बे-रहम ज़माने में /कविता
परवर निगार सलाम तेरी हस्ती को
जिसमे मैं भी हूँ शामिल ,
कौन सी गुनाह की सजा दे दी
जनाब ने……
बना दिया हाशिये का आदमी
भर दिया जीवन में दर्द ही दर्द
तेरी खुदाई के दुश्मनों ने
निरापद को कैसी सजा ने दिया
जनाब ने … …
जीत-जीत कर हारा पर हार ना माना
मिट जाये भले मेरी हस्ती
तेरी हस्ती कैसे भूला सकूँगा
परवर निगार यकीन तेरी खुदाई पर ................
कैसे अमानुष लोग
करते दर्द-आंसू का उपभोग
करता रहा कोशिशे ,आखिर में
टूटी कश्ती अमनुशो ने ढकेल दी
मझधार में ................
लूट गए अरमान,अपनी जहाँ के सारे
उपजे थे जो श्रम की खाद और अश्रुधार से
हाल बेहाल,छीन लिए हक़ की पतवार
जनाब ने ....................
परवर निगार इंसान बनाया है
पत्थर तो नहीं
ठोकरों का दौर बे मुददत जारी है
क्या यही किस्मत हमारी है .................
छोटे लोग,छीन्टा कशी का शोर
कैद नसीब का मालिक
भेद भरे जहां में मेरी कहा हस्ती है
तुमने भी आँखे मूँद लिया है
शिक्षित बनो संघर्ष करो हक़ के लिए
कलम की पतवार थमा कर .........
परवर निगार मेरी साँसे
तेरी खैरात पर चलाती है
मेरी ख्वाहिश है
शोषितों के लिए जी सकूं पल-पल
चलता रहूँ अपनी जहां में
हौशला की पूँजी भर देना
टाँकता रहू वक्त के भाल
शोषितों की दास्ताँ
बे-रहम ज़माने में .................नन्द लाल भारती 30-06-2013
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