Friday, November 22, 2013

Hindi कविताye

अस्तित्व /कविता
चिंता की चिता  हुए ,
अस्तित्व संवारने में ,
जुट गया हूँ ,
बाधाएं भी निर्मित कर ,
दी जाती है ,
थकने लगा हूँ,
बार-बार के प्रहार से,
मैं डरता नहीं हार से ,
क्योंकि,
बनी रहती हैं
सम्भावनाये जीत   की
अंतर्मन में उपजे
सदविचारो में ,
अस्तित्व तलाशने लगा हूँ ,
मेरी दौलत की गठरी में हैं ,
कुलीनता,कर्त्तव्य निष्ठां,आदमियत ,
बहुजन सुखाय के ज्वलंत विचार।
जानता हूँ
पीछे मुड़कर देखता हूँ ,
विश्वाश पक्का हो जाता है
कि
मैं स्थाई नहीं परन्तु
स्वार्थी भी नहीं  हूँ
मैं दसूलत संचय के लिए नहीं ,
अस्तित्व के लिए संघर्षरत हूँ
टूटा नहीं है ,
मेरा विश्वास हादशों से ,
निखरी नहीं है ,
मेरी आस जानता हूँ
संभावनाओ के पर नहीं टूटे है ,
भले ही
दौलत की तुला पर निर्बल हूँ
कलम का सिपाही हूँ ,
बिखरी आस को जोड़ने में लगा हूँ ,
चिंता की चिता पर ,
सुलगते हुए भी
कलम पर धार दे रहा हूँ
अभी तक टूटा नहीं हूँ मैं,
दिल की गहराई में पड़े है
ज्वलंत साद विचारो के
ज्वालामुखी
जो
अस्तित्व को ,
जिन्दा रखने के लिए काफी है
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010








मुखौटा /कविता
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते ,
बेगाने जहा में ,
जीते रहे मरते-मरते
जहर पीए भेद भरी दुनिया में ,
गम से दबे डूबे रहे ,
आतंक अपनो का ,
अमानवीय दरारो के धूप,
छलते रहे ,
ना मिली छांव ,
रह गए दम्भ में भटकते-भटकते
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते ………………
उम्मीद कीजमीन पर ,
विश्वास की बनी है परते ,
विरोध की बयार में भी ,
दिन गुजरते रहे ,
स्याह रात से बेखबर ,
उजास ढूढते रहे ,
घाव के बोझ ,
फूंक-फूंक कदम रखते रहे ,
बिछुड़ गए कई ,
लकीर पर फ़क़ीर रहते -रहते ,
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
दिल में जवान मौसमी बहारे ,
गुजर रही यकीन पर राते
ना जाने कौन से नक्षत्र
वक्त ने फैलाई थी बाहें ,
कोरा मन था जो बेबस है ,
अब भरने को आहें
आदमी की भीड़ में ,
थक रहे अपना ढूढते ढूढते
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
नहीं अच्छा बंटवारा ,
जाति -धर्म के नाम पर
जुल्म रोकिये
खुदा के बन्दे सच्चे ,
छोटे हो या बड़े हर बन्दे को ,
गले लगाईये ,
समता शांति के नामे ,
मुखौटे नोंच  दीजिये ,
करवा गुजर गया ,
ना मिला सकून ,
लकीर पीटते -पीटते ,
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010








सम्भावना के फूल /कविता
जख्म पर जख्म
 अपनी ही जहां में
साथ चलने वाला ना मिला।
रोटी का बंदोबस्त ,
सर की छांव का इंतजाम ,
पसीने के भरोसे ,
विभाजित जहां में
सम्मान ना  मिला।
सर्वसमानता के नारे
कान तो गुदगुदाते ,
जख्म के अलावा
 कुछ ना मिला ,
भ्रमवश माना ,
तकदीर के खिल गए फूल ,
हकीकत में ,
टूटा हुआ आईना मिला।
घाव और गहरा हो गया
जब आदमी के चहरे पर
मुखौटा ही मुखौटा मिला।
कथनी और करनी को ,
खंगाला जब ,
आदमियत का लहूलुहान ,
चेहरा मिला।
आँखों में सपने ,
दिल घायल मगर ,
अपनो की महफ़िल में ,
मीठा जहर मिला।
बड़ी मन्नते थी ,
चखें आज़ादी का स्वाद असली ,
बिखर गए उम्मीदे ,
मानवीय एकता को ना ,
अवसर मिला।
छाएगी समता ,
चौखट -चौखट  होगी सम्पन्नता
सम्भावना का है ,
फूल खिला…………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010






विष बीज/कविता
चक्रव्यूह में फंसा  हूँ ,
आखिरकार ,
वह कौन सी योग्यता  है  ,
मुझमे नहीं है  जो ,
ऊँची -ऊँची डिग्रिया है ,
मेरे पास ,
सम्मान पत्रो की ,
सुवास भी तो है ,
अयोग्य हूँ फिर भी क्यूँ……… ?
शायद अर्थ की तुला पर
व्यर्थ हूँ ,
नहीं नहीं। .......
पद की दौलत मेरे पास नहीं है
बड़ी दौलत तो है ,
कद की ,
सारी दौलत उसके
 सामने छोटी है
फिर भी,
 अस्तित्व पर हमला ,
जुल्म शोषण,
अपमान का जहर
भेद की बिसात ..........
ये कैसे लोग है ?
भेद के बीज बोते है ,
बड़ा होने का दम्भ भरते है
अयोग्य होकर ,
कमजोर की योग्यता को,
नकारते है ,
आदमी को छोटा मानकर,
दुत्कारते है
सिर्फ जन्म के आधार पर,
कर्म का कोई स्वाभिमान नहीं ………
ये कैसा दम्भ है ,
बड़ा होने का ,
पैमाईस में छोटा हो जाता है ,
ऊँचा कर्म ऊंचा कद और
सम्मान भी।
कोई  तरीका है ,
विषबीज को नष्ट करने का ,
आपके पास
यदि हां तो श्रीमानजी,
अवश्य अपनाये
गरीब,वंचित, उच्च कर्म
और
कदवांन  को
कभी ना सताने की,
कसम खाये ,
सच्ची मानवता है यही
और
आदमी का फ़र्ज़ भी। ...........

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010






तस्वीर/कविता
ये कैसी तस्वीर उभर रही है ,
आँखों का सकून ,
दिल का चैन छिन  रही है .
 अम्बर घायल हो रहा है
अवनि सिसक रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
चहुंओर तरक्की  की दौड़ है
भ्रष्टाचार,महंगाई ,
मिलावट का दौर है ,
पानी बोतल में,
 कैद हो रहा है ,
जनता तकलीफो का
बोझ धो रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
बदले हालत में
 मुश्किल हो रहा है
जहरीला वातावरण,
 बवंडर उठ रहा है
जंगल और जीव
तस्वीर में जी रहे है
ईंट पत्थरो के जंगल की
बाढ़ आ रही है
ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
आवाम शराफत की चादर
ओढ़े सो रहा है।
समाज,भेदभाव और
गरीबी का
अभिशाप धो रहा है।
एकता के विरोधी ,
खंजर पर धार दे रहे है ,
कही जाति कही धर्म की ,
तूती  बोल रही है
 ये कैसी तस्वीर उभर रही है …………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
 
तुला/कविता
नागफनी सरीखे उग आये है
कांटे ,
दूषित माहौल में
इच्छाये मर रही है नित
चुभन से दुखने लगा है,
रोम-रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है
चुभन कुव्यवस्थाओं की
रिसता जख्म बन गया है
अब भीतर-ही-भीतर।
सपनो की उड़ान में जी रहा हूँ'
उम्मीद का प्रसून खिल जाए
कहीं अपने ही भीतर  से।
डूबती हुई नाव में सवार होकर भी
विश्वास है
हादशे से उबार जाने का
उम्मीद टूटेगी नहीं
क्योंकि
मन में विश्वास है
फौलाद सा ।
टूट जायेगे आडम्बर सारे
खिलखिला उठेगी कायनात
नहीं चुभेंगे ,
नागफनी सरीखे कांटे
नहीं कराहेगे रोम-रोम
जब होगा ,
अँधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की,
तुला पर तौलकर
भले ही दुनिया कहे व्यर्थ…………………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010




आदमी बदल रहा है /कविता
देखो आदमी बदल रहा है ,
आज खुद को छल रहा है,
अपनो से बेगाना हो रहा है ,
मतलब को गले लगा रह है ,
देखो आदमी बदल रहा है …………
औरो के सुख से सुलग रहा है ,
गैर के आंसू पर हस रहा है,
आदमी आदमियत से दूर जा रहा है देखो आदमी बदल रहा है …………
आदमी आदमी  रहा है
आदमी पैसे के पीछे भाग रहा है ,
रिश्ते रौंद रहा है ,देखो आदमी बदल रहा है …………
इंसान की बस्ती में भय पसर रहा  है ,
नाक पर स्वार्थ का सूरज उग रहा है ,
मतलब बस छाती पर मुंग दल रहा है देखो आदमी बदल रहा है …………
खून का रिश्ता धायल हो गया है
आदमी साजिश रच रहा है
आदमी मुखौटा बदल रहा है देखो आदमी बदल रहा है …………
दोष खुद का समय के माथे मढ़ रहा है ,
मर्यादा का सौदा कर रहा है ,
स्वार्थ की छुरी तेज कर रहा है ,देखो आदमी बदल रहा है …………
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010




आसमान/कविता
पीछे डर आगे विरान है,
वंचित का कैद आसमान है
जातीय भेद की,
 दीवारों में कैद होकर
सच ये दीवारे जो खड़ी है
आदमियत से  बड़ी है .
कमजोर आदमी त्रस्त  है
गले में आवाज़ फंस रही है
मेहनत और
योग्यता  दफ़न हो रही है ,
वर्णवाद का शोर मच रहा है
ये कैसा कुचक्र चल रहा है।
साजिशे रच रहा आदमी
फंसा रहे भ्रम में ,
दबा रहे दरिद्रता और
जातीय निम्नता के दलदल में ,
बना रहे श्रेष्ठता का साम्राज्य
अट्ठहास करती रहे ऊचता।
जातिवाद साजिशो का खेल है
अहा आदमियत फेल है ,
जमीदार कोई साहूकार बन गया है
शोषित शोषण का शिकार हो गया है।
व्यवस्था में दमन की छूट है
कमजोर के हक़ की लूट है।
कोई पूजा का तो
 कोई नफ़रत का पात्र है
कोई पवित्र कोई अछूत है
यही तो जातिवाद का भूत है।
ये भूत  अपनी जहा में जब तक
 खैर नहीं शोषितो की
आज़ादी जो अभी दूर है ,
अगर उसके द्वार पहुचना है
पाहा है छुटकारा
जीना है सम्मानजनक जीवन
बढ़ना है तरक्की की राह
गाड़ना है
आदमियत की पताका तो
तलाशना होगा और
आसमान कोई ...........डॉ नन्द लाल भारती










मौत/ कविता
जमीन  पर अवतरित होते ही ,
बंद मिठिया भी भींच जाती हैं ,
रुदन के साथ ,
गूंज उठता है संगीत ,
जमीन पर अवतरित होते ही।
आँख खुलते ,होश में आते,
मौत का डर बैठ जाता है ,
वह भी ढ़ीठ जुट जाती है ,
मकसद में।
जीवन भर रखती है ,
डर में ,
स्वपन में भी ,
भय पभारी रहता है ,
हर मोढ़ पर खड़ी रहती है
मौके की तलाश में।
ढीठ पीछा करती है ,
भागे-भागे ,
आदमी चाहता है ,
निकलना आगे
भूल जाता है,
पीछे लगी है मौत ,
अभिमान सिर  होता है
दौलत का ,
रुतबे की आग में कमजोर को
जलाने की जिद भी।
अंततः खुले हाथ समा जाता है ,
मौत के मुंह में,
छोड़ जाता है ,
नफ़रत से सना खुद का नाम।
कुछ लोग जीवन-मरन  के
पार उतर जाते हैं
आदमी से देवता बन जाते है ,
दरिद्रनारायण की सेवा कर।
मौत सच्चाई है ,
अगर अमर है होना ,
ये जग वालो ,
नेकी के बीज ही होगा बोना।
डॉ नन्द लाल भारती
साथ/कविता
जीवन क्या……?
जो जी लिया वही अपना
लोग पाये दुनिया परायी,
 सच है कहना।
जीवन में कैसे -कैसे धोखे ,
मोह ने लूटे ,
मतलब बस संग ,
डग भरते लोग खोटे।
मतलबी औरो को बर्बाद कर ,
शौक में जीते ,
आदमियत की छाती में ,
नस्तर घोप देते है।
भेद के पुजारी ,
चोट गहरा कर देते है।
गरीब के भाग्य का
ना हुआ उदय सितारा ,
गैरो की क्या .......?
अपनो ने हक़ है  मारा।
बदनेकी पर नेकी की
चादर दाल देते है ,
स्वार्थ में क्या मरना…?
सब साथ हो लेते है। डॉ नन्द लाल भारती


मंतव्य/कविता
ना जाने लोग क्यों ,
दबे हुए को दबाना चाहते हैं ,
नकाब तो ओढ़ते हैं ,
चोट खतरनाक करते हैं
वहॉ लोग,
त्याग की बात करते हैं। 
गाँठ  रखने  वालो का
कैसा भरोसा ……… ?
ये तो मंतव्य को तरासते हैं
गरीब का शोषण शौक ,
हक पर डाका
अधिकार समझते हैं।
बंदिशों  की तपन नहीं तो ,
और क्या कहे  ....?
 शोषित आज भी सिसक रहे ,
हर कोइ उम्मीद पर ,
खरा चाहता है ,
कर दरकिनार सिसकिया ,
दोहन चाहता है।
दबे हुए को दबाने का,
आतंक जारी है ,
यही तो बदनसीबी है ,
आंसू में बह रही  योग्यता सारी ,
क्या दबे को दबाना खुदाई है ,
तूफ़ान का  डर ,
आदमियत से जुदाई है ,
अगर श्रेष्ठ बनाने की ,
लालसा है दिल में
दबे कुचलों का करे उध्दार ,
सच्चे मन से ,
मिल जायेगा श्रेष्ठता का गंतव्य ,
मन में जब बसेगा गंगा सा मंतव्य… डॉ नन्द लाल भारती


रंज छाने लगा है/कविता
नाज पर आज अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है ,
मोह भी क्या बला है अपनो की ,
अपनी जहा में यारो ,
गले में सांस रुकने लगा है।
ना जाने कौन सा ,
इम्तहान अभी बाकी है
 संवारने की तमन्ना में ,
टूटते-बिखरते -जुड़ते रहा ,
उम्र भर
ना जाने क्यों अपनी जहां में ,
रंज छाने लगा है।
हादशों की गवाह   उम्र अपनी
नए -पुराने दर्द पोर-पोर चटकाते  ,
बदले वक्त में एक-एक घाव ,
भारी बहुत भारी लगाने लगा है।
ये खुदा बख्श दे अब कोई ताबीज ,
अपनी जहाँ का दर्द ,
सताने लगा है ,
नाज पर अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है।
डॉ नन्द लाल भारती / 11. 11. 2013



परिवर्तन/कविता
ह्रदय दीप मेरा ,
परिवर्तन का आगाज़ है ,
दीप को लहू दे रहा ऊर्जा ,
तन तपकर दे रहा है रोशनी ,
मन कर रहां ,
सच्ची विचारो का  आह्वाहन ,
मानवीय समानता के लिए।
भूख से कराह रहा ,
समानता की प्यास है ,
आर्थिक उत्थान  की
अभिलाषा है ,
कायनात के संग चलने की ,
सफ़र में बड़ी मुश्किलें है ,
पग-पग पर ]
बंटवारे के शूल खड़े है
हैम तो परिवर्तन के लिए ,
चल पड़े हैं.
 कर रहे है हवन
जीवन के बसंत को
बस,
 मानवीय समानता के लिए।
बुध्द ने यही कहा है
अप्पो दीप्पो भवः
बहुजन सुखाय का,
 मंत्र दिया है
जरुरी है
मानवीय एकता के लिए
बुराईयो पर ,
 हो गया  काबू
जिस दिन
धरती से मिट जायेगा
शोषण,उत्पीड़न और
वंचित का दमन भी
आओ परिवर्तन की मशाल
ह्रदय दीप से जलाये ,
मानवीय समानता के लिए …… डॉ नन्द लाल भारती
बदलते वक्त में /कविता
बदलते वक्त में खुद की तस्वीर,
टूटती हुई पाता  हूँ ,
रहनुमाओ की भीड़ में
दिल पर दर्द का बोझ पाता हूँ।
बहार भरे जहा में ,
कांटो की छांव पाता हूँ ,
हंसी के बीच आदमी को ,
उखड़ा-उखड़ा पाता  हूँ
क्या ख्वाब थे ,
बदलते वक्त में भी,
उजड़ा पाता हूँ
प्यासा मन प्यास के आगे ,
सांझ पाता हूँ।
क्या उमस है बंजर दिलो की ,
रिसते घाव बहते आंसू पाता हूँ ,
हवा भी कर रही खिलाफत ,
बदला तेवर पाता हूँ।
नैतिकता अपनी अडिग ,
पर जड़ हिलती पाता हूँ।
ना मिली समानता ,
पग-पग पर दीवार पाता हूँ।
क्या कहूँ दिल की बात ,
शब्दों की तपन से ,
होंठ सुलगता पाता हूँ ,
ना बदला ज़माना ,
हर और टूटती तस्वीर पाता हूँ……। डॉ नन्द लाल भारती
लब्ज/कविता
मेरे लब्ज ही मेरी गुहार है ,
और
उपस्थिति भी ,
देना चाहते है दस्तक
पाषाण दिलों पर ,
चाहते है ,
मानवीय एकता का वादा भी।
मेरे लब्ज ही मेरी पहचान है ,
मांगते है जो ,
समानता का अधिकार ,
मानवीय भेदभाव का करते है ,
बहिष्कार ,
बिखराव को सद्भाव में ,
बदलने की है ललक ,
कद की ऊंचाई का भी ,
यही है रहस्य।
मानवता के काम आये ,
महापुरुषो के अमर है
निशान ,
उनके एक-एक लब्ज
जीवित है ,
समानता,शांति और
सद्भावना के लब्ज,
मुझे भी देते है ,
हौशला शक्ति और
सामर्थ्य भी।
तभी तो,
 मानवीय भेद से लहुलुहान ,
कुरीतियो के त्याग की,
 बात कर रहा हूँ
विषमता के धरातल पर ,
विष पीकर भी
समानता के लब्ज जोड़ रहा हूँ ……डॉ नन्द लाल भारती
लकीर/कविता
खुली आँखे सपने आते,
सुनहरे प्यारे ,
विषमाद की आंधी ,
उड़ा ले जाती सारे।
कहाँ उम्मीद थमे ,
अपने-पराए बनते,
अवसर की ताक ,
 आस्तिन में साप रखते ।
भरे जहां में खो गया सकून ,
उजड़ी उजास ,
मोह का तूफ़ान,
घायल हो रही आस।
आँखों के नीर से ,
मतलब सींचने लगे है लोग,
हक़ छीन, ऊँचे आसन की आड़
करते हैं उपभोग।
आहत मन,चढ़े तराजू हरदम ,
दबंग की शान ,
ईमान पाये हलाहल ,
श्रम परेशान।
बूढ़ी व्यस्था बूढ़ी हुई सदिया ,
रौनक ना आयी ,
अटल लकीरे विषैली ,
क्या खूब यौवन है पायी।
फ़र्ज़ की ओट सह रहा चोट ,
वंचित इंसान ,
मिटा दो भेद की लकीरें,
जिसे संवारा है इंसान।  डॉ नन्द लाल भारती




पहचान/कविता
अब्र की कब्र पर,
बैठा आदमी ,
आदमियत का ,
क़त्ल कर रहा है आज
दुखती नब्ज को ,
कब्ज बख्श रहा
पसीजते घाव की,
बन रहा है  खाज
मन की मज़बूत गांठे,
मतलब तौल रहा
सकून से परे ,
संदेह में जी रहा ,
बहकने का जाम,
बहाना था काफी ,
आज खुद,
बहक रहा आदमी ,
जेहन में जहर ,
बेपरदा हो रहा है आदमी ,
छल का आदी ,
हो गया आदमी ,
जीवन मूल्य से ,
बिछुड़ गया आदमी
मानवता के राही को,
 दंश दे रहा आदमी
होगा जहां रोशन ,
मानवता को धर्म,
मान ले आदमी
……डॉ नन्द लाल भारती

तलाश/कविता
कविता की तलाश में ,
फिरता हूँ ,
खेत,खलिहान,बरगद की छांव ,
पोखर,तालाब बूढ़े कुएं ,
संपन्न शहर ,साधनविहीन गांवं
सामाजिक पतन ,भय,भूख ,
बेरोजगारी में झाकता हूँ ,
मन की दूरी ,
आदमी की मज़बूरी में ,
तकता हूँ ,
खाकी और खड़ी में तलाशता हूँ,
दहेज़ की जलन ,अर्धबदन ,
अत्याचार,आतंक ,
चूल्हे की आग ,
रोटी की गोलाई को ,
मापता हूँ ,
मूक पशुओ के क्रुन्दन ,
आदमी के मर्दन ,
ऊँचे पहाड़ ,नीचे मैदान में ,
उतरता हूँ
बैलगाड़ी की चाल ,
जहाज की रफ़्तार देखता हूँ,
गांव के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर
 चलता हूँ ,
शहर की सीमेंट -कंक्रीट की
 सडको में तलाशता हूँ,
कविता को हर कहीं,
 तलाशता हूँ ,
कही भी नहीं पाता हूँ ,
खुद के अंदर गहराई में ,
उतरता हूँ
कविता को ,
अनेको रूपो में पाता  हूँ ,
सच यही तो है ,
वह गहराई जहां से
 उपजती  है कविता ,
आत्मा की ऊंचाई और
दिल की गहराई से। …………डॉ नन्द लाल भारती

Tuesday, November 12, 2013

साथ/कविता

साथ/कविता
जीवन क्या……?
जो जी लिया वही अपना
लोग पाये दुनिया परायी,
 सच है कहना।
जीवन में कैसे -कैसे धोखे ,
मोह ने लूटे ,
मतलब बस संग ,
डग भरते लोग खोटे।
मतलबी औरो को बर्बाद कर ,
शौक में जीते ,
आदमियत की छाती में ,
नस्तर घोप देते है।
भेद के पुजारी ,
चोट गहरा कर देते है।
गरीब के भाग्य का
ना हुआ उदय सितारा ,
गैरो की क्या .......?
अपनो ने हक़ है  मारा।
बदनेकी पर नेकी की
चादर दाल देते है ,
स्वार्थ में क्या मरना…?
सब साथ हो लेते है। डॉ नन्द लाल भारती

Monday, November 11, 2013

मंतव्य/कविता

मंतव्य/कविता
ना जाने लोग क्यों ,
दबे हुए को दबाना चाहते हैं ,
नकाब तो ओढ़ते हैं ,
चोट खतरनाक करते हैं
वहॉ लोग,
त्याग की बात करते हैं। 
गाँठ  रखने  वालो का
कैसा भरोसा ……… ?
ये तो मंतव्य को तरासते हैं
गरीब का शोषण शौक ,
हक पर डाका
अधिकार समझते हैं।
बंदिशों  की तपन नहीं तो ,
और क्या कहे  ....?
 शोषित आज भी सिसक रहे ,
हर कोइ उम्मीद पर ,
खरा चाहता है ,
कर दरकिनार सिसकिया ,
दोहन चाहता है।
दबे हुए को दबाने का,
आतंक जारी है ,
यही तो बदनसीबी है ,
आंसू में बह रही  योग्यता सारी ,
क्या दबे को दबाना खुदाई है ,
तूफ़ान का  डर ,
आदमियत से जुदाई है ,
अगर श्रेष्ठ बनाने की ,
लालसा है दिल में
दबे कुचलों का करे उध्दार ,
सच्चे मन से ,
मिल जायेगा श्रेष्ठता का गंतव्य ,
मन में जब बसेगा गंगा सा मंतव्य… डॉ नन्द लाल भारती

रंज छाने लगा है/कविता

रंज छाने लगा है/कविता नाज पर आज अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है ,
मोह भी क्या बला है अपनो की ,
अपनी जहा में यारो ,
गले में सांस रुकने लगा है।
ना जाने कौन सा ,
इम्तहान अभी बाकी है
 संवारने की तमन्ना में ,
टूटते-बिखरते -जुड़ते रहा ,
उम्र भर
ना जाने क्यों अपनी जहां में ,
रंज छाने लगा है।
हादशों की गवाह   उम्र अपनी
नए -पुराने दर्द पोर-पोर चटकाते  ,
बदले वक्त में एक-एक घाव ,
भारी बहुत भारी लगाने लगा है।
ये खुदा बख्श दे अब कोई ताबीज ,
अपनी जहाँ का दर्द ,
सताने लगा है ,
नाज पर अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है।
डॉ नन्द लाल भारती / 11. 11. 2013

Saturday, November 9, 2013

कविताये

परिवर्तन/कविता
ह्रदय दीप मेरा ,
परिवर्तन का आगाज़ है ,
दीप को लहू दे रहा ऊर्जा ,
तन तपकर दे रहा है रोशनी ,
मन कर रहां ,
सच्ची विचारो का  आह्वाहन ,
मानवीय समानता के लिए।
भूख से कराह रहा ,
समानता की प्यास है ,
आर्थिक उत्थान  की
अभिलाषा है ,
कायनात के संग चलने की ,
सफ़र में बड़ी मुश्किलें है ,
पग-पग पर ]
बंटवारे के शूल खड़े है
हैम तो परिवर्तन के लिए ,
चल पड़े हैं.
 कर रहे है हवन
जीवन के बसंत को
बस,
 मानवीय समानता के लिए।
बुध्द ने यही कहा है
अप्पो दीप्पो भवः
बहुजन सुखाय का,
 मंत्र दिया है
जरुरी है
मानवीय एकता के लिए
बुराईयो पर ,
 हो गया  काबू
जिस दिन
धरती से मिट जायेगा
शोषण,उत्पीड़न और
वंचित का दमन भी
आओ परिवर्तन की मशाल
ह्रदय दीप से जलाये ,
मानवीय समानता के लिए …… डॉ नन्द लाल भारती
बदलते वक्त में /कविता
बदलते वक्त में खुद की तस्वीर,
टूटती हुई पाता  हूँ ,
रहनुमाओ की भीड़ में
दिल पर दर्द का बोझ पाता हूँ।
बहार भरे जहा में ,
कांटो की छांव पाता हूँ ,
हंसी के बीच आदमी को ,
उखड़ा-उखड़ा पाता  हूँ
क्या ख्वाब थे ,
बदलते वक्त में भी,
उजड़ा पाता हूँ
प्यासा मन प्यास के आगे ,
सांझ पाता हूँ।
क्या उमस है बंजर दिलो की ,
रिसते घाव बहते आंसू पाता हूँ ,
हवा भी कर रही खिलाफत ,
बदला तेवर पाता हूँ।
नैतिकता अपनी अडिग ,
पर जड़ हिलती पाता हूँ।
ना मिली समानता ,
पग-पग पर दीवार पाता हूँ।
क्या कहूँ दिल की बात ,
शब्दों की तपन से ,
होंठ सुलगता पाता हूँ ,
ना बदला ज़माना ,
हर और टूटती तस्वीर पाता हूँ……। डॉ नन्द लाल भारती
लब्ज/कविता
मेरे लब्ज ही मेरी गुहार है ,
और
उपस्थिति भी ,
देना चाहते है दस्तक
पाषाण दिलों पर ,
चाहते है ,
मानवीय एकता का वादा भी।
मेरे लब्ज ही मेरी पहचान है ,
मांगते है जो ,
समानता का अधिकार ,
मानवीय भेदभाव का करते है ,
बहिष्कार ,
बिखराव को सद्भाव में ,
बदलने की है ललक ,
कद की ऊंचाई का भी ,
यही है रहस्य।
मानवता के काम आये ,
महापुरुषो के अमर है
निशान ,
उनके एक-एक लब्ज
जीवित है ,
समानता,शांति और
सद्भावना के लब्ज,
मुझे भी देते है ,
हौशला शक्ति और
सामर्थ्य भी।
तभी तो,
 मानवीय भेद से लहुलुहान ,
कुरीतियो के त्याग की,
 बात कर रहा हूँ
विषमता के धरातल पर ,
विष पीकर भी
समानता के लब्ज जोड़ रहा हूँ ……डॉ नन्द लाल भारती
लकीर/कविता
खुली आँखे सपने आते,
सुनहरे प्यारे ,
विषमाद की आंधी ,
उड़ा ले जाती सारे।
कहाँ उम्मीद थमे ,
अपने-पराए बनते,
अवसर की ताक ,
 आस्तिन में साप रखते ।
भरे जहां में खो गया सकून ,
उजड़ी उजास ,
मोह का तूफ़ान,
घायल हो रही आस।
आँखों के नीर से ,
मतलब सींचने लगे है लोग,
हक़ छीन, ऊँचे आसन की आड़
करते हैं उपभोग।
आहत मन,चढ़े तराजू हरदम ,
दबंग की शान ,
ईमान पाये हलाहल ,
श्रम परेशान।
बूढ़ी व्यस्था बूढ़ी हुई सदिया ,
रौनक ना आयी ,
अटल लकीरे विषैली ,
क्या खूब यौवन है पायी।
फ़र्ज़ की ओट सह रहा चोट ,
वंचित इंसान ,
मिटा दो भेद की लकीरें,
जिसे संवारा है इंसान।  डॉ नन्द लाल भारती




पहचान/कविता
अब्र की कब्र पर,
बैठा आदमी ,
आदमियत का ,
क़त्ल कर रहा है आज
दुखती नब्ज को ,
कब्ज बख्श रहा
पसीजते घाव की,
बन रहा है  खाज
मन की मज़बूत गांठे,
मतलब तौल रहा
सकून से परे ,
संदेह में जी रहा ,
बहकने का जाम,
बहाना था काफी ,
आज खुद,
बहक रहा आदमी ,
जेहन में जहर ,
बेपरदा हो रहा है आदमी ,
छल का आदी ,
हो गया आदमी ,
जीवन मूल्य से ,
बिछुड़ गया आदमी
मानवता के राही को,
 दंश दे रहा आदमी
होगा जहां रोशन ,
मानवता को धर्म,
मान ले आदमी
……डॉ नन्द लाल भारती

तलाश/कविता
कविता की तलाश में ,
फिरता हूँ ,
खेत,खलिहान,बरगद की छांव ,
पोखर,तालाब बूढ़े कुएं ,
संपन्न शहर ,साधनविहीन गांवं
सामाजिक पतन ,भय,भूख ,
बेरोजगारी में झाकता हूँ ,
मन की दूरी ,
आदमी की मज़बूरी में ,
तकता हूँ ,
खाकी और खड़ी में तलाशता हूँ,
दहेज़ की जलन ,अर्धबदन ,
अत्याचार,आतंक ,
चूल्हे की आग ,
रोटी की गोलाई को ,
मापता हूँ ,
मूक पशुओ के क्रुन्दन ,
आदमी के मर्दन ,
ऊँचे पहाड़ ,नीचे मैदान में ,
उतरता हूँ
बैलगाड़ी की चाल ,
जहाज की रफ़्तार देखता हूँ,
गांव के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर
 चलता हूँ ,
शहर की सीमेंट -कंक्रीट की
 सडको में तलाशता हूँ,
कविता को हर कहीं,
 तलाशता हूँ ,
कही भी नहीं पाता हूँ ,
खुद के अंदर गहराई में ,
उतरता हूँ
कविता को ,
अनेको रूपो में पाता  हूँ ,
सच यही तो है ,
वह गहराई जहां से
 उपजती  है कविता ,
आत्मा की ऊंचाई और
दिल की गहराई से। …………डॉ नन्द लाल भारती

Saturday, November 2, 2013

। हे दीप मालिके ।।

हे दीप मालिके
हे दीप मालिके ,
दीये की रोशनी हर ले ,
अपनी जहां का हर अँधियारा,
हर दिल हो जाए रोशन धरा बसंतमय अपनीयही कर जोड़  कामना हे दीप मालिके कबूल करो आराधना। शोषित ,वंचित ,दीन के विरान में जाए स्वर्णिम उजियारा यही अदने की कामना हे दीप मालिके राष्ट्र-जन हित में ,कबूल करो आराधना। धन-वैभव क्या मांगू तुमसे ,
ज्ञान-ध्यान तन-मन की शक्ति देना हाथ फैले जब-जब ,परमार्थ की शक्ति भर देना
अदना का जीवन बना रहे दीप यही अदने की कामना हे दीप मालिके कबूल करो आराधना। दिल से उठता रहे ,नेक उजियारा अपनी जहाँ में
ना टिके कोई  अँधियारा

पूजा-थाल समान  ह्रदय अर्पण ,
मोती -हार पुष्प-माल स्वरुप ,
स्वीकार करो ,
शब्द माल का समर्पण
उजास जीवन साध
यही मनोकामना
हे दीप मालिके  कबूल करो आराधना। डॉ नन्द लाल भारती 03. 1 1 . 2013

= दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं =

= दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं =
हे दीप मालिके तेरा स्वागत,
 अभिनंदन
तेरी आगवानी में बिछी पलकें ,
तेरा वंदन।
अपनी  जहाँ में बरसे खुशियाँ
 हर  घर आंगन,
दीनता हो कोसो दूर,
हर दिल बसे  स्वर्णिम सद्भावना ,
जातिवाद अ ब  ना
समता की उपजे हर दिल सदभावना ,
दुनिया जाने
जातिवाद कुचला है मनोकामना,
दीप मालिके मिट जाए
अपनी जहां से  हर तम,
अपनी जहॉ में दीप मालिके,
 तेरा आना मंगलमय हो ,
तेरा अभिनंदन दीप मालिके
पूरी होवे  मनोकामना।
डॉ नन्द लाल भारती 02 . 1 1 . 2013
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