सचमुच लगाने लगा है
सचमुच लगाने लगा है
अपने जहां का बंटवारा
जन्म से मौत तक की
सजा है ......................
तभी तो ज्ञान-विज्ञानं
आधुनिक युग में भी
सामान लहू के रंगवाला
आदमी अछूत है
दोयम दर्जे का बना
दिया गया है अपने जहां में.............................
हंसी आदमी की ऐसे
आज भी नही भाती है
लांछन और भेद का जहर
पल-पल-परोसा जा रहा है ...................
मानवीय समानता का कोई
पैरवीकार नहीं बचा है जैसे
विष बीज बोये जा रहे है
ज्ञानमंदिर हो चाहे
भगवन का मंदिर .................
अपना ही जहां नरक का
द्वार लगाने लगा है
स्वर्ग लगे भी तो कैसे
यहाँ तो भेदभाव,नफ़रत का
कलिआ नाग फुफकारे लगा रहा है ...........................
यही फुफकार है की
पोष रही है जातिवाद
डकार रही है हक़ बढ रहा है
भ्रष्टाचार ,अत्याचार और
छिना जा रहा है
आदमी होने का सुख भी
ऐसे भयावह वक्त में भी
उम्मीद के बदल डटे हुए है
मानवीय समानता की गूँज उठेगी
भूमिहीनता का अभिशाप कटेगा
बुद्ध के सपने जी उठेगे
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय
जीओ और जीने दो का नारा
बुलंद करे
वही लोग,जिनकी मानसिक पैदावार है
भेद का दहकता दरिया
ना जाने समता क्रांति का
इन्तजार कब तक करना होगा
अभी तो दिल रो रहा है
सच बदलते दौर में भी
अपना ही जहां नरक का
द्वार लगाने लगा है .....नन्द लाल भारती 11.10.2012
सचमुच लगाने लगा है
अपने जहां का बंटवारा
जन्म से मौत तक की
सजा है ......................
तभी तो ज्ञान-विज्ञानं
आधुनिक युग में भी
सामान लहू के रंगवाला
आदमी अछूत है
दोयम दर्जे का बना
दिया गया है अपने जहां में.............................
हंसी आदमी की ऐसे
आज भी नही भाती है
लांछन और भेद का जहर
पल-पल-परोसा जा रहा है ...................
मानवीय समानता का कोई
पैरवीकार नहीं बचा है जैसे
विष बीज बोये जा रहे है
ज्ञानमंदिर हो चाहे
भगवन का मंदिर .................
अपना ही जहां नरक का
द्वार लगाने लगा है
स्वर्ग लगे भी तो कैसे
यहाँ तो भेदभाव,नफ़रत का
कलिआ नाग फुफकारे लगा रहा है ...........................
यही फुफकार है की
पोष रही है जातिवाद
डकार रही है हक़ बढ रहा है
भ्रष्टाचार ,अत्याचार और
छिना जा रहा है
आदमी होने का सुख भी
ऐसे भयावह वक्त में भी
उम्मीद के बदल डटे हुए है
मानवीय समानता की गूँज उठेगी
भूमिहीनता का अभिशाप कटेगा
बुद्ध के सपने जी उठेगे
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय
जीओ और जीने दो का नारा
बुलंद करे
वही लोग,जिनकी मानसिक पैदावार है
भेद का दहकता दरिया
ना जाने समता क्रांति का
इन्तजार कब तक करना होगा
अभी तो दिल रो रहा है
सच बदलते दौर में भी
अपना ही जहां नरक का
द्वार लगाने लगा है .....नन्द लाल भारती 11.10.2012
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