मानवीय समानता/कविता
अपनी जहां का जुल्म,
रिसते घाव खुरचता रहता है,
कभो कोइ मठाधीश,
कभी कोइ सत्ताधीश
सत्ताएँ स्वार्थ का केंद्र हो रही है .......
पहली अर्थात धार्मिक सत्ता तो
शुरुआत से खिलाफ रही है
आदमी को बांटती रही है
कुछ अछूत बनती रही है
ताकि आदमी होकर भी
आदमी होने के सुख से वंचित रहे
गुलामी की जंजीर में जकड़े
तड़पते रहे .........
कैसी सत्ता है आदमी को बांटती है
स्व-धर्मी को अछूत मानती है
आदमी में भेद कराती है
आदमी के बीच खुनी लकीर खींचती है
ये कैसी धार्मिक सत्ता यह तो राजनीति है
निर्बल को निर्बल की रणनीति है। ........
दूसरी यानि वर्तमान राजनैतिक सत्ता
जिससे उम्मीद जागी थी
बीएड रहित जीवन की
सम्मान विकास सम्मान शिक्षा की
क्योंकि यह तो आज़ाद देश की
संवैधानिक/लोकतन्त्रतिक सत्ता है
लोकतन्त्रतिक सत्ता से गोरे अब
बहुत दूर जा चुके है
अपने लोग अपनी सरकार है
हाय रे यहाँ तो
जाति धर्म के नाम पर तकरार है। .........
सत्ता सुख में बौराए लोग
हाशिये के आदमी के दुःख पर मौन है
कैसे होगा निवारण
हाशिये के आदमी दे दुःख का
इस दर्द के बवंडर से जूझता
सफर कर रहा हूँ..........
देखता हूँ समता क्रांति के लिए
धर्मधीश और सत्ताधीश साथ आते है
या सदियों से दम तोड़ रहे
हाशिये के लोगो की तरह
मानवीय समानता के लिए
संघर्षरत
योहि तड़प -तड़प कर दम तोड़ देता हूं .........
डॉ नन्द लाल भारती
21.04.2016