……… 
डॉ नन्दलाल भारती 21  .12  2015 

ये फिजाओं तुम तो गवाह हो

ये फिजाओं तुम तो गवाह हो 
मेरी तार-तार ज़िंदगी 
और इस के कारणों की भी 
अपनी जहां में 
कैद नसीब का मालिक 
हाशिये का आदमी हो गया हूँ
ये फिजाओं तुम,
नसीब के दुश्मनो से कह देना 
मैं जीना सीख गया हूँ……… 
परजीवी हमारे लहू पर पल कर 
हक़ लूट कर अछूत कह रहे है
तनिक संभावना संविधान से 
उसे भी झपट रहे,
नहीं चाहिए आरक्षण
संरक्षण की हम गुहार कर रहे 
दिखा दो हिम्मत 
बाँट दो हमारी तादात के अनुसार 
राष्ट्र सम्पदा धरती 
समता का अधिकार 
सदियों से मांग रहा हूँ 
अब तो आज़ाद देश में 
हवा पीकर जीना सीख रहा हूँ ……… 
डॉ नन्दलाल भारती 12.12  2015 

 


उनसे कह देना कोई /कविता

उनसे कह देना कोई /कविता 
उनसे कह देना कोई 
मैं हारा नहीं और हताश होकर मरा नहीं 
उन मुर्दाखोरो की लाख कोशिशो से भी 
मुर्दाखोरो को पसंद था 
मेरा सुलगता आज-कल और 
मेरी आँखों के झरते  आंसू 
जो कभी झरे  ही नहीं 
मैं आज भी जीवित हूँ,अपनी सांस पर 
धिक्कारता हूँ आज भी,
मुर्दाखोरो की विरासत को 
जो आदमी को आदमी नहीं,अछूत मानती है 
उनसे कह देना कोई 
अप्पो दीपो को अपनाकर  
मैंने  भी अपनी जहां  बना ली है 
मुर्दाखोरो के दिए दर्द को मथकर
दर्द से उपजी उम्मीदे,राह दिखाने लगी है 
मुर्दाखोरो से कोई कह दो 
आदमियत की राह धर लो  
मुर्दाखोरी के आतंक में कब तक 
यौवन धरे रहोगे ,
अरे मुर्दाखोरो 
अब तो दुनिया भी तुम पर  थूकने लगी है……… 
डॉ नन्दलाल भारती 19 .12  2015 


Tuesday, October 27, 2015

रावण का दहन बंद करे

रावण  का दहन बंद करे 
रावण के पुतले का दहन क्यों 
जलाना है 
तो अपने मन में बैठे
रावण को जलाओ ........ 
छुआछूत जातिवाद ,दहेज़ दानव 
भ्रष्ट्राचार के रावण को जलाओ ........ 
जलाना है तो 
समानता सदभाना का 
दीप जलाओ 
राष्ट्र और संविधान के प्रति 
श्रध्दा की 
अमर ज्योति जलाओ ........ 
रावण का पुतला जलाना 
समय श्रमशक्ति, गाढ़ी की 
बर्बादी है ........ 
जबकि भूखी प्यासी तरक्की से 
दूर देश की गरीब आबादी  
आओ रावण के पुतले का 
दहन बंद करे 
छुआछूत जातिवाद ,दहेज़ दानव 
भ्रष्ट्राचार आदि बुराईयो के ,
दहन का प्रारम्भ करे। ........ 
डॉ नन्दलाल भारती  22.10 2015  

दलितों अब तो जागो /कविता

दलितों अब तो जागो /कविता 
अपनी जहा जो 
सोने की चिड़िया थी कभी 
वही जहां मुर्दाखोरो की 
बस्ती हो गयी है 
शासन हुआ बौना 
दलितों  की ज़िंदगी 
सस्ती हो गयी है ........
अपने मन में मलाल 
आँखों से आंसू झरते है 
कभी थ्रेसर में पिसते 
कभी आग में भस्म होते
कही माँ-बहनो के  आबरू को 
मुर्दाखोर नोचते 
अट्टहास करते है ........
कौन युग में पहुंच गयी 
अपनी जहाँ 
दलितों के लहू के प्यासे 
मुर्दखोर यहाँ 
दलितों के दमन का कारण 
जातिवाद 
दलितों रूढ़िवादी धर्म से उपजी 
जाति को त्यागो ........
दलितों अब तो जागो 
जातिवाद का झमेला त्यागो 
दलितों संगठित हो जाओ 
अपनी जहां
अपना अस्तित्व बचाओ........ 
दलितों चेतो '
वरना अपनी जहा जो 
सोने की चिड़िया थी कभी 
वही जहां मुर्दाखोरो की 
बस्ती बनी रहेगी 
तुम्हारा हक मान-सम्मान 
तुम्हारी ज़िंदगी मुर्दाखोरो के लिए 
खिलवाड़ का सामान बनती  रहेगी........ 
 डॉ नन्दलाल भारती  22.10 2015   

कर दो प्रतिकार /कविता

कर दो  प्रतिकार /कविता 
दलितों की ज़िन्दगी कुत्तो बिल्लियों 
जैसी सस्ती कैसे हो गयी 
कर्मवीर,श्रमवीर,भाग्य विधाता 
राष्ट्र का असली वारिस 
धरती से अपनी प्रथम 
सूर्योदय के दिन से है नाता ……… 
दलित कोई विदेशी संतान नहीं 
अपनी जहाँ की मॉंटी का है थाती 
अपनी जहां अपना आसमान,
अनुरागी की जीवन बाती 
साम,दंड भेद की बदौलत 
हजारो सालो से  पी रहे लहू 
शोषक आक्रमणकारी 
नहीं लगी लगाम
लोकतंत्र के युग में भी 
आज भी घिनौना खेल है जारी ……… 
ज़िंदा जलाया जाता है,
थ्रेसर में पिसा जाता है 
मान-सम्मान हक-अधिकार 
लूटा जाता है 
फिर भी रखता है
अनुराग अलौकिक अपनी जहां पर 
शोषित दमित दलित 
शोषण का जहर पीकर 
अपनी जहां में जीता है ……… 
कल मिलेगा सम्मान,समतावादी समाज 
यही होती है इंतजार 
पर क्या वो कल नहीं आता 
मिल जाती है सपने बोन की सजा 
जला दिया जाता है जिन्दा 
मुर्दा की तरह 
मुर्दाखोर जश्न मनाते 
अट्टहास करते है 
अपने गुनाह को छिपाने की साजिश रचते है 
दलितों को कुत्ता बिल्ली कहते है ……… 
दलितों  कब तक पीओगे 
अत्याचार शोषण का जहर 
संगठित हो,जागो ,उठो 
और आगे बढ़ो 
नोंच कर फेंक दो
रूढ़िवादी जाति -धर्म का मुखौटा 
कर दो  प्रतिकार 
अपनी देश अपनी मांटी 
अब तो ले लो अधिकार ……… 
 डॉ नन्दलाल भारती  22.10 2015  

मुर्दाखोरो की बस्ती में/कविता

मुर्दाखोरो की बस्ती में/कविता 
मुर्दाखोरो  की निगरानी में,
छाती पर मरते सपनो का बोझ 
जीवन असुरक्षित हो गया है 
श्रमफल का चीरहरण ,
हक़ का क़त्ल ,
योग्यता का बलात्कार होने लगा है ........
नफ़रत-भेद ,वादो -विवादों का तांडव 
मुर्दाखोरो के बस्ती 
बन चुकी है   कब्रस्तान 
लूट गयी नसीब
मुर्दाखोरो की जहां  में 
ऐसी खूनी जहां को 
अलविदा
 कहने को मन कहने लगा है ........
मुर्दाखोरी की चौकसी गिध्द निगाहें 
शोषित हाशिये के कमजोर आदमी के 
लहू पर टिकी है 
श्रम की उपज हो या कर्म का प्रतिफल 
या योग्यता की दमक 
या जीवन की तपस्या 
मुर्दाखोरो की टोली बोटी-बोटी 
नोचने पर लगी है ........
शोषित हाशिये के आदमी का 
ना कल था ना आज है 
लगता है ना कल रहेगा सुरक्षित 
शोषित हाशिये के लोग
हर और बेदखल है ........
कौन सुने गुहार 
अपनी जहां
मुर्दाखोरो का ठिकाना हो गया है 
शोषित हाशिये के लोगो का 
सांस भरना मुश्किल हो गया है  
मुर्दाखोरो की बस्ती में 
हाशिये के आदमी की 
नसीब का कत्ल 
योग्यता का बलात्कार होने लगा है ........
डॉ नन्द लाल भारती 
13.10.2015     

दर्द आदमी का नहीं , उसकी कायनात का होता है /कविता .......

दर्द आदमी का नहीं ,
उसकी कायनात का होता है /कविता ........
दर्द कोई सार्वजनिक घोषणा नहीं 
और नही 
हमदर्दी बटोरने का कोई जरिया 
दर्द तो मन की तड़पन ,बदन के मर्दन की 
ह्रदय की कराह से उपज ,दंश होता है दर्द ............
दर्द दैहिक हो,दैविक हो ,या भौतिक हो 
दर्द अचानक मिला  हो 
 लापवाही या  खुद की गलती 
अथवा किसी कि  बेवकूफियों से 
मिले जख्म से उपजा हो दर्द 
परन्तु  दर्द  दर्दनाक होता  है ............
छाती या तन के किसी हिस्से का हो
दर्द शरीर के इतिहास भूगोल को 
बिगाड़ देता है 
मन को आतंकित कर 
नयनो को निचोड़ देता है 
हर जख्म से उपजा दर्द ...........
सच दर्द एक तन एक मन 
अथवा  एक व्यक्ति का नहीं रह जाता 
परिवार मित्र समूह
सगे  सम्बन्धियों  
का हो जाता है दर्द...........
दर्द की कई वजहें हो सकती है 
आकस्मिक दुर्घटना ,आतंकवाद, जातिवाद 
नारी उत्पीड़न शोषण अत्याचार 
और भी कई वजहें 
दर्द का असली एहसास तो 
उसी को होता है सख्स जो
मौत को छाती से गुजरते देखा होता है   ..........
जख्म चाहे जैसी हो 
हर जख्म  दर्द लिए होती है 
दर्द में दहन होता है 
दर्द का बोझ ढोने वाले शख्स के 
जीवन के पल,टूटते है उम्मीदों के बांध ..........
बहती है गाढ़ी कमाई बाढ़ के पानी ककी तरह 
थकता है हारता है मन 
टूटता है बदन कराह के साथ 
निचुड़ते है  कायनात के नयन 
आखिर में जीतती है हौशले की उड़ान 
सच सुकरात हो गए महान ..........
दर्द के उमड़ते सैलाब के  दौर में 
ना पीये कोई जहर का घूँट 
ले ले संकल्प, 
ना बने हम  किसी के दर्द का कारण 
इंसान है इंसानियत खातिर 
हो सके  तो करें निवारण 
क्योंकि दर्द बहुत दर्द देता है 
दर्द एक आदमी का नहीं ,
उसकी कायनात का होता है .........
 डॉ नन्दलाल भारती  30 09 .2015   


Wednesday, September 23, 2015

ओल्डएज होम/कविता

ओल्डएज होम/कविता 
अरे नव जवानो धर्म-कर्म काण्ड त्यागो 
धरती के जीवित भगवान को पहचानो 
ओल्डएज होम का पता पूछना उनका 
तुम्हारी उड़ान पर सवाल खड़ा कर रहा है 
धरती का भगवान क्यों बेघर हो रहा है ……
कापते हाथ,आँखों में अँधियारा,
लूटाया जीवन का बसंत तुम्हारे लिए
वही नाथ अनाथ हो रहा है
दर्द में जीया,स्वर्णिम भविष्य सीया
किस गुनाह की सजा ,
धरती का भगवान छाँव ढूढ़ रहा है ……
कितने हो गए मतलबी ,
पत्थर के सामने सिर पटकते अब
जीवित भगवान बोझ लग रहा है ,
घुटने बेदम लिए
वही शाम ढले सहारा खोज रहा है ……
जाए कहा लाचार कब्र में पाँव लटकाये
ओल्डएज होम का पता पूछ रहा है
ये उड़ान , ऊॅंचा मचान देंन किसकी
श्रम से बोया लहू से सींचा ये मुकाम किसका
स्वार्थ के सौदागरों सोचो जरा
क्या गुनाह, वही भगवान बेबस आज
दर्द का जहर पी रहा है ……
धरती के जीवित भगवान माँ-बाप
मान दो सम्मान दो,ढलती शाम में ,
भरपूर छाँव दो ,
वक्त पुकार रहा है
नव जवानो धरती के भगवान को पहचानो
ना खोजे ओल्डएज होम का सहारा वे
खा लो कसम ,ना हो
धरती के भगवन का निष्कासन
वक्त धिक्कार रहा है
ये अदना गुहार कर रहा है……
डॉ नन्द लाल भारती 23 .09. 2015

Saturday, September 5, 2015

दर्द /कविता

दर्द /कविता 
दर्द दांत का अकेला नहीं होता 
सिर्फ दांत में 
कैद कर लेता है पूरा बदन 
दर्द दांत का, छेद डालता है 
खूनी खंजर के  जख्म जैसे 
नाक ,कान ,आँख 
ऐठन डाल देता है 
गर्दन में ………… 
झूठ नहीं सच है 
दर्द भोगने वाले जानते है  
काया काँप उठती है 
अतड़िया तड़प उठती है 
दांत के दर्द में ………… 
छीन जाता है सकून 
पेट में भूख का 
झोंका उठता रहता है 
दांत इजाजत नहीं देते 
जब होता है दर्द दांत में ……
होती है तो बस जदोजहद 
ज़िन्दगी पतझड़ हो जाती 
बसंत में भी 
पलके  रिसने लगती  है 
जब जब उठता है 
दर्द दांत  में …………
सच ऐसे ही दर्द का ,
जीवन हो गया है 
हाशिये के आदमी का 
स्नेह का झोंका तनिक 
सकून दे जाता है 
दर्द में कैद  आदमी को …………
उपचार जब  मिल जाता है 
बेपटरी ज़िंदगी 
पटरी पर दौड़ पड़ती है 
काश 
भारतीय समाज में 
जातिवाद से उपजे 
भयावह दर्द का
पुख्ता इलाज हो जाता …………
हाशिये के आदमी का 
जीवन हो जाता सफल-समान 
दौड़ पड़ता अदना भी 
विकास के पथ पर सरपट 
जातिवाद रूपी 
दांत के दर्द की कैद से छूटकर  
सदियों से जो दर्द 
पालथी मार बैठा है
भारतीय समाज में …………
डॉ नन्द लाल भारती 01.09. 2015 

Wednesday, June 24, 2015

आस्था/कविता

आस्था/कविता 
रूढ़िवाद,खूनी कर्मकांड,जातिवाद ,
भेदभाव का विरोधी हूँ
परन्तु 
इसका ये मतलब नहीं कि 
विशुद्ध नास्तिक हूँ ,............. 
मानता हूँ तो एक परमसत्ता को 
आस्थावान  हूँ उसके प्रति 
यह भी जरुरी नहीं कि 
मेरी आस्था विशालकाय पत्थर ,
सोने,चांदी की मूर्तियों में  हो ,............. 
जिसे कई वेषधारी लोग घेरे हुए हो 
पूजा वे खुद करने की जिद पर अड़े हो 
जहां पूजा के नाम पर 
दूध ,मेवा और दूसरे खाद्य सामग्री
बहाया जाता  हो  ,............. 
वही दूध ,मेवा और दूसरे खाद्य सामग्री
जो भूखो को जीवन दे सकता है  
शायद इस अपव्यय से 
भगवान भी नाखुश होता हो ,............. 
इसीलिए मुझे,
हर वह घर मंदिर लगता है
जहाँ से इंसानियत का  फूटता है सोता
इंसानी समानता का  होता है दर्शन
जीओ और जीने दो का,
सदभाव प्रस्फुटित होता है  
जहां  असहाय और लाचार की 
पूरी होती है मुरांदे 
बुजुर्ग और कांपते हाथो को 
मिलता है सहारा ,............. 
ऐसे घर मुझे विहार, मंदिर 
मस्जिद,गुरुद्वारा लगते है 
और 
मिलती है आस्थावान बनने रहने कि 
अदृश्य ताकत भी ,,............. 
जानता हूँ जब से मानव का 
धरती पर पदार्पण हुआ है 
तब से ही अपने परिवार का 
अस्तित्व रहा है परन्तु 
प्रतिनिधि बदलते रहे है 
ईश-दर्शन शायद किसी को हुए हो ,............. 
इतिहास बताता है ,
चार पीढ़ी तक तो किसी को नहीं हुए है 
इसीलिए मैं हर उस इंसान में 
भगवान को देखता हूँ ,............. 
जिसमे जीवित होते है ,
दया करुणा ममता समता,परमार्थ,
सदभाव और तत्पर रहते है हरदम 
अदने का पोछने के लिए आंसू  
सच ऐसे घर-मंदिर,इंसान-भगवान से 
पोषित होती है मेरी आस्था,............. 
डॉ नन्द लाल भारती 24.06 .2015

Thursday, June 11, 2015

शब्द बने पहचान /कविता

शब्द बने पहचान  /कविता 
प्यारे ह्रदय उजियारे जानता हूँ 
मानता भी हूँ 
जीवन में आदमी का चेहरा 
महानता की शिखर ,
सुंदरता का चरम ,
प्यार का पागलपन भी हो जाता है.............. 
कई देवता बन जाते है 
कई देवदास कई देवदासिया 
कई रंक भी हो गए 
चहरे के नूर में उत्तर कर .............. 
जग जानता है 
आदमी जब तक सांस ले रहा है 
नूर है चहरे का तब तक 
सांस बंद होते ही बिखर जाता है 
पंच तत्वों में  फिर मुश्किल हो जाती है 
चहरे की पहचान .............. 
वही चेहरा जिस पर लोग मरते थे 
राजपाट लूटाते थे 
नहीं  हो सका नूरानी मुक्कमल 
मानता हूँ 
मेरा चहेरा तो हो ही नहीं सकता 
क्योंकि ना मै किसी राजवंश से 
ना किसी औद्यौगिक घराने से 
ना किसी धर्म-सत्ताधीश 
और 
ना किसी राजनैतिक सत्ताधीश की 
विरासत का हिस्सा  हूँ ,
पर अदना भी ख़ास बन सकता है
नेक कर्म से वचन से  जन और 
कायनात हित में अक्षरो की पिरोकर भी 
इन्ही सदगुणों से तो कालजयी है 
रविदास ,कबीर,अम्बेडकर, स्वामी विवेकानंद 
अब्राहम लिंकन सुकरात और भी कई 
प्रातः स्मरणीय .............. 
मैं जानता हूँ मैं कुछ भी नहीं 
परन्तु मेरी भी अभिलाषा है 
इंसान होने के नाते, ह्रदय उजियारे
चेहरा नहीं शब्द बने पहचान हमारे .............. 
डॉ नन्द लाल भारती 
12 जून 2015 

शुभाशीष की थाल लिए /कविता

शुभाशीष की  थाल लिए /कविता 
जानता हूँ मानता भी हूँ 
जरुरी भी है 
फ़र्ज़ पर फ़ना होना  ……………
दुःख घोर दुःख होता है 
परन्तु 
इस दुःख में जीवन का बसंत 
मीठा -मीठा सुखद एहसास 
और 
निहित होता है 
सकून भरा भविष्य निर्माण ……………
तभी तो माँ -बाप 
कन्यादान कर देते है 
सतीश अनुराग,अमितेश आज़ाद 
जैसे भाई आँखों में ,
अश्रु समंदर छिपाए 
हंसी ख़ुशी कर देते है 
शशि चाँद सी बिटिया को विदा  ……
वही बेटी जो माँ -बाप की ,
सांस में बसती है 
एक दिन माँ -बाप के घर से,
विदा कर  जाती है 
स्वंय की दुनिया बसाने के लिए  ……
वही हुआ कल बेटी विदा हो गयी 
घर-आँगन का मधुमास 
बेजान हो गया  
कभी पलकों के बाँध नहीं टूटे थे 
वह भी टूट गए  ……………
बेटी विदा हो चुकी है 
हवा के झोंको में जैसे 
बेटी के स्पर्श का 
एहसास हो जाता है रह रह कर 
मैं बावला भूल जाता हूँ 
एहसास में खो जाता हूँ 
कैसे हो पा…………?
बेटी के प्रतिउत्तर में निरुत्तर 
मौन के सन्नाटे को 
चिर नहीं पाता हूँ…… 
पलकें  बाढ़ से घिर जाती है 
अश्रुवेग पलकों में समा जाता है 
बेटी के सुखद कल के  लिए
हर झंझावात सह लेता हूँ 
मन सांत्वना देता है 
दिल तड़प जाता है बेटी की जुदाई में 
अंतरात्मा प्रफुलित हो जाती है 
बीटिया की सर्वसम्पन्नता की 
शुभकामना लिए 
मन कह उठता है बिटिया 
तूझे मायके की याद ना आये 
सदा सुखी रहे तू ……………
जीते रहेंगे हम तेरे लिए 
शुभाशीष की  थाल लिए ……। 
डॉ नन्द लाल भारती 24.05.2015   

मकसद/कविता 
अपने जीवन का मकसद 
ये नहीं कि 
दुनिया की दौलत और सोहरत पर 
कब्ज़ा हो जाये अपना 
ये नहीं हो सकता सपना अपना 
कुछ नहीं चाहिए यारो हमें 
बस जीवित रहने के लिए 
रोटी ,पानी और छाँव 
वह भी श्रम के एवज में खैरात नहीं 
इसलिए कि 
मानव होने के अपने दायित्वों के प्रति 
ईमानदारी बरता जाए 
इंसान होने के नाते 
एक अपनी चाहत ये भी है कि 
वर्णिक और वंशवादी आरक्षण के 
किले को अब ढहा दिया जाए 
सच्चा मानव होने के नाते  
मानवीय समानता के लिए 
बस अपने जीवन का
यही 
ख़ास मकसद है यारो 
मानव धर्म की रक्षा के लिए .......... 
डॉ नन्द लाल भारती 05.06.2015     

Sunday, April 12, 2015

खण्ड -खंड को अखंड बना दो /कविता

खण्ड -खंड को अखंड  बना दो /कविता 
अपनी जहां में  दलित होने के मायने 
रिसते जख्म का सुलगता एहसास 
हक़-अधिकार से  वंचित 
तरक्की से बेदखल वह सख्स 
जीता है जो दर्द का  पीकर 
बुनता है सपने रंजो गम भूलकर………… 
जातिवाद के तपते रेगिस्तान पर
मानवता की राह तलाशता कहता 
हाय रे अपनी  जहां के  कातिलो 
ये कैसा गुनाह कर दिया 
आदमी की छाती पर 
विष की खेती कर दिया ............. 
हाय रे आदमियत के दुश्मन 
मनुस्मृति वाले मनु महराज 
आज का आदमी भी 
नहीं समझ पाया तुम्हारा राज 
विखंडित आदमी खण्डित  देश 
कैसा बना  गए नफ़रत भरा परिवेश……………
अरे अपनी जहां वालो , अब तो जागो 
यही है साथ -साथ चलने का वक्त 
मनु को अपनी जहां से मिटा  दो 
ऊँच नीच की  हर दीवार ढहा  दो 
खण्ड -खंड को अखंड  बना दो 
अपनी जहां को धरती का ,
धरती का स्वर्ग बना  दो ……………

डॉ नन्द लाल भारती 12 .04 .2015

तन्हाई कौन, नहीं जानता

तन्हाई कौन, नहीं जानता 
ना पता ना ठिकाना उसका 
ना मोहब्बत कोई 
ना उससे निकट की 
पहचान रखता कोई 
हां भर एक झोका सा 
खैर 
कलम के आगे औकात क्या  ?
मेरी गली ना उसे भाती 
और ना वह तनिक मुझे
क्योंकि 
पास मुकम्मल  औंजार  है 
उसे कोसो दूर रखने के लिए 
कुछ कागज के टुकड़े 
और एक  सर्वशक्तिमान लेखनी 
यही डर उसे सताता है 
ना उसका 
और
 ना मेरा कोई पुराना नाता है................ 
डॉ नन्द लाल भारती 31.03 .2015
 
कौन कहता है मैं हारा  हुआ हूँ 
हारी  हुई तो ओ मंज़िल है 
जो हमें पा नहीं सकी 
ओ मंजिल हमें पा लेती तो 
जीत की क्या औकात जो 
कर्मवीरों को ठुकरा देती 
खैर कर्मवीर
हार भी कैसे सकता है 
कलम का सिपाही तो 
कभी भी नहीं 
यहां रुतबे की बात नहीं 
अँधेरी रात में भी 
यहां रोशनी होती 
यही तो उस दृष्टि की बात होती 
जिसमे कायनात का सपना होता 
भला ऐसे कर्मवीर को 
कौन हार हुआ कह सकता है 
वही ना जो 
चंद खनकते सिक्को पर बिकने वाला 
या गुमानी अथवा 
जीत और हार के भेद को ना वाला 
सच है यारो
कलमवीर कभी नहीं हारता 
हारी हुई होती है ओ मंजिले जो 
उसे  पा नहीं सकी.....................  
डॉ नन्द लाल भारती 31.03 .2015





मैं और मेरी तन्हाई ,
सच तो ये है 
ख़ामोशी भर है तन्हाई
सकूँ भरी शांति 
भागदौड़ का ठहर कर 
आंकलन करने के लिए 
नए उत्साह के लिए 
सच यही तन्हाई है अपनी 
अगर ऐसी ही अपनी 
जहां की भी है तो 
अपनी जहां वालो 
मुबारक हो 
तुम्हे भी हमें भी 
कुछ सोचने समझने के लिए 
अप्पो दीपो भवः के लिए 
अपनी जहां के लिए 
नए सपने बुनने के लिए ……… 
डॉ नन्द लाल भारती 31.03 .2015




हम जानते है 
अपनी जहां में 
ना अपनी कब्र होगी 
ना बहेगा आंसू सदा 
समय की  मार से 
धूल जायेगे सारे अपने 
निशां 
अपनी जहां से......... 
पर हम  
यह भी जानते है प्यारे 
इंसानी  समानता 
जीओ और जीने दो का गुर 
और यदि 
अप्पो दीपो भवो को 
हमने सच्चे मन से 
आत्मसात कर लिया तो 
ये हवायें
समय के आरपार तक 
ढोती रहेगी 
हमारा नाम ……। 
डॉ नन्द लाल भारती 02 .04 .2015


हाय रे अपनी जहां के 
तैतीस करोड़ देवताओ 
आज तुम्हे तो 
लाज आ जानी  चाहिए 
तैतीस करोड़ देवता
होने का भ्रमजाल 
तोड़ देने का 
ऐलान कर देना  चाहिए 
क्योंकि तुम्हारे भ्रम ने 
अब तक देश  को बांटा है 
आज तो हद हो गयी 
तुम तैतीस करोड़ भी हार गए 
अपनी जहां के खिलाडी 
विश्व क्रिकेट मैच हार गए 
सच तुम नहीं तुम्हारा भ्रमजाल है 
जीतता तो हौशला और पुरुषार्थ है.…डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015 ……।  




अपनी जहां,जहाँ ज़िन्दगी का 
कतरा कतरा न्यौछावर 
हो रहा है 
उसी  अपनी जहां पर 
मैं 
बोझ नहीं बनना चाहता 
दो गज जमीन पर 
कब्ज़ा नहीं चाहता हूँ ………… 
कब्र नहीं 
माटी में मिलना जल में तैरना 
हवा में उड़ने की चाह तो है 
पर ये अपनी जहाँ वालो 
उससे बड़ी  ख्वाहिश है 
दुआ में उठते रहे हाथ 
ताकि तुम्हारे लिए 
खुली आँखों से देखे ख्वाब हमारे 
पूरे हो सके 
बस  यही चाहता हूँ .......... डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015 







सुन लो अपनी जहां वालो
मैं कोई फरिश्ता  तो नहीं 
घाव सगा हो या पराया 
मुझे भी दर्द होता है 
तुम्हारी सलामती के लिए 
हर जख्म  सिसक सिसक कर 
पीये जा रहा हूँ .......... 
मेरी अपनी ख्वाहिशे 
कोई मायने नहीं रखती 
ना हमारे लिए ना तुम्हारे लिए 
अपनी जहां वालो
मैं तो तुम्हारी फिक्र में 
सीये जा रहा हूँ .......... डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015  
बदनसीब तो नहीं था मै 
पर क्या बयां करू 
अपनी जहाँ की हस्ती का  
जिसने बदनसीब बना दिया 
जातिभेद  के दहकते अंगारे 
पर जीवित बिठा दिया………
मैं जानता हूँ ,
मेरा खुदा,भगवान गॉड 
भी जानता होगा 
मैं परिपूर्ण हूँ ,पर क्या 
आदमियत के दुश्मनो ने 
अपूर्ण करार दिया
कैसे स्वीकारता अमनुषतावादी सत्ता 
अश्रुपूरित श्रम से उपजे कनक से 
हर जख्म को सजा लिया। ........... 
डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015 
जानता हूँ अपने अपने होते है 
लहू के रिश्ते 
फ़र्ज़ वफ़ा के धागे से 
जुड़े होते है 
अपनों से आस होती है 
दहकते रेत का भले रहे सफर 
गरजता रहा  हो गगन मगर 
विश्वास के सहारे कट जाता है 
सफर........... 
अपने अपने पर बलि-बलि जाते है 
रिश्ते संवर जाते है 
कायनात जानती है 
और हम भी 
बेगाने लोग भी 
मौके -बेमौके 
काम आ जाते है 
बेगानो से आस होती है 
अपनो से तनिक भी नहीं 
हाय रे अपनों के  दिये  घाव 
बहुत दूर तक 
छाती छेदते जाते है.......... 
डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015 



दर्द भरी दुनिया कैसे  रास  आयी..........?
जीवन संघर्ष, माथे दहकता दर्द
अभाव की चिता पर, सुलगती काया
आँखों का रंग पीला -पीला
तन का रंग काला
डंसती  दिन की बेचैनी
डंसता पूरी रात सन्नाटा
जन्म मरन का हिसाब
जवानी कब बदली बुढौती में
वंचित आदमी की
नहीं मिलता कोइ लेखा जोखा
दुःख भरी जीवन कहानी
तन से झराझर श्रम
आँखों से रिसता पानी
अभाव का पुलिंदा
जीवन सार शोषित वंचित आदमी का
बार-बार डूबते सूरज में
जीवन का   उजास तलाशता
हाय रे चक्रव्यूह कभी ना टूटता
भेद -भ्रष्टाचार का बाण अचूक
वंचित के हक़ पर बार-बार लगता
कुव्यवस्था के पैमाने पर
नीच ठहरता
ना कोई मसीहा वंचित आदमी का अब
ना हक़ का रखवाला
कौन हरे दर्द कौन दे ऊँचाई
शोषित वंचित आदमी को
दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी ...........नन्द लाल भारती -
--०३.०८.२०१२ 



दर्द भरी दुनिया कैसे  रास  आयी..........?
जीवन संघर्ष, माथे दहकता दर्द
अभाव की चिता पर, सुलगती काया
आँखों का रंग पीला -पीला
तन का रंग काला
डंसती  दिन की बेचैनी
डंसता पूरी रात सन्नाटा
जन्म मरन का हिसाब
जवानी कब बदली बुढौती में
वंचित आदमी की
नहीं मिलता कोइ लेखा जोखा
दुःख भरी जीवन कहानी
तन से झराझर श्रम
आँखों से रिसता पानी
अभाव का पुलिंदा
जीवन सार शोषित वंचित आदमी का
बार-बार डूबते सूरज में
जीवन का   उजास तलाशता
हाय रे चक्रव्यूह कभी ना टूटता
भेद -भ्रष्टाचार का बाण अचूक
वंचित के हक़ पर बार-बार लगता
कुव्यवस्था के पैमाने पर
नीच ठहरता
ना कोई मसीहा वंचित आदमी का अब
ना हक़ का रखवाला
कौन हरे दर्द कौन दे ऊँचाई
शोषित वंचित आदमी को
दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी ...........डॉ नन्द लाल भारती