ये दौर कैसा दौर है ये दौर कैसा दौर है
काँटों का सफ़र दर्द का शोर है
बेखुदी उनकी
दर्द सुनने को कानो में
ना बचा जोर है
मूंद आँखे छाती पर
पाँव जमा रहे
भले में भूले अपने ऐसे
खुदा हुए खुद
उनकी रहनुमाई का दौर हो जैसे
बेदर्द कहने को वो भी
आदमी का वेश धरे है
आदमी का वेश धरे है
अरमानो का क़त्ल शौक उनका
स्वार्थ में भले बहे गैर की आँखों से लहू
यही गहने है अमानुषों के
ये दौर कैसा दौर है
जहां दबे -कुचालो की न होती सुनवाई
आह का दहकता दरिया
सपनों ने शक्ल ना पाई
खंड-खंड हुआ इंसान
जाति के तराजू होती आदमी की पैमाइश
देख हाल दबे कुचालो के
आँखों से लहू टपकते
कौन सुने कराह रंग बदलते दौर में
खुदाई का ढोंग है
दबा कुचला किया जा रहा कमजोर है
ये दौर कैसा दौर है
नन्द लाल भारती 15 .5 .2 0 1 3
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