Thursday, February 28, 2013

छोटी छोटी कवितायें ....


खुदा का खौफ है

वफ़ा बाकी है
विरासत अपनी जमीं
ना आधार
सफेदी ना खाकी है ॥
मुश्किलों के दौर
बसर कर रहे
अपनी जहां में प्यारे
ख्वाहिशों के क़त्ल
खूब हुए हमारे ॥
मैं बावरा
वफ़ा पर फ़ना होने को ,
उतावला
जीवन संघर्ष में
यही आस बाकी है
जीवन में आदमी का
दिया दर्द पुराना साथी है
खुदा का खौफ है हम में
वफ़ा बाकी है ॥ डॉ नन्द लाल भारती  21.01.2012  
कैद नसीब
कैद नसीब आदमी का जीवन
अग्नि परीक्षा का दौर होता है
वफ़ा पर गरीब की कहाँ यकीं होता है
कर्मयोगी नू सोता न रोता
उसे तो कल पर यकीं होता है
डॉ नन्द लाल भारती  21.01.2012  

मेरी गली आया करो .....
बहारों मेरी गली  आया करो
बंद गली के रह गए  हम
कुसुमित अपना श्रम
याचना की ना हिम्मत हमारी
दुआ कबूल सको तो
कबूल लो हमारी
हमारी गली आया करो
लेने की तमन्ना नहीं
मेरी गली की
सोंधी खुशबू साथ ले जाया करो
बहारों मेरी गली आया करो .....
 डॉ नन्द लाल भारती  21.01.2012 

कर्म की बाती
 बसंत बना रहे अपना जीवन
प्रीति बने हर-मन प्रीति हमारे
जाने हम सब
जीवन अपना बस राही जैसा
क्या उंच काया नींच
गुमान कैसा ?
नर से नारायण कर्म की बाती
नेक कर्म जन्म-जन्म का साथी
नेक अरमां जीवित रहे हमारे
जीवन सार बस यही
बचे है हमारे ...डॉ नन्द लाल भारती  21.01.2012 

भाग्योदय
करें आराधना उनकी
नया भींगे जिसके
होठों पर काली छाईं
जिसके….
दायित्व हमारा भी
भाग्योदय हो
थके पाँव का भी
जागृत रहे नसीब अपना
सच्चे इन्सां का होता
यही सपना ॥ .डॉ नन्द लाल भारती  21.01.2012 

तरक्की
जीवन की परी तू नहीं
जानती
तेरे पर मरता हूँ
फ़र्ज़ पर होता फ़ना
तेरी आस में
दिन -रात तड़पता हूँ
मानता हूँ तू
बिछा देगी एक दिन
यौवन का बिछौना
इसी ताक  में ऐ तरक्की
सद्काम का राही
मारा -मारा फिरता हूँ
डॉ नन्द लाल भारती  21.01.2012 
..................
बसंत सयाना सा यहाँ
हर पुष्प
भला -भला सा लगता है
मन बावरा
मेरा भी बौराया
हर ह्रदय में
विराजित देवत्व को
नमन करता है ....डॉ नन्द लाल भारती  21.01.2012 

Saturday, February 16, 2013

कुछ तो डरा करो

कुछ तो डरा करो
दरकने लगी है दीवारे
विरान  लगने लगे है
अरमानो के चौबारे ।।
दिल में खंजर
सजाने लगे है लोग
शहद की आड़ में
विष बोने लगे है लोग।।
कैसे जुड़े परत दर परत
अमानुष किस्म का आदमी
नोंच रहा परत दर परत ।।
चाहत बढ़ने लगी है
उसकी
फलफूल रहा लोभ
सिर विराजित रहे वो
करता रहे
शोषित आदमी के
हको का बेख़ौफ़ भोग ।।
लोभी बस चाहता है
भला अपना
हाशिये के आदमी का
टूटता रहे सपना ।।
होंठ पर खूनी हंसी
दिल से विष का रिसना
कहाँ कब और कैसे
होगा हितकारी
कैसे उठेगा अदना
ये शोषितों की नसीब के
लूटेरो
कुछ तो डरा करो
सब कुछ देख रहा है
विधना .......डॉ .नन्द लाल भारती 17.02.2013

जिए तो जिए कैसे ।।

जिए तो जिए कैसे  ।।
कैसी अनहोनी
जीवन में अपने
घायल मन
मरते सपने ।।
सकूँ की बयार
मन-मंदिर में
टिक नहीं पाती
विरोध की बयार
उठ जाती ।।
यकीन की परते
जमे कैसे
उठते बवंडर
भेद-पद-दौलत-जातिवंश के
भयावह
उड़ा ले जाते
तह-दर-तह
खिलखिला उठते
लोग अमानुष जैसे ।।
ऐसे फिजा में
मलालो की परते
जवाँ हो जाती है
आदमियत मरती
बेमौत
तुम्ही बताओ विधना
जिए तो जिए कैसे  ।।
डॉ नन्द लाल भारती
17.02.2013

पुलकित स्व-मान

पुलकित स्व-मान 
दुःख आज है वही इन्सान
जागृत ह्रदय जिसका
जीवित जिसमे
वफ़ा और स्व-मान
करता नहीं डंसने का काम
भरे जहां में दुखी वही
सच्चा इन्सान ।।
लोग कुछ कहते कुछ करते
चेहरा बदलने वाले
दींन  जानकार दर्द परोसते ।।
विधना के बागी
सत्ता के  मतवाले स्व-हित में
विष बोते है
कहते जो करते वो
समय के पुत्र वो
फ़र्ज़ पर फना होना
समय पुत्रो को आता है
वफ़ा ईमान इन्हें भाता है ।।
चेहरा बदलने वालो की
महफ़िलो से
दर्द का दरिया उफनता है
फ़ना होने वालो की ओर
सह लेता है सब दुःख
पी लेता है दर्द
भले की उम्मीद में
क्योंकि लोकहित में
दुखी इन्सान को जीना -मरना भाता है
तभी तो समय का पुत्र कहता है ।।
आज भी आंसू झरते है झराझर
यही शब्द ब्रह्म बनाते
लोकहित में फ़ना होने वाले
कर्म पथ पर बढ़ते है
कलेजे में ठुकी कील का दर्द
पाँव में शूल धंसते है
दीवाने  है ये
तभे तो वक्त के आर-पार बसते है ।।
मुश्किलें पे-पल सताती है
गुटबाजी का दौर भी चैन से
जीने नहीं देता है
भेद की चासनी जवां दर्द
घाव गहरा कर देता है ।।
जालिम है लोग दैत्य समान
होंठ पर मधु का फैलाव
दिल की गहराई में जहर रखते है
खुद को खुदा बनते  है
ऐसे लोगो के ताप
कैसे कम होगा दुःख
गैर को तबाह करने वाले
करते है दीन के अरमानो का खून ।।
अमनुषो  की शिनाख्त
समय पुत्रो को करने आता है
फ़ना के बदले दुःख पाता है
समय का पुत्र है
दहकता दर्द भी पी जाता है
ज़िन्दगी जहर पर जीने आता है ।।
वक्त दिया है मान
परमार्थी  समय का पुत्र महान
दुःख की दरिया में डूब -डूब भी
पुलकित रहता है स्व-मान ।।
डॉ .नन्द लाल भारती 17.02.2013