Tuesday, November 30, 2010

फाग

फाग
मुडेरो पर बैठने से
कतराने लगे थे काग।
खींचे-खींचे लोग थे
जैसे
दहक रही हो
आग ।
साथ के लोग अनजान
बन रहे थे ।
ना उठ रहे थे
हाथ
मुंह लटकाए चल रहे थे ।
बूढ़े कुछ पुरानी यांदो को
ताज़ा कर रहे थे ।
परदेसियो के आने की
दास्तान कह रहे थे ।
यकीन ही नहीं हो रहा था
वही गांव ।
कौन सी आंधी कुचल गयी
शीतलता की छांव ।
इतनी दूरी लोग रिश्ते तक
भूल गए।
वही माटी लोग वही
पर
क्या से क्या हो गए ।
सोंधी माटी में बेईमानी
विद्रोह का जाल
बिछ चुका था।
खून की कसम
जज्बात घायल पड़ चुका था ।
दादा-दादी की बात पुरानी
नए खिलखिला रहे थे ।
आपसी बैर की सेंध
घर टूट
लोग फूट चुके थे ।
रिश्ते से बेखबर
स्वार्थ की चिता में
जल रहे थे ।
हड़पने की होड़
कही हक तो कही
दहेज़ पर अड़े थे ।
भूख ,बेरोजगारी का तांडव
लो बिलबिला रहे थे ।
भला चाहने वाले
युवक
चिंतित लग रहे थे ।
जाम की टकराहट से
भयभीत लग रहे थे ।
कुछ पूछ रहे थे
भारती
कब शांत होगी आंधी
कब बैठेगे मुडेरो पर
काग.........
कैसे बचेगा गाँव का
सौंधापन
कब गुजेगा फाग----------------------नन्द लाल भारती

Monday, November 29, 2010

तप

तप
मुकद्दर का क़त्ल
कभी
सोचा ना होगा ।
विश्वास के बसंत में
पतझड़ ना होगा ।
भरी महफ़िल में
जनाजा
निकलता रहा ।
पक्की धुन का
राही
अश्रु पीता रहा ।
कठोर श्रम
लहुलुहान अरमान
लिख गया ।
सद्कर्म,
नेक इरादे का सपना
बिखर गया ।
कहते है
प्रोत्साहन हौशला
बढाता है ।
अरे यहाँ तो
क़त्ल
किया जाता है ।
बार-बार के
क़त्ल की
कहा करे
फ़रियाद ।
उफनता
विष का दरिया
रिसे पल -पल मवाद ।
कहता भारती
भले इरादे से
भोगा कष्ट
व्यर्थ ना जाएगा ।
पुष्पित है विश्वास तो
कल
तप
बन जाएगा .... नन्दलाल भारती

Thursday, November 25, 2010

जी लेते है
दीवाने आंसुओ से
प्यास बुझा लेते है,
चाहत भले
ना हो पूरी
ख्वाबो में
जी लेते है ।
नींद बनाये भले ही
दूरी
करवटों में
राते
गुजार लेते है ।
भूखे हो
या
प्यासे
मिल बांटकर
जी लेते है ।
अमीरी
ना हो
पूरा सपना
गरीबी में भी
मान से
जी लेते है ।
नफ़रत में भी स्नेह का
बीज बो देते है ।
किस्मत करे
बेवफाई चाहे
पसीने की रोटी
तोड़े लेते है ।
ऐसे हम दीवाने
तूफानों को भी
चिर देते है ।
जीवन जंग है भारती
हारकर भी
हम जीत लेते है ॥ नन्दलाल भारती...

Monday, November 15, 2010

लिख देना चाहता हूँ

लिख देना हूँ
मै वो सब लिख
देना चाहता हूँ ,
अक्षरों के लाल जोड़ देना
चाहता हूँ ।
कोरे पन्ने पर
कविता के रहस्य
असरदार ,
बात मुद्दे की जोड़ देना
चाहता हूँ।
साम्य क्रांति जो
ला सके,
सब कुछ वो जोड़
देना चाहता हूँ।
कविता के वजनदार
रूप में ,
करे जो
तानाशाहों पर वर
भेद करने वाले को दे
दुत्कार ।
नफाखोरो को धिक्कार
नशाखोरो का करे बहिष्कार ।
ऐसा कुछ
लिख देना चाहता हूँ
दीन असहायों के काम
आ सके
मानवता की ,
पहचान बन सके ।
लेखनी को वेग देना
चाहता हूँ ,
तमन्नाओ को किनारा
मिल सके
भविष्य खुबसूरत
नसीब हो सके ।
भारती समता की लकीर
खिंच देना चाहता हूँ ।
जहा गरीबी की रेखा
पहुँच ना सके ।
मै वो सब लिख देना चाहता हूँ.............॥ नन्दलाल भारती ...

Wednesday, November 10, 2010

झरोखे से

झरोखे से
दरारों ने जुल्म को
आसुओ से संवार रखा है ,
आशा की परतो को
ज़माने से रोक रखा है ।
कराहटो का आहटो में
धुँआ -धुँआ सा लग रहा है ,
परिंदों में क्रुन्दन
लकीरों पर आदमी मर रहा है ।
आँखों में सैलाब
दिल में दर्द उभरने लगा है ,
आदमी के बीच
सीमाओ का द्वन्द बढ़ने लगा है ।
दिल पर नई-नई
पुरानी खरोचों के
निशान बाकी है ,
खून से नहाई लकीरे
लकीरों की क्या झांकी है ।
जुल्म के आतंक के साये
मन रहा नित मातम ,
बस्तियों से उठ रही चींखे
आदमी ढाह रहा सितम ।
सहमा-सहमा सा कमजोर
चहुओर हुआ धुँआ है छाया
आदमी -आदमी की नब्ज़
नहीं पढ़ पाया ।
भर गयी होती घावे
दिल की दरारे अगर
आदमी खंड -खंड न होता
न हुआ ऐसा मगर ।
चल रहा खुलेआम
जोर का जंग आज भी
लकीरों के निखार
नफ़रत का यही राज भी ।
दिलो को जोड़ देते भारती
स्नेह के झोंको से
छंट जाती आंधिया
बह जाता सोंधापन
दिल के झरोखे से ....नन्द लाल भारती

Wednesday, November 3, 2010

मानव धर्मं

मानव-धर्म
तोड़-तोड़ वक्त
तपा रहा खुद को ,
निचोडना हाड संवारना है
जो भविष्य को ।
कैद नसीब की नहीं
हो रही रिहाई आज
इल्जाम पर इल्जाम
सिसकना हर सांझ ।
आसुओ के रंग
परिश्रम की कुंची
खीचना कल का
खाका
आज तो नसीब रूठी ।
अखरता साथ पग
भरना भाता नहीं ,
कचोटती परछाई
उसूल रास आता नहीं ।
आदमी पूरा तालीम पूरी
पर खोटा कहा गया
पैमाईस पर आदमी की
छोटा हो गया ।
बाँझ निगाहे उजड़ गया
आज मेरा ,
बिखरे ख्वाब के मोती
ना हुआ कोंई मेरा ।
नफरतो की बाढ़
कद को
उधार का कहा गया
झरते झरझर मवाद
पर खार छोपा गया ।
विवस तोड़ने को उदेश्य
मानव धर्म हमारा
दर -दर की ठोकरे
बर्बाद हुआ भविष्य हमारा ।
चाहत बड़ी धड़कता दिल
फड़कती आँखे
उफनता विरोध का दरिया
हर कोंई छोटा आंके ।
किस्मत बना हाड फोड़ना
हिस्से पल-पल रोना
ज़माना दे दे जख्म भले
हमें जहर नहीं है बोना ।
जितनी चाहे
अग्नि परीक्षा ले ले
जमाना मेरा
भारती मानव- धर्म
जीवन का सार बन गया है मेरा .....नन्दलाल भारती