Wednesday, June 24, 2015

आस्था/कविता

आस्था/कविता 
रूढ़िवाद,खूनी कर्मकांड,जातिवाद ,
भेदभाव का विरोधी हूँ
परन्तु 
इसका ये मतलब नहीं कि 
विशुद्ध नास्तिक हूँ ,............. 
मानता हूँ तो एक परमसत्ता को 
आस्थावान  हूँ उसके प्रति 
यह भी जरुरी नहीं कि 
मेरी आस्था विशालकाय पत्थर ,
सोने,चांदी की मूर्तियों में  हो ,............. 
जिसे कई वेषधारी लोग घेरे हुए हो 
पूजा वे खुद करने की जिद पर अड़े हो 
जहां पूजा के नाम पर 
दूध ,मेवा और दूसरे खाद्य सामग्री
बहाया जाता  हो  ,............. 
वही दूध ,मेवा और दूसरे खाद्य सामग्री
जो भूखो को जीवन दे सकता है  
शायद इस अपव्यय से 
भगवान भी नाखुश होता हो ,............. 
इसीलिए मुझे,
हर वह घर मंदिर लगता है
जहाँ से इंसानियत का  फूटता है सोता
इंसानी समानता का  होता है दर्शन
जीओ और जीने दो का,
सदभाव प्रस्फुटित होता है  
जहां  असहाय और लाचार की 
पूरी होती है मुरांदे 
बुजुर्ग और कांपते हाथो को 
मिलता है सहारा ,............. 
ऐसे घर मुझे विहार, मंदिर 
मस्जिद,गुरुद्वारा लगते है 
और 
मिलती है आस्थावान बनने रहने कि 
अदृश्य ताकत भी ,,............. 
जानता हूँ जब से मानव का 
धरती पर पदार्पण हुआ है 
तब से ही अपने परिवार का 
अस्तित्व रहा है परन्तु 
प्रतिनिधि बदलते रहे है 
ईश-दर्शन शायद किसी को हुए हो ,............. 
इतिहास बताता है ,
चार पीढ़ी तक तो किसी को नहीं हुए है 
इसीलिए मैं हर उस इंसान में 
भगवान को देखता हूँ ,............. 
जिसमे जीवित होते है ,
दया करुणा ममता समता,परमार्थ,
सदभाव और तत्पर रहते है हरदम 
अदने का पोछने के लिए आंसू  
सच ऐसे घर-मंदिर,इंसान-भगवान से 
पोषित होती है मेरी आस्था,............. 
डॉ नन्द लाल भारती 24.06 .2015

Thursday, June 11, 2015

शब्द बने पहचान /कविता

शब्द बने पहचान  /कविता 
प्यारे ह्रदय उजियारे जानता हूँ 
मानता भी हूँ 
जीवन में आदमी का चेहरा 
महानता की शिखर ,
सुंदरता का चरम ,
प्यार का पागलपन भी हो जाता है.............. 
कई देवता बन जाते है 
कई देवदास कई देवदासिया 
कई रंक भी हो गए 
चहरे के नूर में उत्तर कर .............. 
जग जानता है 
आदमी जब तक सांस ले रहा है 
नूर है चहरे का तब तक 
सांस बंद होते ही बिखर जाता है 
पंच तत्वों में  फिर मुश्किल हो जाती है 
चहरे की पहचान .............. 
वही चेहरा जिस पर लोग मरते थे 
राजपाट लूटाते थे 
नहीं  हो सका नूरानी मुक्कमल 
मानता हूँ 
मेरा चहेरा तो हो ही नहीं सकता 
क्योंकि ना मै किसी राजवंश से 
ना किसी औद्यौगिक घराने से 
ना किसी धर्म-सत्ताधीश 
और 
ना किसी राजनैतिक सत्ताधीश की 
विरासत का हिस्सा  हूँ ,
पर अदना भी ख़ास बन सकता है
नेक कर्म से वचन से  जन और 
कायनात हित में अक्षरो की पिरोकर भी 
इन्ही सदगुणों से तो कालजयी है 
रविदास ,कबीर,अम्बेडकर, स्वामी विवेकानंद 
अब्राहम लिंकन सुकरात और भी कई 
प्रातः स्मरणीय .............. 
मैं जानता हूँ मैं कुछ भी नहीं 
परन्तु मेरी भी अभिलाषा है 
इंसान होने के नाते, ह्रदय उजियारे
चेहरा नहीं शब्द बने पहचान हमारे .............. 
डॉ नन्द लाल भारती 
12 जून 2015 

शुभाशीष की थाल लिए /कविता

शुभाशीष की  थाल लिए /कविता 
जानता हूँ मानता भी हूँ 
जरुरी भी है 
फ़र्ज़ पर फ़ना होना  ……………
दुःख घोर दुःख होता है 
परन्तु 
इस दुःख में जीवन का बसंत 
मीठा -मीठा सुखद एहसास 
और 
निहित होता है 
सकून भरा भविष्य निर्माण ……………
तभी तो माँ -बाप 
कन्यादान कर देते है 
सतीश अनुराग,अमितेश आज़ाद 
जैसे भाई आँखों में ,
अश्रु समंदर छिपाए 
हंसी ख़ुशी कर देते है 
शशि चाँद सी बिटिया को विदा  ……
वही बेटी जो माँ -बाप की ,
सांस में बसती है 
एक दिन माँ -बाप के घर से,
विदा कर  जाती है 
स्वंय की दुनिया बसाने के लिए  ……
वही हुआ कल बेटी विदा हो गयी 
घर-आँगन का मधुमास 
बेजान हो गया  
कभी पलकों के बाँध नहीं टूटे थे 
वह भी टूट गए  ……………
बेटी विदा हो चुकी है 
हवा के झोंको में जैसे 
बेटी के स्पर्श का 
एहसास हो जाता है रह रह कर 
मैं बावला भूल जाता हूँ 
एहसास में खो जाता हूँ 
कैसे हो पा…………?
बेटी के प्रतिउत्तर में निरुत्तर 
मौन के सन्नाटे को 
चिर नहीं पाता हूँ…… 
पलकें  बाढ़ से घिर जाती है 
अश्रुवेग पलकों में समा जाता है 
बेटी के सुखद कल के  लिए
हर झंझावात सह लेता हूँ 
मन सांत्वना देता है 
दिल तड़प जाता है बेटी की जुदाई में 
अंतरात्मा प्रफुलित हो जाती है 
बीटिया की सर्वसम्पन्नता की 
शुभकामना लिए 
मन कह उठता है बिटिया 
तूझे मायके की याद ना आये 
सदा सुखी रहे तू ……………
जीते रहेंगे हम तेरे लिए 
शुभाशीष की  थाल लिए ……। 
डॉ नन्द लाल भारती 24.05.2015   

मकसद/कविता 
अपने जीवन का मकसद 
ये नहीं कि 
दुनिया की दौलत और सोहरत पर 
कब्ज़ा हो जाये अपना 
ये नहीं हो सकता सपना अपना 
कुछ नहीं चाहिए यारो हमें 
बस जीवित रहने के लिए 
रोटी ,पानी और छाँव 
वह भी श्रम के एवज में खैरात नहीं 
इसलिए कि 
मानव होने के अपने दायित्वों के प्रति 
ईमानदारी बरता जाए 
इंसान होने के नाते 
एक अपनी चाहत ये भी है कि 
वर्णिक और वंशवादी आरक्षण के 
किले को अब ढहा दिया जाए 
सच्चा मानव होने के नाते  
मानवीय समानता के लिए 
बस अपने जीवन का
यही 
ख़ास मकसद है यारो 
मानव धर्म की रक्षा के लिए .......... 
डॉ नन्द लाल भारती 05.06.2015