परिवर्तन/कविता
ह्रदय दीप मेरा ,
परिवर्तन का आगाज़ है ,
परिवर्तन का आगाज़ है ,
दीप को लहू दे रहा ऊर्जा ,
तन तपकर दे रहा है रोशनी ,
मन कर रहां ,
सच्ची विचारो का आह्वाहन ,
मानवीय समानता के लिए।
भूख से कराह रहा ,
समानता की प्यास है ,
आर्थिक उत्थान की
अभिलाषा है ,
कायनात के संग चलने की ,
सफ़र में बड़ी मुश्किलें है ,
पग-पग पर ]
बंटवारे के शूल खड़े है
बंटवारे के शूल खड़े है
हैम तो परिवर्तन के लिए ,
चल पड़े हैं.
कर रहे है हवन
कर रहे है हवन
जीवन के बसंत को
बस,
मानवीय समानता के लिए।
मानवीय समानता के लिए।
बुध्द ने यही कहा है
अप्पो दीप्पो भवः
बहुजन सुखाय का,
मंत्र दिया है
मंत्र दिया है
जरुरी है
मानवीय एकता के लिए
मानवीय एकता के लिए
बुराईयो पर ,
हो गया काबू जिस दिन
हो गया काबू जिस दिन
धरती से मिट जायेगा
शोषण,उत्पीड़न और
वंचित का दमन भी
आओ परिवर्तन की मशाल
ह्रदय दीप से जलाये ,
मानवीय समानता के लिए …… डॉ नन्द लाल भारती
बदलते वक्त में /कविता
बदलते वक्त में खुद की तस्वीर,
टूटती हुई पाता हूँ ,
रहनुमाओ की भीड़ में
दिल पर दर्द का बोझ पाता हूँ।
बहार भरे जहा में ,
कांटो की छांव पाता हूँ ,
हंसी के बीच आदमी को ,
उखड़ा-उखड़ा पाता हूँ।
क्या ख्वाब थे ,
बदलते वक्त में भी,
उजड़ा पाता हूँ
प्यासा मन प्यास के आगे ,
सांझ पाता हूँ।
क्या उमस है बंजर दिलो की ,
रिसते घाव बहते आंसू पाता हूँ ,
हवा भी कर रही खिलाफत ,
बदला तेवर पाता हूँ।
नैतिकता अपनी अडिग ,
पर जड़ हिलती पाता हूँ।
ना मिली समानता ,
पग-पग पर दीवार पाता हूँ।
क्या कहूँ दिल की बात ,
शब्दों की तपन से ,
होंठ सुलगता पाता हूँ ,
ना बदला ज़माना ,
हर और टूटती तस्वीर पाता हूँ……। डॉ नन्द लाल भारती
लब्ज/कविता
मेरे लब्ज ही मेरी गुहार है ,
और
उपस्थिति भी ,
उपस्थिति भी ,
देना चाहते है दस्तक
पाषाण दिलों पर ,
पाषाण दिलों पर ,
चाहते है ,
मानवीय एकता का वादा भी।
मेरे लब्ज ही मेरी पहचान है ,
मांगते है जो ,
समानता का अधिकार ,
मानवीय भेदभाव का करते है ,
बहिष्कार ,
बिखराव को सद्भाव में ,
बदलने की है ललक ,
कद की ऊंचाई का भी ,
यही है रहस्य।
मानवता के काम आये ,
महापुरुषो के अमर है
निशान ,
निशान ,
उनके एक-एक लब्ज
जीवित है ,
जीवित है ,
समानता,शांति और
सद्भावना के लब्ज,
मुझे भी देते है ,
हौशला शक्ति और
सामर्थ्य भी।
सामर्थ्य भी।
तभी तो,
मानवीय भेद से लहुलुहान ,
मानवीय भेद से लहुलुहान ,
कुरीतियो के त्याग की,
बात कर रहा हूँ
बात कर रहा हूँ
विषमता के धरातल पर ,
विष पीकर भी
समानता के लब्ज जोड़ रहा हूँ ……डॉ नन्द लाल भारती
लकीर/कविता
खुली आँखे सपने आते,
सुनहरे प्यारे ,
विषमाद की आंधी ,
उड़ा ले जाती सारे।
कहाँ उम्मीद थमे ,
अपने-पराए बनते,
अवसर की ताक ,
आस्तिन में साप रखते ।
भरे जहां में खो गया सकून ,
उजड़ी उजास ,
मोह का तूफ़ान,
घायल हो रही आस।
आँखों के नीर से ,
मतलब सींचने लगे है लोग,
हक़ छीन, ऊँचे आसन की आड़
करते हैं उपभोग।
आहत मन,चढ़े तराजू हरदम ,
दबंग की शान ,
ईमान पाये हलाहल ,
श्रम परेशान।
बूढ़ी व्यस्था बूढ़ी हुई सदिया ,
रौनक ना आयी ,
अटल लकीरे विषैली ,
क्या खूब यौवन है पायी।
फ़र्ज़ की ओट सह रहा चोट ,
वंचित इंसान ,
मिटा दो भेद की लकीरें,
जिसे संवारा है इंसान। डॉ नन्द लाल भारती
पहचान/कविता
अब्र की कब्र पर,
बैठा आदमी ,
बैठा आदमी ,
आदमियत का ,
क़त्ल कर रहा है आज
क़त्ल कर रहा है आज
दुखती नब्ज को ,
कब्ज बख्श रहा
कब्ज बख्श रहा
पसीजते घाव की,
बन रहा है खाज
बन रहा है खाज
मन की मज़बूत गांठे,
मतलब तौल रहा
मतलब तौल रहा
सकून से परे ,
संदेह में जी रहा ,
संदेह में जी रहा ,
बहकने का जाम,
बहाना था काफी ,
बहाना था काफी ,
आज खुद,
बहक रहा आदमी ,
बहक रहा आदमी ,
जेहन में जहर ,
बेपरदा हो रहा है आदमी ,
बेपरदा हो रहा है आदमी ,
छल का आदी ,
हो गया आदमी ,
हो गया आदमी ,
जीवन मूल्य से ,
बिछुड़ गया आदमी
बिछुड़ गया आदमी
मानवता के राही को,
दंश दे रहा आदमी
दंश दे रहा आदमी
होगा जहां रोशन ,
मानवता को धर्म,
मान ले आदमी ……डॉ नन्द लाल भारती
मान ले आदमी ……डॉ नन्द लाल भारती
तलाश/कविता
कविता की तलाश में ,
फिरता हूँ ,
खेत,खलिहान,बरगद की छांव ,
पोखर,तालाब बूढ़े कुएं ,
संपन्न शहर ,साधनविहीन गांवं
सामाजिक पतन ,भय,भूख ,
बेरोजगारी में झाकता हूँ ,
मन की दूरी ,
आदमी की मज़बूरी में ,
आदमी की मज़बूरी में ,
तकता हूँ ,
खाकी और खड़ी में तलाशता हूँ,
दहेज़ की जलन ,अर्धबदन ,
अत्याचार,आतंक ,
चूल्हे की आग ,
रोटी की गोलाई को ,
रोटी की गोलाई को ,
मापता हूँ ,
मूक पशुओ के क्रुन्दन ,
आदमी के मर्दन ,
ऊँचे पहाड़ ,नीचे मैदान में ,
उतरता हूँ
बैलगाड़ी की चाल ,
जहाज की रफ़्तार देखता हूँ,
गांव के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर
चलता हूँ ,
चलता हूँ ,
शहर की सीमेंट -कंक्रीट की
सडको में तलाशता हूँ,
सडको में तलाशता हूँ,
कविता को हर कहीं,
तलाशता हूँ ,
तलाशता हूँ ,
कही भी नहीं पाता हूँ ,
खुद के अंदर गहराई में ,
उतरता हूँ
कविता को ,
अनेको रूपो में पाता हूँ ,
अनेको रूपो में पाता हूँ ,
सच यही तो है ,
वह गहराई जहां से
उपजती है कविता ,
उपजती है कविता ,
आत्मा की ऊंचाई और
दिल की गहराई से। …………डॉ नन्द लाल भारती
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