Monday, April 29, 2013

अपयश/कविता

अपयश/कविता 
दिल की बगिया में बोये सपने
धुधली निगाहों में बसे रह गए
काश हकीकत में होते कुसुमित
सपनों के सौदागर
खंजर भांजते चले गए
पसीने की सुगंध साथ थी जो
पहचान गढ़ती रही वो
अपनो की भीड़ में पराये हो गए
नसीब के दुश्मन
जाति -धर्म  के चक्रव्यूह
बिछाते रह गए
सपने मरे बेमौत कर्मफल लूटा
कर्म की जिद थी कमेरी दुनिया के आदमी की
धुधली निगाहों में सपने बचे रह गए
ढोंग के पुजारी नसीब के माथे
अपयश मढ़ते रह गए ......डॉ नन्द लाल भारती 30.4 .2013      

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