कनक जैसा निशाँ/कविता
ये अपनी जहां में ,
रंज और दर्द बोने वालो,
जर्जर कश्ती के मालिक
हाशिये के लोगो की ,
नसीब के कातिलो
जान लो ,
हाशिये का आदमी
अपनी सांस पर जिन्दा है ,
अपनी सांस पर जिन्दा है ,
दर्द की दरिया में ढकेल कर ,
तुम कहाँ शर्मिंदा हो ,
सोचो ज़रा ,
दहकते दर्द में झोंककर ,
क्या पाये …?
क्या पा जाओगे …?
क्या पा जाओगे …?
बंधी मुट्ठी आये
हाथ फैलाये जाओगे,
जीवन का उदेश्य
सफल हो गया होता
किये होते
समता सदभावना और
परमार्थ का काम ऐसा
सफल हो गया होता
किये होते
समता सदभावना और
परमार्थ का काम ऐसा
पत्थरो पर भी
लकीर खींच जाते
लकीर खींच जाते
ये रंज और दर्द बोन वालो
काल के गाल पर ,
कनक जैसा
निशाँ छोड़ जाते …।
निशाँ छोड़ जाते …।
डॉ नन्द लाल भारती
10 जून 2014
10 जून 2014
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