Thursday, May 8, 2014

उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे /कविता

उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे /कविता
बंद मुट्ठियाँ  फ़ैलने क्या लगी ,
कि
मुर्दाखोर दृष्टि बिछाने मे ,
जुट गयीं जाल ,
लाख उद्यम के बाद भी
 सुरक्षित नहीं  रहा अपनी जहाँ मे ,
मान-सम्मान और अधिकार
लूट गये हक और नसीब भी
दमन ,शोषण के
तमाम औजारो के साथ
तन गयी
आदमियत विरोधी सरहदें भी
फैलती हथेलियों पर
धार्मिक सुलगते सलाखों से
लगा  दिया गया ,
अछूत होने का ठप्पा
उद्यम के माथे थम गयी बदनसीबी
ताकि बनी रहे सत्ता
भय-भ्रम -भूख के चक्रव्यूह मे
फंसे शोषित हाशिये के अछूत  लोग
बने रहे गुलाम
ये अपनी जहां वालो
अब तो आगे आओ
बंद मुट्ठियों को फ़ैलने दे
उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे
वक्त आ गया है
आदमी को आदमी समझने का
तोड़ने का सामाजिक-आर्थिक
विषमता की हर सरहदे
उत्थान की दास्ताँ गढ़ने दे ..........
डॉ नन्द लाल भारती
 15 -एम  वीणा नगर ,इंदौर -452010
7  मई  2014

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