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सपनों का महल...
उठने लगी है अंगुलियाँ
खाकी और खाकी पर
जन रक्षक भक्षक
बनने लगे हैं
सफेदी की आड़ में
कला कारोबार होने लगा है
धर्मग्रंथो की कसमे
अब झूठी लगने लगी है............
हवाओं का रुख
बदला-बदला लगने लगा है
आदमी आस्तीन में
साप पालने लगा है
उजियारे पर
अधियारे का अत्याचार
बढ़ने लगा है
कौन सुने फ़रियाद
निरापद को दंड मिलने लगा है............
आस को फांस
थक कर चूर हो रहे पाँव
राहें दिन पर दिन
घुमावदार होती जा रही है
विश्वास और आस्था पर
मर मिटने वालो को
ठगा जा रहा है
हाशिये के आदमी का जीवन
थमा कर्म की नींव महान
इसी पर कर्मयोगी के
सपनों का महल टंग रहा है............नन्दलाल भारती/21.02.2012
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///शुभ शिवरात्रि जय हो भोले भंडारी......मित्रो हार्दिकशुभकामनाएँ कबूल करे हमारी....///
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