Friday, March 28, 2014

आज भी /कविता

आज भी /कविता
जातिवाद ,भेदभाव ,क्षेत्रवाद और
भ्रष्ट्राचार से उपचारित
अपनी जहां
मुकमल ठिकाना हो  गया है
लूट-टूट और नसीब कैद का
आज भी ………।
यही  हुआ है,
दमित आबादी के साथ
वही हाशिये के लोग जो ,
मरते मरते सपनो का बोझ
अपने कंधे पर लादे
सदियों से जी रहे है
आज भी …………।
नित रंग बदलती दुनिया में
साजिशों  का तूफ़ान
थमा नहीं है ,
कर्मवीर, श्रमवीर हक़
और योग्यता का
दहन हो रहा है ,
आज भी …………।
साजिशो से उपचारित बूढ़ी व्यवस्था
बढ़ाती जा रही है चिंता
हाशिये की नव-पीढ़ी के लोग
सुलग रहे है ,
साजिशों के जाल में ,
फंसे आज भी ..........
 नाम भले हो द्वारिका ,विजय प्रताप ,अवध प्रताप
देवेन्द्र प्रताप या राज इंद्र पर
तासीर में बसा  है विष ही ,
वही विष घातक साबित हो रहा  है ,
देश और हाशिये के लोगो के
विकास के लिए
आज भी ..........
अरे देश और हाशिये के लोगो का ,
विकास चाहने वालो ,
संघे शक्ति का प्रदर्शन करो ,
ताकि ना डंस सके कोई  विष
देश और हाशिये के लोगो का
 नसीब कभी भी .............
डॉ नन्द लाल भारती 28  .03 2014..



Wednesday, March 26, 2014

संवाद / कविता

संवाद / कविता
 करना चाहता  हूँ संवाद की खेती ,
 दे  सके ऊर्जा जो
दमित को उठ खड़ा होने की ,
 लूटी नसीब सवारने की
हक़ की हुंकार की ………… ,
ताकि बो सके सपने
चल सके निर्भीक
समय के समय के संग
निखर उठे सदियो से
कुम्हिलाया रंग ................
 अभिलाषा है यही जीवन की
समय से संवाद दमितहित में बस
यही उम्मीद लिए
संवाद के बीज बो रहा हूँ। .............
डॉ नन्द लाल भारती 27 .03 2014..


//अपनी परछाई अपना यार //
ना छोटा ना बड़ा
ना कभी उंच नीच की बात
ऐसा बसंतमय जीवन साथ
हर दर्द में रहा खड़ा
वही असली यार-रिश्तेदार
ना तेरा ना मेरा ना कोई  रार
जाति -धर्म-भेद ना तकरार
सुख में साथ दुःख में छांव
हाथ बढाए सदा
निकालने को मुश्किलो के पार
जीवन जहर भले कहे कोई
जीवन सफल हो जाता
जब होता  साथ ऐसा यार
दर्द का रिश्ता सच्चा यार ,
संबंधो का होता प्राण
साथी जीवन सार,
 अपनी परछाई अपना यार ................
डॉ नन्द लाल भारती 26 .03 2014..







जान लो मान लो ये
बेचैनियाँ बोने वालो ,
बेपर्दा होगा जब
मुखड़ा तुम्हारा ,
गुस्ताखियां छीन लेगी
सकून सारा ,
तुम्हारे अपने तुम्हे ,
ख़ूनी कहा करेगे ,
जब आएगा नाम तुम्हारा
मुंह छिपाया करेगे ,
तुम कब्र में रहोगे या
द्वारिका ,हरिद्वार  या
 काशी के बहाव में
कहीं चैन से
सो ना पाओगे
दीन को
कतरा-कतरा आंसू दिए जो
हिसाब कि किताब में ,
नर पिशाच रह जाओगे। …… डॉ नन्द लाल भारती 24 .03 2014..







//विश्व जल दिवस //
विश्व जल दिवस
यानि जल के प्रति जिम्मेदार
 जबाबदेह होना
और  जीवन सहेजना है ,
क्योंकि
जल है तो कल है
जल ही तो जीवन है ,
जल जीवन धार
जल ही जीवन संचार
बिन जल कैसा जीवन …?
जल संचय जीवन सहेजना भी तो है ,
जल संचय की कठोर प्रतिज्ञा
जल को प्रदूषण से बचाये
आज विश्व जल दिवस ,
जिम्मेदारी समझे समझए
जल संचय और
जल  प्रदूषण से हो मुक्त
विश्व जल दिवस आज
आज के दिन ऐसी कसम दोहराए
नेक प्रकृति प्रेमी होने का फ़र्ज़ निभाए....................
डॉ नन्द लाल भारती 22 .03 2014..

Friday, March 14, 2014

नमन /कविता
बालिके तुम मेरी अराध्य हो
बस इसलिए नहीं कि
तुम एक लड़की हो
इसलिए भी कि ,
मानवीय परम्परा संस्कृति की वाहक हो
मर्यादा के मायने तुम ,
खूब समझती हो।
तुम्ही तो हो जो हमारे
आन -मान- सम्मान को
कुसुमित करती हो
दो कुलो कि ज्योतिका
जीवन विकासिनि तुम हो
सर्वस्व भार उठाने वाली हो ,
नंदिनी तुम अराध्य हो
तुम से हमारा अस्तित्व चमन है
हे नंदिनी तुम्हारे
अस्तित्व को नमन है। ...........
डॉ नन्द लाल भारती 13 .03 2014

घर बगिया /कविता

घर बगिया /कविता
अपनी नन्ही घर बगिया अपने रंग अघाई ,
मिट्ठू,बुलबुल चिरैया अनेक
 अपने रंग में रंगे .
गा रहे गीत हिल मिल जैसे होली आयी।
घर अंगना हरियाली का ,
जिम्मा थामे पौधे के माथे
लाल नीले पीले बैगनी फूल काया  मटकाये
मौज में डूबे अपने गा रहे
हिल मिल जैसे होली आयी।
गुलाब, गुडहल बोगन बेलिया और
 लताओ का निखरा यौवन
बालाओ को अब खूब सुहाये
धुधली निगाहें रोशन चिराग है पाये
बुलबुल पूँछ हिलाए
रंग बिरंगी गौरैया
हिल मिल जैसे होली आयी
नीम अशोक जाम अनार,
घर बगिया के गमले में थमा जंगल
नए यौवन में मुस्काये
रंग-बिरंगी आभा में डूबे मकरंद उड़ा-उड़ा
लेते  अंगड़ाई ,
मा नो रंग गुलाल माथे लगा कह रहे हो
अनेक  एक हो
नफ़रत छोडो सब आपस में भाई
लग रहा जैसे यही कह,
आपस में बाँट रहे बधाई
अपनी जहां वालो समता के रंग उड़ाओ
गुलाल लगाओ होली आयी। .........................
डॉ नन्द लाल भारती 15  .03 2014

दगा का वफ़ा से है रार/कविता

दगा का वफ़ा से है रार/कविता
अपनी  जहां में
 नफ़रत के रूप अनेक
दर्द है हजारो हजार ,
यहाँ पथरायी आँखों पर ,
होते है धारदार वार।
शोषित  भले ईमान सुनहरा ,
हाय रे अपनी जहां वाले ,
मढ़  देते घिनौना दाग,
घायल ईमां रोने पर भी नहीं रिसते
पथरायी  आँखों से कैसा दुर्भाग्य।
भरी महफ़िल में बेपर्दा हुआ मुखौटा
कल था जो सरताज,
आँखे ना बरसीं पर  दिल बहुत  रोया
माथा वही जहां थमा था नाज।
सम्भलते-सम्भलते
 सम्भल ही गया  पर
क़त्ल हुआ था भयावह यादगार ,
ना जाने क्यों यारो अपनी जहां में
दगा का वफ़ा से है रार।
डॉ नन्द लाल भारती 14  .03 2014

सुलगता बोझ /कविता

सुलगता बोझ /कविता
कैसा रहा होगा वो  सुखद युग
अनुभूति जिसकी सतयुग जैसी
वो लोग कैसे रहे   होगे ,
नेक सदकर्मी सभ्य समतावादी
कुसुमित रहा होगा रिश्ता मानवतावादी ।
वह  युग जहां मिलता रहा होगा
सच को आसमान ,
योगयता ज्ञान को भरपूर सम्मान ,
कर्म का कुसुमित रहा होगा ठिकान।
आज भी एक युग है और
जहा जातिवाद के विष बेल से
डरा सहमा आदमी
पहचान पर मुखौटा ओढ़े हुए है
क्योंकि जातिवाद से आतंकित है
भ्रष्ट्राचार से पीड़ित है ।
सच के पर  है
आदमियत लहुलुहान है
योगयता वफ़ा इमान कर्त्तव्यपरायणता
परेशान है ।
काश आज का आदमी आदमी  बना रहा होता
छाती पर जातिवाद -भ्रष्ट्राचार का सुलगता बोझ
आज के युग में ना होता ।
डॉ नन्द लाल भारती
14  मार्च 2014