उजड़ी बस्ती का आदमी
उजड़ी हुई बस्तियों में
फिर
बेख़ौफ़ बहकने लगी है
लपटें
मानवीय दर्द-अमानवीय दाह-कर्म
बार-बार की पुनरावृति से
सुलगते रहते है दर्द
और उठते रहते है सवाल
अपराधी कौन
दुर्भाग्य इंसानियत का
आतंक बूढ़ी व्यवस्था का
नहीं होता समाधान
तबाही रचती छूत-अछूत के अपराधियों की
सुनाती रहती दास्तान
कहा फर्क पड़ता है
छूत -अछूत की दुनिया में
कर्म-मानव धर्म -फ़र्ज़ कत्लेआम
बावरा दबा कुचला बेवस
विह्वल रचने को पहचान
करता रहता लाख कोशिश
दबे कुचले की घायल पहचान
जग बदला ना बदला बूढा विधान
ना थमती छूत-अछूत की लपटें
जारी नसीब की ठगे हक़ की डकैती
मानवता पर दाग भेदभाव
गढ़ देता छोटे लोग बड़े इल्जाम
शोषित के दिल में सुलगते दर्द
नयनो में बसते नव्य सपने
कैसा अन्याय ...?
विकास की धुरी शोषित
क्या मिला इस जग में
अछूत का दहकता दर्द
हाडफोड़ श्रम अछूत का जीवन संग्राम
छूट -अछूत की दुनिया
दर्द दहकता दर्द और प्रलय प्रवाह
पग-पग पर अगिन परीक्षा
कर दिया जाता फेल बार-बार
हे छूट -अछूत दुनिया के रखवालो
उजड़ी बस्ती का आदमी
कैसे कहे आभार ...........नन्दलाल भारती /०८.०७.२०१२
Sunday, July 8, 2012
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