कलम का सिपाही/कविता
जिंदगी के ख्वाब थे ,अपने भी हरे-भरे ,
वाह रे कैद नसीब के मालिक
धरातल पर जब-जब उतरे ,
दिल रोया पाँव जले ......
हाल क्या बयाँ करू
निशान दहकते दाग बन चुके
जिद पक्की ना हारे ना रुके .......
निरापद को सजा ऐसी
भविष्य दहल गया ,
हरा -भरा ख्वाब पतझर बन गया .....
बदल युग, दर्द का ना थमा सिलसिला
सपने कत्लेआम वही
जहां जीवन का मधुमास बिता ........
दहकते घाव पर ना हार ना रार
उसूल की राह चलता रहा
मरते सपनों का भर थामे
घंटी की तरह बजता ही रहा ...
कलम साथ, करने की जिद
आखिर बयार ने रुख बदल दिया ,
आस के बाग़ उग गये
जीने के सहारे मिल गए .........
करामात ये जमात
दर्द से भरे हम वही पर
साथ जमात है
यही कर्म की सौगात है ........
बरखुरदार ,हम तो दीवाने
समय के पुत्र दर्द पीते हैं
जहां के लिए जीते है .......
ढाढस यही अपना भी
हौशले के स्याही से
शब्द बीज बोता चला गया
ना टूटे कसमे वादे
कलम का सिपाही कहा गया ......डॉ नन्द लाल भारती 14 .07 .2013
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