ना इम्तहां लो /कविता
ये दोस्त सब्र की इम्तहां ने ,
ये दोस्त सब्र की इम्तहां ने ,
वो सब हदें पार कर दी है ,
जीवन में जो था जरुरी ,
हाय रे दमित आदमी ,
नहीं उबर पाया
श्रापित जीवन से।
श्रापित जीवन से।
नहीं आज़ाद हो पायी उसकी
कैद नसीब ,
श्रम भी अभिशापित हो गया है।
हाल ये हो गया है जनाब
दमित होने के नाते ,
आज खूबियों को भी उसकी
ऐसे परोसा जाता है
जैसे कोई भारी गुनाह हो गया हो ।
शायद इसी रंज में बनी रहे दूरियां ,
ना छंट सके मजबूरियां
गूंजती रहे सिसकियाँ ।
दमित लोग जीते रहे
अभिशापित जीवन
असि की भयावह धार पर।
ये अपनी जहां वालो
जाति दंश से श्रापित लहूलुहान लोग
इंसान है उन्हें भी
इंसान होने का पूरा हक़ तो दो ।
कब तक करते रहोगे फुफकार
कब तक उनकी जहां पर
बने रहोगे अवैध कब्जाधारी
आखिरकार बाँध टूट जाएगा ।
अब ना दमित आदमी की इम्तहां लो
वक्त की मांग है
दमित शोषित को
सामाजिक -आर्थिक समानता का
तो हक़ दो।
डॉ नन्द लाल भारती तो हक़ दो।
11 जून 2014
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