Monday, October 30, 2017

झोला


झोला/कविता
एक अपने भी सपनों का झोला है,
जो सदियों से लटका है गले में
वाह रे अपना झोला
कभी सुर्खियां ही नहीं बन पाया
बने भी तो कैसे ?
झोले में है भी क्या ?
पुरखों की लूटी सत्त्ता का दर्द
कैद नसीब,आदमी होकर
आदमी होने के सुख से वंचित होने की
सदियों पुरानी पीड़ा
भूमिहीनता, गरीबी,संघर्ष,
नित विष पीकर जीने का दर्द
भला ये सुर्खियां बटोरने के औजार
कैसे हो सकते हैं ?
हाँ सुर्खियां मिलती खूब
जब अपने झोले में 
प्रशासन की डोर होती
धर्म सत्त्ता की बागडोर होती
तब ना ?????????
यही मेरे झोले में नहीं हैं
दर्द,कराह, फ़ांस, आस के साथ
एक जीवित शरीर है जो
झोले को गले में टांगे
सदियों से अविराम
जीवन की कटीली राह पर है
उम्मीद के साथ कि
अपने और अपनों के दर्द से 
लबालब भरे झोले पर 
कभी सत्त्ता की नज़र पड़ेगी क्या
मुक्ति के लिए ?
डॉ नन्द लाल भारती

कैसी मजबरी और कैसा शहर

।।।।।। कैसी मजबूरी।।।।।
ये कैसी सल्तनत है
जहां शोषितों को आंसू
अमीरों को रत्न धन मोती,
मिलते हैं,
शोषितो के नसीब दुर्भाग्य
बसते हैं
पीडित को दण्ड शोषक को
बख्शीश क्या इसी को
आधुनिक सल्तनत कहते हैं
ये कैसी सल्तनत है
जहाँ अछूत बसते हैं........
दर्द की आंधी जीवन संघर्ष
अत्याचारी को संरक्षण
निरापद को दण्ड यहां
हाय. रे बदनसीबी
जातिवाद, अत्याचार,चीर हरण
हक पर अतिक्रमण, छाती पर
अन्याय की दहकती अग्नि
विष पीकर भी देश महान
कहते हैं
ये कौन सी सल्तनत मे
सांस भरते हैं.....................
श्रमवीर,कर्मठ, हाशिये के लोग
अभाव,दुख,दर्द मे जी रहे
खूंटी पर टंगता हल, 
हलधर सूली पर झूल रहे
महंगाई की फुफकार 
आमजन सहमे सहमे जी रहे
अभिव्यक्ति की आजादी लहूलुहान
कलम के सिपाही मारे जा रहे
चहुंओर से सवाल उठ रहे
कैसी सल्तनत ,लोग
भय आतंक के साये मे जी रहे......
बढ रहा है खौफ़ निरन्तर 
जातिवाद का भय भारी
जातिविहीन मानवतावादी 
समाज की कोई ले नहीँ रहा जिम्मेदारी
जातिवादी तलवार पर सल्तनत है प्यारी
इक्कीसवीं सदी का युग पर,
छूआछूत ऊंच नीच का आदिम युग है जारी
इक्कीसवीं सदी समतावादी विकास का युग
जातिवाद रहित जीवन जीने का युग
हाय रे सल्तनत तरक्की से दूर
जातिवाद का बोझ ढो रहे
हम कौन सी सल्तनत मे
जीने को मजबूर हो रहे........।
हाय रे सल्तनत बस मिथ्या
शेखी
कभी, बाल विवाह, गरीबी, शिक्षा के
दिन पर गिरते स्तर,बेरोजगारी,स्वास्थ्य
जातीय उत्पीडन,घटती कृषि भूमि
घटती खेती किसानों की मौत पर
सामाजिक जागरण या कोई बहस देखी
अपनी जहाँ वालों आधुनिक सल्तनत
हमसे है हम सल्तनत से नही
ऐसी क्या मजबूरी है कि मौन
सब कुछ सह रहे
सल्तनत कि जय जयकार कर रहे...........
डॉ नन्दलाल भारती
17/09/2017

कैसा शहर(कविता)
ये कैसा शहर है बरखुरदार
ना रीति ना प्रीति
धोखा, छल फरेब,षड़यंत्र
ये कैसे लोग कैसा तन्त्र
मौत के इन्तजाम, छाती पर प्रहार
ये कैसा शहर है बरखुरदार......
ये कैसा शहर,आग का समंदर
डंसता घडिय़ाली व्यवहार
पारगमन की आड़ मे अश्रुधार
रिश्ते की प्यास , जड मे जहर
हाय रे  पीठ मे भोकता खंजर
पुष्प की आड़ ,नागफनी का प्रहार
ये कैसे लोग हैं बरखुरदार...........
मन मे पसरा बंजर ,तपती बसंत बयार
जश्न के नाम करते घाव का व्यापार
छल स्वार्थ के चबूतरे ,दिखावे के जश्न
जग हंसता,चक्रव्यूह मे रिश्ते वाले प्रश्न
छल,भय,जादू से ना जुड़ सकती प्रीत
ना कर अभिमान, ना पक्की जीत
धोखे से असि का ना कर प्रहार
बदनाम हो जाओगे बरखुरदार......
ना लूट सपनों की टकसाल
ना कर मर्यादा पर वार
तेरा भी लूट जायेगा एक दिन संसार
आंसू दिये जो , मिलेगा तुम्हें गुना हजार
कैसे मानुष जिह्वा पर विष,मन मे कटार
युग बदला तुम ना बदले कैसे तुम, कैसा शहर ?
कैसी रीति कैसी प्रीति कैसा लोकाचार
रिश्ते को ना करो बदनाम बरखुरदार.......
डॉ नन्दलाल भारती
16/09/2017

ये खुदा कब सुधि लेगा

ऐ खुदा कब सुधि लेगा
पक्षपाती आदमी जब
दफना देगा,
नियति में खोट है उसकी
प्रहार जानलेवा हो
चला है
हैसियत अदने की
मिटाने की पूरी साजिश
है।
हद हो चली है
मर्यादा बेरंग हो चुकी है
पक्षपाती आदमी
फ़र्ज़, वफ़ा, अस्मिता
उसूल का बलात्कार
करने लगा है
चरित्रवाली लहूलुहान
हो चुकी है।
ऐ खुदा सुना है
तेरी लाठी में आवाज़
नहीं होती
मुर्दाखोर आदमी का
सफाया हो जाता है।
ऐ खुदा, गॉड प्रभु
जो भी तेरे नाम है
तू है तेरी सत्ता है
अदने के यकीन को
पुख्ता कर दे
और कर दे निर्बल की
रक्षा
मुर्दाखोरो से
यही फरियाद है
कब तक आंसू में
नहाता रहेगा।
अदना अब तो सुन ले
ऐ खुदा
निर्बल की पुकार
कैद करा दे निर्बल का
भाग्य
लगा दे मुर्दाखोरो की
सल्तनत में आग
ताकि अदना जी सके
स्व मान से
तेरी अपनी जहाँ में।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
28/02/2017

सलाम एवं अन्य ः

मैं आपको भेजता हूँ
सलाम,
आपने  जो दिया है
पैगाम,
महिला दिवस पर सम्मान
जो किया है,
कुसुमित हो आपके काम
महिला जो माँ भी है
हमारी
माँ बहन बेटी को जो
आपने मान दिया है
प्यारे सदा देना
नारी शक्ति को मान
सरस्वती दुर्गा लक्ष्मी
करना है उसका सम्मान,
ना हो भ्रूण हत्या ना हो
ना गरजे दहेज़ दानव
नारी हो नारी उत्पीड़न
इस मुद्दे पर करना है
काम,
महिला दिवस पर
कृभको सयंत्र की
नारी शक्ति का किया है
जो सम्मान,
सराहनीय है पहल
कृभको कर्मचारी संघ का
काम
सभी सदस्यों को मेरा
सलाम...................
डॉ नन्दलाल भारती
08/03/2017







कुछ उठे हुए लोग
रेंगते हुए को
मसलने की फ़िराक में
रहते है
मौका मिलते ही
कर कर लेते हैं पूरी
रेंगते हुए को
मसलने की खुनी
ख्वाहिश
पागलपन के शिकार
रेंगते हुए मंजिल की ओर
बढ़ते हुए को रौंद कर
सुरक्षित कर लेते है
अपनी तरक्की
हार कहा मनाने वाला
रेंग रेंग कर बने निशान
कहाँ मिटते है
कहाँ नेस्तानाबूत
होते है
श्रम और पसीने से
निर्मित अस्तित्व
दुर्भाग्यवश मसलने का
चक्रव्यूह जारी है
रेंग रेंग कर बनी
अस्तित्व की मीनार
आज भी भारी है।
डॉ नन्दलाल भारती
05/03/2017





दर्द देने वाला आदमी
इतना गिर जाता है
मद में कि
आदमी को कमजोर
और
पंहुचविहीन जानकर
सकूं छिन लेता है
ताकि
हाशिये का आदमी
स्वीकार कर ले दासता
तैयार रहे जूता
उठाने के लिए त्याग कर
जीवन के उसूल...........
यदि नहीं हुआ ऐसा तो
तन जाता है मुर्दे की तरह
बर्बाद करने के लिए
हाशिये के आदमी का जीवन
उछाल देता है
कमजोर पर मर्यादापसंद
अतिसभ्य आदमी की
अस्मिता
गुमान के खंजर पर.........
कमजोर बिखर जाता है
टूटकर पर नहीं त्यागता
मानवतावादी संस्कार
पूर्ण समर्थ पर
मुर्दाखोर आदमी के
दिए दर्द से डर कर.....…...
सच कमजोर आदमी का
जीवन शूलों पर शुरू
होता है
उसूलों पर ख़त्म
लोग है कि हाशिये के आदमी
दर्द को लेते है
चटकारे की तरह
और
हाशिये का आदमी
दर्द के नशे में निरंतर
संघर्षरत रहता है
आदमी द्वारा दिए दर्द से
उबरने के लिए।
डॉ नन्द लाल भारती
04/03/2017


बेहयापन की हदें कुछ
इस कदर बढ़ने लगी हैं
हया की छाती में जैसे
खंजर उतरने लगी है
माकूल नहीं आहो हवा
हवा भी अब
जहर उगलने लगी है।
.........................
नेक आदमी परेशां इतना
दर्द की चीख आंखों से
उतरने लगी है,
बेहयापन की हदें इस
कदर बढ़ने लगी हैं।।।।।
डॉ नन्द लाल भारती
26/02/2017
मतलब/कविता
हमारे तुम्हारे होने का
मतलब
बस ये ही नहीं कि
ज़माने भर का खजाना
भर ले अपनी कुठली में
किसी हद तक गिरकर
हमारे तुम्हारे होने का
मतलब तो बस
ये है कि,
हम तुम मिलकर रोप दे
ऐसी पौध
जो देती रहे सुगन्ध
पहली वारिश में
माटी के सोंधेपन में
नहाई हुई
यही होना चाहिए
हमारे तुम्हारे होने का
मतलब
हमारे तुम्हारे प्रतिनिधित्व के लिए
यही जरुरी है
यही होना चाहिए
हमारे तुम्हारे और
हमारे अपनो के भी होने का
मतलब
यही होगी सच्ची वरासत
हमारे अपनो के लिए
रख सके जो सुरक्षित
हमारे तुम्हारे होने का मतलब।
डॉ नन्द लाल भारती
14/02/2017

बाप का रोना एवं अन्य ःः

अपने खून के दिये दर्द से
इंसान वैसे ही रोता है
जैसे कसाई की धारदार
 छुरी का दर्द होता है।

डॉ नन्दलाल भारती
30/04/2017
''''''''''''''''''''''''''’'''''''’'''''’''
अपने बेवफा हो जाए
लहू के आँसू रुलाए
माँ बाप के त्याग पर
सवाल उठाये
सच ये ऐसी सजा है
जहां चुल्लू भर पानी मे
डूब मरना नजर आए
पर वाह रे लहू का मोह
दिल सलामती में
हाथ फैलाये।

डॉ नन्दलाल भारती
30/04/2017
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बाप का रोना
------------------
कहते ही नहीं सच भी है
बाप जीवन मे दो बार रोता है
पहली बार जब 
बेटी को विदा करता है
पर इस रुदन में
सुखी जीवन की उम्मीदे
होती है
घर संसार के कुसुमित
होने के सपने होते है
बेटी के स्वर्णिम भविष्य के
सपने होते है
इस आंसू में खुशी की
बौझारे होती है
दूसरी बार जब एक बाप
रोता है
इस रुदन में बुढ़ापे की
लाठी टूटने की 
हृदय विदारक ध्वनि
होती है
सपनो के खंड खण्ड
होने की कराह होती है
माँ के दूध और सवाल
होता है
बाप का श्रम बेइज्जत
होता है
बाप को बेटा जुदा करता है
मुसीबत की घड़ी में बाप
बिखर कर टूट टूट कर
रोता है।

डॉ नन्दलाल भारती
30/04/2017

चौतीस साल का साथ

चौतीस साल का साथ
.........................

चौतीस साल का साथ,
उबड़-खाबड़ राह
सुख-दुख, घाव-दर्द
शूल भरी ज़िंदगी की राह
भरोसा और उछाह
जीवन बगिया के पुष्प सुहाने
कुसुमित अपनी आस........
चौतीस साल का साथ
माँ-बाप का आशीष साथ
दौलत की गठरी में भले रहे
छेद बहुतेरे
कुसुमित कर्म सफल सत-फेरे
ना था वैभव ना विरासत कोई
माँ बाप से मिली 
संस्कार -ज्ञान की पूँजी
बस यही 
ना कोई दौलत दूजी
ज्ञान संस्कार की डोर थामे
बढ़ते रहे जीवन सफर 
सकूं ,सफल जीवन ,कुसुमित चमन
माँ-बाप, गुरु भगवान तुम्हें नमन........
चौतीस साल का साथ
मान सम्मान कुसुमित स्व-मान
रिश्ते की गाँठ अटूट
गठरी में समाए उम्मीदों के
अनमोल रत्न
मन में उछाह गृह लक्ष्मी का
कुसुमित साथ
हंसता-खेलता परिवार
घर अंगना में बसंत बयार
श्रम से सुशोभित सपने
दो तन एक सांस अपने
पावन दिवस पांच मई 
हे कल्याणी जीवन बगिया की नूर
तेरा स्वागत अभिनंदन
आओ करे
माँ-बाप, गुरु भगवान का वंदन.....
डॉ नन्दलाल भारती
04/05/2017
(वैवाहिक जीवन चौतीस साल के पूर्व प्रातः पर मन के उदगार)

श्रम से.उपजी अमानत

हमारे पास जो कुछ है
श्रम से उपजी हुई अमानत है
पुरखों ने यही किया था
हम भी वही कर रहै हैं 
करने की प्रक्रिया जो
युगों से चली आ रही है
हमें यह भी पता है,
हमारे श्रम के रंग से 
सुशोभित कैनवास
जो हमारा मान स्वमान 
और पहचान है
एक दिन हमारा अपना नहीं होगा
हो जायेगे हमारे अपनों के कब्जे
गूँजेगी शहनाईयां, गूँजेगी किलकारियां
होगा नवसृजन, हमारा लहू होगा कुसुमित
जैसे हमारे पुरखों का हो रहा हैं
हमारी नसों में
यही है जीवन का उद्देश्य
सच आशा ही तो जीवन है
इसी आशा में जी रहे है 
हम सभी
फिर क्यों रार तकरार
जातिवाद, धर्मवाद 
 और वैमनस्यता ?
सब कुछ नश्वर भी तो है
आओ बढ़ा दे हाथ
जरूरतमंद के लिए
पोंछ दे इंसान के आंसू
हम सभी।।।।।।।।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
09/05/2017

जातिवादी धर्म त्याग दो

।।। जातिवादी धर्म त्याग दो।।।

हिन्दू कैसे हो सकते हो तुम
तुमको हिन्दू कौन मानता है
तुम तो अछूत हो
क्योंकि तुम हिन्दू नहीं हो
तुम चमार(दलित)भी तो
नहीं हो सकते
तुम बस भारतवासी हो
तुम्हारा सर्वस्व लूट चुका है
तुम जो हो नहीं वही होकर रह गये हो
तुम हो तो भारत की रीढ़ हो
भारत तुम्हारे पुरखों के
लहू पसीने से सींचा है
तभी तो था यह देश सोने की चिड़िया
आज भी तुम देश की आधार शिला हो
हाँ आज तुम हाशिये पर हो
तुम्हारे पूर्वजों को कहा जाता है राक्षस
तुम भी ताली पिट पिट कर 
गाली देने लगते हो
एक युग था  तुम्हांरे पूर्वज ही थे
भारत भूमि के नरेश
यूरेशियन विदेशियों ने किया धोखा
उनके साथ
आज भी हो रहा तुम्हारे साथ
तुम हो कि आरक्षण आरक्षण खेल रहे हो
तुम्हें तो चाहिये बराबर कि हिस्सेदारी
तुम नहीं दिखा रहे समझदारी
तुम अपने ही पूर्वजों के कातिलों को
पूज रहे हो भगवान मानकर
शौक से भज रहे हो शुद्र ढ़ोल गंवार पशु नारी
ये ताड़न के अधिकारी
अछूत का कील ठोंके है जो
तुम्हारी नसीब में
उन्हीं पर अपनी कमाई स्वाहा कर रहे हो
थोपे जातिवाद, रस्म रिवाज ढो रहे हो
ये 21वीं सदी में भ्रष्टमति नहीं तो और क्या है
अपने पूर्वजों के कत्ल का जश्न मना रहे हो
आरक्षण आरक्षण का खेल खेल रहे हो
सम्पूर्ण हक का नहीं मचा रहे शोर
दलित बने हुए हो
हिन्दू होने का भ्रम ढो रहे हो
दलितों यानि चमारो ग्यारह सौ खण्ड में खंडित 
कब तक रहोगे
अब तो एकता दिखाओ एक हो जाओ
जातिवाद का ज़हर कब तक औऱ क्यूँ
दलितों अब तो जाग जाओ
जातिवादी धर्म को त्याग दो
अत्त दीपो भवः को स्वीकार लो
लूटा हक हिस्सा और अधिकार माँग लो ।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
20/06/2017

सोच एव अत्त दीपो भव:

प्रधानमंत्री जी की सोच।।

वजहें तो बहुत है परेशां होने की
खुश होने के बहाने नदारत होने लगे है
अपनी जहां से
सुना था पंद्रह लाख मिल जायेंगे
क्षणिक खुशी परेशानी बन गई
जुमलों ने तो हमला कर दिया है
ज़िन्दगी का सकूं छिन लिया है
नित नई परेशानी नोटबन्दी का दर्द
भूला भी न था
किसान भगवान फांसी पर
झूलने लगे थे
दिन डरावना रात स्याह लगने लगी थी
देश में परेशानियों की कमी तो न थी
जातिवाद, अत्याचार, बलात्कार,
हत्या और भी बहुत कुछ
अब नए माह से नई परेशानी
जी एस टी की शुरू है कहानी
लोग कहने लगे प्रधानमंत्री जी
पूरी कमाई ले लो
टैक्स दे दो
नौकरी पेशा वाले पहले से 
परेशां है
कमाई महंगाई डायन ली रही थी
सरकार भी कम ना थी ना है
तनख्वाह मिलने से पहले 
टैक्स वसूली
बची तनख्वाह पर बाजार का
टार्चर 
नून तेल, दाल टेवन पर 
और टैक्स
कमाई एक टैक्स बहुतेरे
कैसे बीतेंगे चैन से सांझ सबेरे
हे भाग्य विधाता देश के 
प्रधानमंत्री जी
सुन लो विनती कर दो
एक देश एक टैक्स
एक शिक्षा,जातिविहीन समाज,हिन्दी राष्ट्र भाषा
बहुत कम हो जाएगा परेशानियों का
बोझ
अपनी जहाँ युग युग गाएगी
वाह रे दूरदृष्टि प्रधानमंत्री जी की सोच।।।।
डॉ नंदलाल भारती
01/07/2017













अत्त दीपो भवः को मान लो।।।।।

ये कैसी सोच है
पिछड़े, दलितों, चमारो की
ये अछूत है
शिक्षा मंदिर के द्वार बंद थे
इनके लिए ही
लोकतंत्र ने मौका दिया
पढ़ने और  आगे बढ़ने का
इनको भी
पढ़ रहे आगे बढ़ रहे भी
पर क्या ये तो आज भी बहकावे में है
यूरेशियन के मनगढंत भगवान
और
छत्तीस करोड़ देवी देवताओं की गिरफ्त में हैं
 आज भी
मार खा कर भी
मंदिर की डयोढ़ी चढ़ते हैं
पूजा करते हैं, परसाद चढ़ाते हैं
पत्थर को दूध भी पी लाते हैं
दान दक्षिणा भी दे आते है
तरक़्क़ी का श्रेय पत्थर को
दे आते हैं
ये भूल जाते हैं, तरक़्क़ी का कारण
पत्थर की आकृतियां नही
खुद सोचो जो भगवान
अपनी रक्षा के लिए 
ना प्रकार के हथियार धारण करते हैं
ये तुम्हारी रक्षा कहाँ करेंगे
संविधान लागू होने के पहले भी तो थे
 ये पाषाण के भगवान
तब तो स्कूल के दरवाजे भी बंद थे
तुम्हारे लिए
तुम्हारी बर्बादी के दिनों में
कहाँ थे अजीबोगरीब भगवान
तब तुम क्यों नही थे महान
तुम्हारी तरक़्क़ी का कारण है
संविधान
अपने दुश्मनों को पहचानो
देश को धर्म, संविधान को धर्मग्रंथ मानो
भगवान एक है, रूढ़िवादी भगवान
और
छत्तीस देवी देवताओं को भुला दो
पुरानी लकीर पर फ़क़ीर ना बनो
रूढ़िवादी जातिवादी बदल डालो
 अत्त दीपो भाव: को मान लो ।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
22/06/2017

रिश्ता भूख प्यास था अपना

रिश्ता भूख प्यास था अपना
जश्न की रात बरसी कयामत
लूट गया गुमान अपना
दगाबाजों के आस्तीन में
तीर ऐसे ऐसे लूट लिए
सिंगार और सपना
खौफ में जीने की आदत
पड़ने लगी है,
वक़्त बेवक़्त पलकें
गीली होने लगी हैं
सांसे बह रही है आस में
जैसे मरुस्थल में बसंत का बसना
हकीकत है यार
आंखों को आंसू तो दिया है अपना।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
07/07/2017

Sunday, October 29, 2017

बीमार है क्या ?

बीमार है क्या ?

आप बीमार  है क्या?
नहीं हैं बड़ी अच्छी बात है 
गर है तो सुनहरा मौका
कुछ दिन सकूँ से बिता लीजिये
मौंका और दस्तूर भी है
हाड़ मांस की काया को थोड़ा
विश्राम दीजिये।
विश्राम के दिन को जश्न मान लीजिए
बदन की जरूरत है 
आराम कर लीजिए
बीमार होना अच्छी बात तो नहीं है
बीमार होना आपके हाथ मे नही है
ब्याधि के कई कारण भी सकते है
जनाब बीमारी तो ठीक हो जाएगी
हिम्मत और खुश रहना,चिंतामुक्त रहना हैं
डॉ के बताये अनुसार दवा लीजिये
बीमारी का मज़ा लीजिए
बीमारी बरसात के पानी की तरह निकल जायेगी
रहिमन बाबा ने पहले ही कह दिया था
रहिमन विपदा हूँ भली जो थोड़े दिन होय
हित अनहित या जगत  में जानि परत सब कोय
जनाब यकीन मानिये बीमारी 
बीमारी कतई नही रहेगी
पारखी नज़र रखिये
बरसाती मेढकों की बारात विदा हो जाएगी
ए परजीवी भी बड़ी बीमारी है
कहते है बस आदेश कीजिए
आसमान से तारे तोड़ लाएंगे
बीमारी में,दुःख की बेला में
कही दूर तक नज़र नही आएंगे
सगे होगे या बेगाने पहचान लीजिये
लिखते पढ़ते, हंसते गाते
समय पर दवाई लेते रहिये।
पानी अधिक पीया कीजिये
बीमारी का चटकारे मर कर  मज़ा लीजिये
बीमारी को दूर भगा ही  सकते नहीं
बीमारी को आनंद से भी कबमक़लेना सीख लीजिए 
निरोगी काया निरोगी काया रटते रहिये
रटना ही नहीं, शारीरिक ब्यायाम करिये
बीमारी को जश्न की तरह समझिए
कबीर साहब ने तो  मौत को
उत्सव के रूप में देखते थे
हम तो आम आदमी है
कम से कम बीमारी का जश्न तो मना ही सकते है
बीमार हूँ बीमार हूँ रट लगाना
बीमारी को बढ़ाना है
ज़िन्दगी सकूं से जीना है 
हौशले कि ताकत से बीमारियों को पछाड़ दें
ज़िन्दगी है विष तो जीवन की सांस बना दें
दुख या कहे बीमारी बस आनंद उठा लीजिये
दुख ,बीमारी जीवन की पाठशाला
इस पाठशाला से सच्ची ज़िंदगी
अच्छी तरह से जीना सीख लीजिये।
डॉ नन्दलाल लाल भारती
05/07/2017

चौकी गाँव एक विरह

।चौकी गाँव -एक विरह।।
ये वही चौकी (खैरा)आज़मगढ़ का
गांव है जो मेरी जन्मभूमि है
मुझे अपनी जन्मभूमि पर गर्व है
चौकी से 
लालगंज तक जाने के लिए 
खेतों की मेड़ो और पगडंडियों से जाना पड़ता था
हॉट से सामान की गठरी सिर पर
साइकिल वाले साइकिल पर लाते थे
मैं सिर पर और साइकिल पर भी लाया हूँ
अब हाईवे है मोटरें भी
इतनी तरक़्क़ी हुई है
इसके अलावा चौकी
तुम्हारी और कोई है पहचान
ग़रीबी और अमीरी के बीच कोई
जंग नहीं हुआ,
क्या  दमन कहें या शान
तुम्हारी साख और गिर गयी
हल खूंटी पर टंग गए
बैल कसाई घर पहुंच रहे हैं
बची है  तो सिसकती ज़िन्दगी
और गांव के दो टुकड़े
पूरब की तरफ सवर्ण और
पश्चिम की तरफ संघंर्षरत
झंखते श्रम के सिपाही दलित
ना जाने क्यों दलितों की बस्ती में
ना सरकारी अफसर, ना नेता
न अभिनेता  पैदा होते है
पैदावार रुकी नहीं है
पैदा हो रहे है अभावग्रस्त
दारू, गांजा, बीड़ी,कैंसर की दुकान सुर्ती की
लत से लैस  मजदूर
 चौकी गांव के शोषितों की 
यही तेरी दर्द भरी कहानी है
जहां नही बनती कोई सुनहरी निशानी है
हाशिये के आदमी के अरमानों पर
गिर रहा ओला पानी है
चौकी गांव तुम आज भी
रुके पानी की तरह क्यों हो
भूमि आवंटन से वंचित
लहूलुहान,दर्द रंजित हो
चौकी  तुम्हारी पहचान क्या है ?
तुमने आग में मूतने वालों
आकाश पर थूकने वालो को देखा होगा
दलितों की बस्ती से उठी
कराह को भी सुना होगा
जाने क्यों समता की क्रांति का
बिगुल नहीं बजाया तुमने
चौकी अब तो करवट बदलो
तरक़्क़ी की बयार आने दो
शिक्षा -अर्थ की राह पर
हाशिये के लोगों को पांव जमाने दो
चौकी गांव ना तुम कोलकाता हो
ना मुम्बई हो
हाशिये के आदमी की तरक़्क़ी के बिना
कुछ नहीं हो तुम
चौकी तुम हमारी जन्मभूमि हो
तुम्हारी मांटी हमारे लिए चन्दन है
चौकी गांव तुम्हारा अभिनंदन है।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
08/07/2017

राजा की चिंता एवं अन्य कविताएं

।। राजा की चिन्ता।।
राजा किसी सल्तनत का नवाब नहीं है
एक मामूली सा गाय का बछड़ा है
नाम है राजा,
एक वक्त था जब ऐसे राजा
खेत, खलिहान और दरवाजे की
शान हुआ करते थे
जिनके श्रम से उपजे अन्न पर
पलता था देश
लोग राजाओं की पीठ थपथपा कर
अपनी मूंछ तक ऐंठते थे
मशीनों की घुसपैठ क्या हो गई
राजाओं का जीवन खतरे में पड़ गया
राजाओ की एक पूरी पीढ़ी की
बोटी बोटी हो चुकी है
नई पीढ़ी पर चोर निगाहें टिकी हुई हैं
कम उम्र के राजा भेलख पड़ते ही
गायब हो जाते है रात के अंधेरे में
जिनका सुराग फिर कभी नही मिलता
लगेगा भी कैसे ?
बना दी जाती है उनकी मनचाही बोटियां
मेरे राजा यानि गाय के बछड़े पर भी
चोर निगाहें बिछी रहती है
शरीर से अक्षम पिता
रात के अंधेरे के खौफ़ से
पीटते रहते है लाठी
राजा की पहरेदारी में
ऐसे ही राजाओं के बल पर
खड़ा हुआ था कुटुंब
घर के दूसरे सदस्य भी करते है 
राजा की चौकीदारी
 राजा न बन पाए
किसी चोर का शिकार
राजा कुटुम्ब का है रुआब
 कुटुम्ब बचाने में जुटा रहता है
राजा को बनने से बिरयानी, मसाला मटन,
टिक्का या कबाब।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
17/07/2017
















।।मरते घर ।।

गांव विरान हो रहे हैं
धरती बंजर सी लगने लगी है
वो घर जहां पनपती थी यादें
पीढ़ियों पुराने पुरखों की
संवरते थे खून के रिश्ते
गूंजा करती थी विरासतें
गांव के घरों से उठा करती थी
लोरी किस्से सोहर की 
मधुर स्वर लहरियां
तीज त्यौहार के दिन
गांव के घरों से तितलियों सी गीत गाती
तालाब पोखर की ओर बढ़ती थी
गांव की आन मान शान लड़कियां
पवित्र स्नान के लिए
वही पोखर तालाब अपवित्र हो चुके हैं
गांव के घर रोज रोज मर रहे है
गाँव विस्थापित हो चुका है
आकी बाकी भी हो रहा हैब
शहरों की भीड़ में
गांव में बचे है तो बार बार
चश्मे साफ करते हुए लोग
इंतजार में ताला जड़े मरते हुए घर
जातिवाद चट कर रहा सर्वस्व
सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
हो चुके है बेखबर
गांवों का देश खतरे में है
सरकारें ब्यस्त है दिन साल का
जश्न मनाने में और कागजी घोड़े दौड़ाने में
काश सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
उबर जाते अपने गुमान से
बच जाते नित मरते घर
विकास की बयार जुड़ जाती 
विरान होते गांव से।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
16/07/2017



















कितना दर्द होता है
ड्योढ़ी को लांघने से
दूरी अपनो से भयाक्रांत कर देती है
दर्द का बोझ लेकर भी
छोड़ना पड़ता है
घर द्वार सगे समन्धित
खून के रिश्ते भी
कमाया जा सके खनकते सिक्के
रोटी कपड़ा मकान और
पूरी करने के लिए जरूरते
जोड़ तोड़ में उम्र का बसंत
खो जाता है
जरूरतें मुंह बाये खड़ी रहती है
बचता है तो पिचका हुआ गाल
शरीर का बोझ उठाने में
असमर्थता जाहिर करते हुए
घुटने
धुंधली रोशनी लिए हुए
चक्ष
बीमारियों से घिरा शरीर
अपनी जहाँ में लाख सद्कर्म के बाद भी
नहीं संवरती तकदीर।
जातीय अभिशाप बन जाता है पाप
लाख पुण्य कर्म भी नहीं धो पाते
पाप ।।।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
12/07/2017








 

कष्ट  मिलता है
अपनी जहाँ में
अक्सर जो निर्दोष होते हैं
अथवा
हाशिये के लोग
मिटना पड़ता है
अपनी जहां में निरापद को हो
जो बोना चाहता है
सदा के सदकर्म, समता,सदाचार
सच्चाई और अच्छाई
ये कैसा दुर्भाग्य है
काटे जाते हैं
 नेककर्म करने वाले हाथ
होते है 
दफन करने के जी तोड़ प्रयास
अंधेरे में फेंक दिए जाते है
हाशिये के कर्मशील लोग 
घोंट दिया जाता है गला
आगे निकल जाते है
कर्महीन पहुंच वाले हाथ
दर्द में दब जाते है
कर्मशील और ईमानदार हाथ
जो कभी टिके ही नही फ़र्ज़ पर
वही हाथ कैद कर लेते हैं
हक हाशिये के हिस्से के
पीछे छूट जाता है
अधमरा सा कर्मयोगी
हाशिये के आदमी अपनी जहाँ में
निरापद कष्ट में रहकर भी
बोता रहता है
फ़र्ज़, ईमानदारी और अच्छाई की फसल
अपनी जहाँ में
यही जज्बात ज़िंदा रखता है
हाशिये के आदमी को
कायनात में।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
12/07/2017






कविताएं

तूफानों से कह दो कोई
ना उम्मीदों के तम्बू उखाड़ा करें
बहुत बार उखड़े और गड़े
नहीं खत्म हुई उमीदें
बार बार विषपान कर भी
उसूलों की धार पर
संजती रहे उम्मीदे
कुछ बेबसी सी लग रही है
उठती हुई तूफ़ान में
शोर  जाना पहचाना लग रहा है
लगता है कोई गर्दन रेत रहा है
ये दर्द अनजानी तूफानों का नहीं
दर्द की शिनाख्त है
जिनके लिये मानी थी मन्नतें अनेकों
झरा लहू तन से रिसकर
आज मिल रही मौत पल पल
यही वजह है कि ये दर्द
चैन से जीने नहीं दे रहा है
तूफानों का बेखौफ शोर
ज़िन्दगी के मायने बदल रहा है।।।
डॉ नन्दलाल भारती
22/07/2017








ये क्या लिख दी तुमने कहानी
तुझे कुनबे ने माना था अपना
पानी
दिल के टुकड़े कर दिए
कांच जैसे विहार पर तुमने
पत्थरों के प्रहार कर दिये
तुमसे बस लगा ली थी नेह
न्यौछावर तुम अर्जित जीवन
के स्नेह
क्या यही खता है हमारी
तूने रच दी बर्बादी की कहानी
माना कुनबे ने तुझे ज़िन्दगानी
तू बेटी सह बहुरानी
क्यों छुरा मार दिया दिल पर हमारे
 क्यों खुद को समझ लिया नौकरानी
तूने क्या किया ?
अपयश के शोले छोड़ 
लिख दी बेमौत मारने की कहानी
हम तो जी लेंगे तपती रेत पर
हम तो दर्द की पीठ पर  थे
जीना सीखे
डर है तो बस तुम्हारा मेरी नूर
साथ रच दी ख्वाब ने तुम्हारे
खिलाफ साज़िस
बिखर जायेगे तुम्हारे ख्वाबों के
कोहिनूर
संभल जा ना कर ज़िद
ना रच लाठी तोड़ने की साजिश
कांपते हाथ, कब्र की ओर बढ़ते कदम,
घबराते दिलो के ख्वाब
संवार देगे तेरे जीवन हर ख्वाहिश।।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
20/07/2017

श्रमेव जयते


 ।। श्रमेव जयते।।
जीवन का श्रमेव जयते,
रजत जयंती वर्ष,
फ़िजा में बसंत,
मन में छाया है हर्ष....
कृभको सेवा-जनसेवा में
बीत गए 25 बरस,
समयबद्धता,कर्तव्यनिष्ठा
और उमंग
बरसा सदा सरस......
यकीन समर्पण, आस
साथ रहा उजास,
सम्मान कर्मपूजा का
दमक गया विश्वास.......
दूरदृष्टि, पक्का इरादा मेहनत
और अनुशासन का
रखना है मान,
उद्देश्य हुआ अपना फ़र्ज़ पर 
फ़ना
यकीनन इससे बढ़ता है 
स्व-मान ...  
डॉ नन्दलाल भारती
28/07/2017

गोरखपुर मे बच्चे मरे नहीं........

😢😢😢😢😢😢😢😢
गोरखपुर में बच्चे मरे नहीं हैं
मारे गए हैं,
हत्यारों की आदत हो गयी है
पहले कत्ल करना
बाद में अफसोस ज़ाहिर करना
एक और काम निष्पक्ष जांच का 
आश्वासन
फिर किसी अदने को बलि का
बकरा बनाना
सबसे जरूरी काम हो जाता है
असली गुनाहगारो से बेखबर
रहना
बच्चे तो रोज पैदा होते है
मरते भी है
हां ये बच्चे संख्या में तनिक
ज्यादा थे
अनुमान से ज्यादा बच्चों का
कत्ल हो गया,
बच्चों के क़त्ल का दर्द
 गाल बजाने वालो को क्यों .....?
सामूहिक क़त्ल का दर्द
मारे गए बच्चों के परिवार जनों
उनकी माताओं को अधिक है
हां भारत माता भी रो रही हैं,
अंधे बहरों के साम्राज्य में
शोषितों पीड़ितों की सुनता कौन है ?
सब कुर्सी कुर्सी के खेल में मस्त हैं
अदने दुःख दर्द से पस्त हैं
बच्चे मरते हैं तो मरते रहे
उनकी बला से..… ?😢😢😢😢😢😢
डॉ नन्दलाल भारती
13/08/2017
😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢😢

कविताएं



कैसे आज़ाद ?

देश आजाद तो है
गोरों से कागज के पन्नों पर
आज़ाद देश मे 
संविधान में अधिकार तो दर्ज है
आमआदमी के लिये भी
इसके बावजूद भी
आजाद देश मे परतंत्र बसते है
आज भी
दलित, आदिवासी के नाम से
जाना जाता है
मौके बेमौके इनके साथ कुछ भी
घट जाता है
छुआछूत,भेदभाव, अन्याय
अत्याचार, संहार, चीर हरण
बलात्कार भी,
जातिवाद के उन्माद में
 डूबे हुए लोग
और 
सत्ता का अमृत पान कर रहे
लोग 
गुलाम समझते हैं
शोषितो को आज भी
मौंका पाते ही उतार देते है
शोषितों की छाती में खंजर
तरक़्क़ी से दूर अभाव ग्रस्त
हाशिये के लोग 
संघर्षरत हैं आज़ाद देश में
समानता के अधिकार के लिए
ये कैसी आज़ादी है
हाशिये का आदमी दर्द के
बिछौने पर पड़ा है
अभाव के ओढ़ने में लिपटा
कराह रहा है
अरे वादों से छलने वालों
सपने बेचने वालो
हाशिये के लोग कैसे आज़ाद ?
अब तो आज़ाद कर दो
हाशिये के आदमी को
जातिवाद, भूमिहीनता, दरिद्रता
सामाजिक असमानता के
अभिशाप से।
डॉ नन्दलाल भारती
13/08/2017













गुमराह।।।।

बूढ़े माँ बाप भींगना चाहते थे,
तुम्हारी खुशियों में,
पर क्या ?
तुमने दगा दे दिया,
फरेब में आकर
वहीं माँ बाप जो तुम्हारे
सुख के लिए दर्द  ढोते रहे
रात दिन, भूखे -प्यासे
ढूढ़ते रहे सकून के कुछ पल
तुम्हारी खुशियों में
पर ये कैसी खता तुमने कर दिया
फरेब में फंस कर
धरती के भगवान माँ बाप को
दगा दे दिया।।।।।।।
तुम्हारे लिए सर्वस्व किया 
न्यौछावर
तुम्हारा हर सपना जिनका
अपना सपना था
अपनी औकात से बढ़कर तुम्हारे लिए
सब कुछ तो किया
कर्ज़ के पहाड़ पर भी चढ़े तुम्हारे लिए
बदले में तुमने क्या दिया
आँसू..……......
तुम कैसे बदल गए
तुम्हारे लिए अपने बेगाने हो गए।
ये तुमने क्या कर दिया
अपनों को दगा दे दिया।
माँ बाप सब कुछ न्यौछावर करते हैं
कामयाबी के सपने रोपते है
जीवन कुर्बान करते हैं
 औलाद में प्यार ढूढ़ते हैं
आंसू पीकर भी दुआ करते हैं.....…..
अरे फरेबियो को पहचानो
माँ बाप की ज़िंदगी में जहर मत बोओ
बूढ़े दर्द से बेमौत मर जाते हैं
ऐ भूले हुए पथिक
ना जाओ तपती रेत पर
गुमराह करने वाले तुम्हे लूटना चाहते है
माँ बाप तुम्हारी खुशियों में भीगना चाहते हैं
आ जा बसंत के झोंके सरीखे 
समा जा दिल मे
तुम्हारे लिए सर्वस्व त्याग कर सपने
सजाने वाले माँ बाप भींग जाएं
खुशियों में।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
01/08/2017

कविताएं।


सत्या और सावित्री।।।।

कभी सोच सकता है 
कोई माँ बाप
अरमानों को ढाठी और
जीते जी मौत की की सजा
उसका अपना ही खून देगा
हुआ है यही उस माँ बाप के साथ
लगा दिया जीवन  की पूँजी
जिस बाप का उजड़ गया भविष्य
बेटा का भविष्य संवारने में
उसी बाप को दण्ड.......
बाप  माँ को औलाद का
हर दर्द रुलाता है
तेरा भी दर्द रुलाता था
तुम्हें तो याद नहीं होगा
बरामदे की सीढ़ी से जब तू गिरा था
नाक से तुम्हारी कुछ कतरा लहू का बहा था
गुप्ता आंटी तुमको अस्पताल लेकर गयीं थी
बदनसीब बाप तुम्हारी मरणासन्न माँ को 
अस्पताल,
आंखों में आंसू लेकर........
वो विपत्ति के दिन थे तुम्हारे बाप के लिए
माँ का साँस रुकते रुकते चल पड़ी थी
यह तुम्हारे बाप के लिये नया जीवन था
मुसीबत के दिनों तुम्हे तुम्हारे बाप ने
कोई तकलीफ़ नहीं होने दिया
बड़की बहन तुम्हारी चेतन थी
तुमसे थोड़ी सी अधिक
छोटका तो बोल भी नहीं पाता था
समझता था अधिक 
अपनी माँ की अवदशा और 
बाप की दुर्दशा से अवगत था
तुम्हारी बड़की बहन कैसे बाप का हाथ बटाती थी
तुमको दूर रखती थी ताकि बचा रहे हर बला से.....
तू भूल गया होगा कितने दुर्दिन थे 
वो दिन तुम्हारे माँ बाप के लिए
तुम्हारी बहन तुमको कैसे खिलाती थी
कैसे सुलाती थी,कैसे नहलाती थी
खुद भी तैयार होती थी, 
तुमको लेकर स्कूल जाती
सबसे छोटका पड़ोसियों के हवाले होता था
तुम्हारा बाप पहले अस्पताल फिर दफ्तर
लंच टाइम में अस्पताल और 
तुम बच्चों की देखरेख यही दिनचर्या थी
उसके खाने सोने तक को वक्त नहीं था....
तुमको इतना तो याद ही होगा
छोटका बाप को देखते कितना ,
उदास हो जाता था
रात में जब बाप सोता था तो 
वही गले मे हाथ डाल कर सोता था
तुमको यह भी मालूम होगा क्यो
क्योंकि तेरा बाप को तुम नन्हे मुन्नों को
खिला पिला,सुलाकर अस्पताल जो
 जाना होता था
जहाँ बिस्तर पर पड़ी
जीवन मृत्यु से संघर्षरत
तेरी माँ राह देखती तुम बच्चों का
कुशलक्षेम जानने के लिए......
बकरी कसाई चिकित्सक की गलती ने
जीवन भर के लिए दर्द तो दिया
पर तुम लोगों को देख कर
तुम्हारे माँ ही नहीं
दादा दादी, काका काकी तक झूम उठते थे
तुम खानदान के पहले अभियंता हुए
तुम्हारे बाप ने तुम्हारा ब्याह
दहेज़ रहित करने का वादा किया था
पूरे खानदान ने साथ भी दिया था
तुमने बाप की मदद तो नही किया
हाँ ससुराल वालों की किया
शायद यही तुम्हारे कर्ज़दार होने की
पुख्ता वजह  होगी........
वाह रे बेटा कटप्पा दुल्हन के आते ही
दुल्हन और उसके माँ बाप के गुलाम हो गये
चूल्हा अलग कर ,माँ बाप को 
गुनाहगार बना कर 
जहर पिला दिया
वाह रे सास ससुर के वफादार कटप्पा
माँ बाप के अरमानों का कत्ल कर दिया
जीते जी मार दिया
दुल्हनियां और उसके माँ बाप के 
काले जादू के मायाजाल में फंसकर
बेटा कटप्पा तू जहां भी रह खूब तरक्की कर
बूढ़े माँ बाप जी लेंगे छोटके की अंगुली पकड़कर
तू माँ बाप के जनाजे में भी नही आएगा
तब तेरे मृत माँ बाप की आत्मा को कोई
तकलीफ नही होगी
हाँ छोटका अभी पांव जमाने लायक
हुआ नहीं हैं हो जाएगा
छोटका जब सचमुच छुटका था
माँ बाप के दर्द को समझता था
तनिक बडा होकर अधिक समझता है
छोटका छोटा ही सही
सहारा बनता है, माँ बाप के दर्द पर
रो पड़ता है,
हे भगवान तू अगर है तो छोटके को
सफल और संपन्न बना दे ताकि
बूढ़े माँ के जीने का ठोस सहारा बन सके।
जा कटप्पा जा,हो जा नजरो से दूर
खून के कतरे को विखंडित करने वाली
मन से अंधी पगली,तुम्हे भ्रम के जाल में
फंसाकर
परिवार के टुकड़े टुकड़े करने वाली 
आज की कैकेयी को लेकर 
सत्या और सावित्री जी लेंगे
छोटके की अंगुली पकड़कर ।।।।

डॉ नन्दलाल भारती
19/08/2017










भला कौन बदनसीब
सोच सकता है,
उम्र भर पीया ज़हर
संघर्षर रहा, जिसके लिए 
वही पर आते ही
मौत की दुआ करेंगे
यही कर रहे खून के कतरे
सोचा जो हो नहीं रहा वो
हो रहा वही जो सोचा न था
 कभी,
खुद के लहू का कतरा
मौत मुकर्रर करेगा 
कौन सोच सकता है
अपना,अपना ही सपना
तबाह कर देगा
तपस्या के बदले मौत का 
पैगाम 
फिर भी सलामती मे उनकी
उठते है हाथ,
बेमुरव्वत, बेदर्द वे जो नहीं
खड़े होते साथ
वाह रे अपनी जहाँ के माँ बाप
ढो लेते है औलाद का घाव।।।

डॉ नन्दलाल भारती
17/08/2017









।।।। मजबूरी ।।।

माँ-बाप क्या होते हैं ?
 धरती के भगवान
बेटे कहां समझते हैं
माँ-बाप सब कुछ
समझ जाते हैं
कुल के उध्दारक 
और भी बहुत कुछ
बेटे जो कुछ नहीं समझते
माँ बाप बेटे की
वाह-आह-सांस तक के
मर्म को समझ लेते हैं
बेटे अब माँ-बाप के
आंसू तक को नहीं समझते
माँ बाप के अरमानों का
कर देते हैं क़त्ल
जीते जी देते हैं मार
माँ-बाप क्या चाहते हैं
खुद के लिये तनिक छांव
खूब तरक़्क़ी  बेटे के लिए
 दृढ़ इच्छा के लिए
कभी सेतु तो कभी पहाड़
बनते रहे
कभी खुद को गिरवीं रखते हैं
सिर्फ बेटे की तरक्की के लिये
हाँ माँ-बाप की एक और
होती है ख्वाहिश अपने लिए
इसी लिए माँ बाप हर दर्द
सह लेते हैं
हर विष पी लेते हैं
वह ख्वाहिश इतनी सी है
बेटे के कंधे पर अंतिम यात्रा
इसी ख्वाहिश के लिए 
सहते है, दुःख-दर्द ज़िल्लत भी
कुछ माँ बाप को यह भी
नहीं नसीब होता
पांव जमते ही कुछ निर्मोही
बेटे छोड़ देते माँ -बाप को
दुनिया छोड़ने से पहले 
माँ बाप मजबूर हो जाते हैं
जी कर भी मरने के लिये ।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
15/08/2017








।।आज़ादी का जश्न।।
आज़ादी का जश्न पंद्रह अगस्त है
राष्ट्र दुलारे
राष्ट्र के प्रति स्व निश्चित हो
कर्तव्य हमारे
बच्चे जवान बूढ़े भी वीर जवान
हो जाये
दुश्मन आंख तरेरे जब
तान कर छाती खड़े हो जाये
देखना दुश्मन पीठ दिखा देगा
जब हम देश और संविधान पर
मरना मिटना सीख जाएं
क्या दलित क्या आदिवासी
क्या हिन्दू क्या बौद्ध क्या जैन
क्या सिक्ख क्या मुसलमान
क्या ईसाई
समता, सदभावना कुसुमित रहे सदा
शांति समानता, राष्ट्र प्रेम का गूंजे नारा
जाति धर्म भेद की ना उठे चीख 
एकता सर्वधर्म सद्भभावना
 सबका साथ सबका विकास हो
उद्देश्य हमारा,
पंद्रह अगस्त आज़ादी का जश्न
आभा निराली जहाँ में बढ़ जाये
देश अपना जान से देश का मान
सारे जहाँ में बढ़ जाये
सर्वधर्म समानता चहुमुखी विकास के
पुष्प खिले नित नव नव
खुश्बू से जहां महक जाये
आजादी का जश्न पंद्रह अगस्त
अमर शहीदों का बलिदान
आओ प्यारे आज़ादी का जश्न
हंसी खुशी मनाएं
अमर शहीदों की विरासत आज़ादी
अमर रहे
भारत माता की जयकार लगाएं।।।
डॉ नन्दलाल भारती
13/08/2017