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कर्मयोगी सपूत सच्चे सिपाही की तरह...
राहे ज़िंदगी रोशन ना हुई
अभागा बना दिया गया हो जिसको
सपने बेमौत मरे हो
श्रम पूजा खंडित हुई हो
डराता हो उजाला अँधियारा की तरह
कट रही हो उम्र पगले की तरह...........
जम गए हो आस में, नयनो के नीर
बुत बनकर रह गया हो
कल उपजाऊ था आज भी
बंजर धरती कहा गया हो
ढ़ो रही हो ज़िंदगी
जीवित शरीर लाश की तरह
आदमी बिता रहा ज़िंदगी
आजीवन सजा की तरह...........
भेद का विष भाग्य कैद हो गया हो
आदमी हाशिये का
जिसके कुएं का पानी अछूत हो गया हो
सारे जहां से अच्छा
वही दोयम दर्जे का रह गया हो
आदमी धरा का बसंत की तरह
वही हो रहा पतझर की तरह................
अराध्य हो गया पत्थर जहां
मन तरस आँखे बरस रही वहा
भूमिहीन-वंचित-शोषित-श्रमिक देवता
करता है जगत का विकास
पसीने से नहाती हो धरती जिसके
उगलती हो अन्न मोती की तरह
दुनिया वालो कुछ करो
भूमिहीन-वंचित-शोषित-श्रमिक देवता के
विकास के लिए
कर रहा पग-पग पर विषपान
कर्मयोगी निभा रहा फ़र्ज़
अटल सपूत सच्चे सिपाही की तरह...................नन्दलाल भारती 05.02.2012
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