चाहत /कविता
टूटा दिल हजारो बार लूटा भाग्य अपनी जहां में
वो ना मिली चाह थी सदियों से जिसकी यारो
बेपनाह चाहत आज भी है उसी से
क्या क्या ना हुआ ,आहे भरे नयनो से लहू तक बहे
कुर्बान हूँ आज भी उसी पर अपनी जहां में………।
सितम सहे लाखो दुःख में जीया दर्द पीया
पल-पल जहर भी मिला ,
हाय रे चाहत ना टूटा सिलसिला अपनी जहा में.………।
राह में कांटे फिजा में विष झोकने वालो
तुम्हारी जहा तुमको मुबारक
तुम तो कातिल रह गए भरी जहा में
तुम्हारी साजिशों की प्रेत छाया ,
मैं टूटी डाल का पंछी ,
नसीब कब्रस्तान बना दिया तुम्ही ने
मेहनत का चीर-हरण कर कर डाला तुम्ही ने
आदमी को दलित अछूत बना दिया ,
इंसानियत के दुश्मनो ने भरी जहा में.………।
नहीं माना उनकी आदमखोर सत्ता
कतरा -कतरा फना होती रही ज़िन्दगी
पाषाण पर निशान छूटते रहे अपने भी
नसीब और आदमियत के कातिल
लूटते रहे सपने बोते रहे विष बीज ,
भरी जहा में.………।
मर-मर कर जिया पर न मरी उसकी चाह
सदियों से संघर्षरत आज भी जी रहा हूँ ,
साजिशो का जहर पीकर भी
महबूबा यानि मानवीय समता खातिर
चाह में उसकी हर दर्द सीते ,
टूटा दिल लिए दर-ब-दर आज भी
धर्माधीशों -राजनैतिक सत्ताधीशो ,
जागो उठो, आगे बढ़ो आह्वाहन करो
जातिवाद से परे ,मानवीय समानता का
अपनी जहा में.………। डॉ नन्द लाल भारती 24.05.2014
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