दगा का वफ़ा से है रार/कविता
अपनी जहां में
नफ़रत के रूप अनेक
नफ़रत के रूप अनेक
दर्द है हजारो हजार ,
यहाँ पथरायी आँखों पर ,
होते है धारदार वार।
शोषित भले ईमान सुनहरा ,
हाय रे अपनी जहां वाले ,
मढ़ देते घिनौना दाग,
मढ़ देते घिनौना दाग,
घायल ईमां रोने पर भी नहीं रिसते
पथरायी आँखों से कैसा दुर्भाग्य।
भरी महफ़िल में बेपर्दा हुआ मुखौटा
कल था जो सरताज,
आँखे ना बरसीं पर दिल बहुत रोया
माथा वही जहां थमा था नाज।
सम्भलते-सम्भलते
सम्भल ही गया पर
सम्भल ही गया पर
क़त्ल हुआ था भयावह यादगार ,
ना जाने क्यों यारो अपनी जहां में
दगा का वफ़ा से है रार।
डॉ नन्द लाल भारती 14 .03 2014

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