तन्हाई कौन, नहीं जानता
ना पता ना ठिकाना उसका
ना मोहब्बत कोई
ना उससे निकट की
पहचान रखता कोई
हां भर एक झोका सा
खैर
कलम के आगे औकात क्या ?
मेरी गली ना उसे भाती
और ना वह तनिक मुझे
क्योंकि
पास मुकम्मल औंजार है
उसे कोसो दूर रखने के लिए
कुछ कागज के टुकड़े
और एक सर्वशक्तिमान लेखनी
यही डर उसे सताता है
ना उसका
और
ना मेरा कोई पुराना नाता है................
डॉ नन्द लाल भारती 31.03 .2015
कौन कहता है मैं हारा हुआ हूँ
हारी हुई तो ओ मंज़िल है
जो हमें पा नहीं सकी
ओ मंजिल हमें पा लेती तो
जीत की क्या औकात जो
कर्मवीरों को ठुकरा देती
खैर कर्मवीर
हार भी कैसे सकता है
कलम का सिपाही तो
कभी भी नहीं
यहां रुतबे की बात नहीं
अँधेरी रात में भी
यहां रोशनी होती
यही तो उस दृष्टि की बात होती
जिसमे कायनात का सपना होता
भला ऐसे कर्मवीर को
कौन हार हुआ कह सकता है
वही ना जो
चंद खनकते सिक्को पर बिकने वाला
या गुमानी अथवा
जीत और हार के भेद को ना वाला
सच है यारो
कलमवीर कभी नहीं हारता
हारी हुई होती है ओ मंजिले जो
उसे पा नहीं सकी.....................
डॉ नन्द लाल भारती 31.03 .2015
मैं और मेरी तन्हाई ,
सच तो ये है
ख़ामोशी भर है तन्हाई
सकूँ भरी शांति
भागदौड़ का ठहर कर
आंकलन करने के लिए
नए उत्साह के लिए
सच यही तन्हाई है अपनी
अगर ऐसी ही अपनी
जहां की भी है तो
अपनी जहां वालो
मुबारक हो
तुम्हे भी हमें भी
कुछ सोचने समझने के लिए
अप्पो दीपो भवः के लिए
अपनी जहां के लिए
नए सपने बुनने के लिए ………
डॉ नन्द लाल भारती 31.03 .2015
हम जानते है
अपनी जहां में
ना अपनी कब्र होगी
ना बहेगा आंसू सदा
समय की मार से
धूल जायेगे सारे अपने
निशां
अपनी जहां से.........
पर हम
यह भी जानते है प्यारे
इंसानी समानता
जीओ और जीने दो का गुर
और यदि
अप्पो दीपो भवो को
हमने सच्चे मन से
आत्मसात कर लिया तो
ये हवायें
समय के आरपार तक
ढोती रहेगी
हमारा नाम ……।
डॉ नन्द लाल भारती 02 .04 .2015
हाय रे अपनी जहां के
तैतीस करोड़ देवताओ
आज तुम्हे तो
लाज आ जानी चाहिए
तैतीस करोड़ देवता
होने का भ्रमजाल
तोड़ देने का
ऐलान कर देना चाहिए
क्योंकि तुम्हारे भ्रम ने
अब तक देश को बांटा है
आज तो हद हो गयी
तुम तैतीस करोड़ भी हार गए
अपनी जहां के खिलाडी
विश्व क्रिकेट मैच हार गए
सच तुम नहीं तुम्हारा भ्रमजाल है
जीतता तो हौशला और पुरुषार्थ है.…डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015 ……।
अपनी जहां,जहाँ ज़िन्दगी का
कतरा कतरा न्यौछावर
हो रहा है
उसी अपनी जहां पर
मैं
बोझ नहीं बनना चाहता
दो गज जमीन पर
कब्ज़ा नहीं चाहता हूँ …………
कब्र नहीं
माटी में मिलना जल में तैरना
हवा में उड़ने की चाह तो है
पर ये अपनी जहाँ वालो
उससे बड़ी ख्वाहिश है
दुआ में उठते रहे हाथ
ताकि तुम्हारे लिए
खुली आँखों से देखे ख्वाब हमारे
पूरे हो सके
बस यही चाहता हूँ .......... डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015
सुन लो अपनी जहां वालो
मैं कोई फरिश्ता तो नहीं
घाव सगा हो या पराया
मुझे भी दर्द होता है
तुम्हारी सलामती के लिए
हर जख्म सिसक सिसक कर
पीये जा रहा हूँ ..........
मेरी अपनी ख्वाहिशे
कोई मायने नहीं रखती
ना हमारे लिए ना तुम्हारे लिए
अपनी जहां वालो
मैं तो तुम्हारी फिक्र में
सीये जा रहा हूँ .......... डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015
बदनसीब तो नहीं था मै
पर क्या बयां करू
अपनी जहाँ की हस्ती का
जिसने बदनसीब बना दिया
जातिभेद के दहकते अंगारे
पर जीवित बिठा दिया………
मैं जानता हूँ ,
मेरा खुदा,भगवान गॉड
भी जानता होगा
मैं परिपूर्ण हूँ ,पर क्या
आदमियत के दुश्मनो ने
अपूर्ण करार दिया
कैसे स्वीकारता अमनुषतावादी सत्ता
अश्रुपूरित श्रम से उपजे कनक से
हर जख्म को सजा लिया। ...........
डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015
जानता हूँ अपने अपने होते है
लहू के रिश्ते
फ़र्ज़ वफ़ा के धागे से
जुड़े होते है
अपनों से आस होती है
दहकते रेत का भले रहे सफर
गरजता रहा हो गगन मगर
विश्वास के सहारे कट जाता है
सफर...........
अपने अपने पर बलि-बलि जाते है
रिश्ते संवर जाते है
कायनात जानती है
और हम भी
बेगाने लोग भी
मौके -बेमौके
काम आ जाते है
बेगानो से आस होती है
अपनो से तनिक भी नहीं
हाय रे अपनों के दिये घाव
बहुत दूर तक
छाती छेदते जाते है..........
डॉ नन्द लाल भारती 26.03.3015
जीवन संघर्ष, माथे दहकता दर्द
अभाव की चिता पर, सुलगती काया
आँखों का रंग पीला -पीला
तन का रंग काला
डंसती दिन की बेचैनी
डंसता पूरी रात सन्नाटा
जन्म मरन का हिसाब
जवानी कब बदली बुढौती में
वंचित आदमी की
नहीं मिलता कोइ लेखा जोखा
दुःख भरी जीवन कहानी
तन से झराझर श्रम
आँखों से रिसता पानी
अभाव का पुलिंदा
जीवन सार शोषित वंचित आदमी का
बार-बार डूबते सूरज में
जीवन का उजास तलाशता
हाय रे चक्रव्यूह कभी ना टूटता
भेद -भ्रष्टाचार का बाण अचूक
वंचित के हक़ पर बार-बार लगता
कुव्यवस्था के पैमाने पर
नीच ठहरता
ना कोई मसीहा वंचित आदमी का अब
ना हक़ का रखवाला
कौन हरे दर्द कौन दे ऊँचाई
शोषित वंचित आदमी को
दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी ...........नन्द लाल भारती ---०३.०८.२०१२
दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी..........?
जीवन संघर्ष, माथे दहकता दर्द
अभाव की चिता पर, सुलगती काया
आँखों का रंग पीला -पीला
तन का रंग काला
डंसती दिन की बेचैनी
डंसता पूरी रात सन्नाटा
जन्म मरन का हिसाब
जवानी कब बदली बुढौती में
वंचित आदमी की
नहीं मिलता कोइ लेखा जोखा
दुःख भरी जीवन कहानी
तन से झराझर श्रम
आँखों से रिसता पानी
अभाव का पुलिंदा
जीवन सार शोषित वंचित आदमी का
बार-बार डूबते सूरज में
जीवन का उजास तलाशता
हाय रे चक्रव्यूह कभी ना टूटता
भेद -भ्रष्टाचार का बाण अचूक
वंचित के हक़ पर बार-बार लगता
कुव्यवस्था के पैमाने पर
नीच ठहरता
ना कोई मसीहा वंचित आदमी का अब
ना हक़ का रखवाला
कौन हरे दर्द कौन दे ऊँचाई
शोषित वंचित आदमी को
दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी ...........डॉ नन्द लाल भारती
जीवन संघर्ष, माथे दहकता दर्द
अभाव की चिता पर, सुलगती काया
आँखों का रंग पीला -पीला
तन का रंग काला
डंसती दिन की बेचैनी
डंसता पूरी रात सन्नाटा
जन्म मरन का हिसाब
जवानी कब बदली बुढौती में
वंचित आदमी की
नहीं मिलता कोइ लेखा जोखा
दुःख भरी जीवन कहानी
तन से झराझर श्रम
आँखों से रिसता पानी
अभाव का पुलिंदा
जीवन सार शोषित वंचित आदमी का
बार-बार डूबते सूरज में
जीवन का उजास तलाशता
हाय रे चक्रव्यूह कभी ना टूटता
भेद -भ्रष्टाचार का बाण अचूक
वंचित के हक़ पर बार-बार लगता
कुव्यवस्था के पैमाने पर
नीच ठहरता
ना कोई मसीहा वंचित आदमी का अब
ना हक़ का रखवाला
कौन हरे दर्द कौन दे ऊँचाई
शोषित वंचित आदमी को
दर्द भरी दुनिया कैसे रास आयी ...........डॉ नन्द लाल भारती
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