\\झूठे ढोल \\
भेद भ्रष्ट्राचार क्या खुदाई
श्रम के कातिल लगाते है
ठहाके
जीते-मरते मरते सपनों कि
लाश
ढोते फ़र्ज़ के सिपाही
थक जाते
लूट रही नसीब उनकी
हक़ का चीरहरण
फरेबियों का देखो खेल
लूट रहे तकदीर निरंतर
सर्वहारा की बस्ती में
नहीं गूंजता कोई
विकास का मंतर
छल-बल दमन का कोड़ा
फटकारते
कंस को
आराध्य मानने वाले
शोषित आदमी कि नसीब
बेख़ौफ़ लूट कर
आगे बढ़ जाते
अफ़सोस प्यारे
भूख पसरी है द्वारे
उपाय फेल सारे
झूठे ढोल फोड़ रहे
कान हमारे.................नन्द लाल भारती ..२९.११.2011
Monday, November 28, 2011
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