जिस-जिस राह पाँव पड़े प्यारे
लहुलुहान हुए पाँव हमारे
छांव ठहरा तनिक,बबूल की लगी
यकीन किया जिस पर
उसी बेदर्द ने साज समझ लिया
मरते सपनों की थी
शव यात्रा कंधो पर,
पुर्जा-पुर्जा तन का दहल गया
मन बहुत तड़पा
आँखों को भान तो था
बाँध ना टूटा
कुछ लोग बेहतर साबित
होने के लिए
तरह-तरह के हथियार अजमा रहे थे
शरीर ताप,होंठ अपना सुलग रहा था
कंठ आह-आह उगल रहा था
आँखे पथराती रही
कराह से उपजा दर्द
स्वांग लग रहा था
अरमानो की होली दाहक रही थी
उधर जाम के रंग दीवाली मन रही थी
तपस्वी फ़र्ज़ पर अड़ा था
पल-पल विषपान कर रहा था
चीख-पुकार सुने कौन...........?
छोटे लोग गूँज रहा था
मधुमास पतझर हो रहा था
भाग्य बदनाम हो चूका था
तपस्वी लक्ष्य पर तटस्थ था
आखिरकार दुआ कबूल हुई
चमत्कार हो गया
जमे आंसू कनक हो गए
कांटे फूल बन गए
बबूल की छांव,पीपल की हो गयी
मरे सपने जी उठे
गुमानी निगाहों को
सांच को आंच कहा का
बोध हो गया
आदमी छोटा था कल
आज बड़ा..............बहुत बड़ा हो गया......नन्दलाल भारती/ 03.02.2012
Thursday, February 2, 2012
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