गहन तम घेरत नयन
अवगुंठन का वार करत मर्दन
दानव जड़ काट रहे निरंतर
उठ रहे अब स्वर दबी जुबान
अपनी जहां का ना अब
कोई सूरज ना चाँद
सपने दिखाकर
लूटा जाता हक़ हमारा
सत्ता सुन्दरी के होते दर्शन
हो जाता छल-बल का प्रदर्शन
कुछ समझ में नहीं आता
कब दिखेगा
असली आजादी का
सूरज चाँद सितारा
विसार रहे चेतना देह की
जोड़ लो चाहे जितना धन
घिन्न बरसेगी गेह की
देर हुई बहुत पर उठो
बहुजन सुखाय हो जाये
नेक उद्देश्य तुम्हारा
मानव-राष्ट्र धर्म सद्कर्म के
बनो सच्चे नायक
धरा से ना उठे कभी नाम तुम्हारा.......नन्दलाल भारती 26.02.2012
अवगुंठन-घूँघट
गेह-घर
Saturday, February 25, 2012
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