Friday, February 13, 2015

कविता क्या है ?

कविता क्या है ?
सदभाव,धरती का साज जीवन का श्रृंगार है 
सदाचार सुख दुःख में ढाढस जीवन रसधार है। 
कविता जीवन अमृत आस  प्यास  विश्वास है 
तीज त्यौहार हास परिहास जीवन सांस है । 
सद्कर्म जीवन संगीत,न्याय की ललकार है 
कविता धड़कन जीवन रहस्य दैवीय पुरस्कार है । 
परमार्थ,इंकलाब है कविता ,मन की उड़ान है 
नेकी,सच्चाई का बोध हृदय की पहचान है । 
धरती का स्वर्ग ज़िन्दगी का हसता हुआ ख्वाब है 
बुजुर्गो का आशीर्वाद,माँ बहन बेटी का हाथ है।  
कविता रिश्ता आन है मान है स्वाभिमान है 
कल है आज-कल  की आभा का बयान है । 
कविता कर्म-श्रम  उत्साह जीने की ललक है ,
उध्दार की पुकार जीओ  जीने दो की फलक है । 
जातिवाद क्यों, मानवीय समानता की पुकार है 
कविता सर्वधर्म समानता विश्वबंधुत्व की गुहार है।  
कविता दायित्वबोध,अप्पो दीपो भवः का भान है 
सच कविता  सभ्यता संस्कृति मूल्यों की पहचान है........... 
डॉ नन्द लाल भारती 
02 फ़रवरी 2015  

दो गज जमीं /कविता

दो गज जमीं /कविता 
नहीं चाहिए दो गज जमीं 
जिन्हे चाहिए वे भी करे विचार 
दिन प्रति दिन कम होती जमीं 
और 
अपनो की बढ़ती भीड़ 
दो गज जमीं पर स्थाई कब्ज़ा 
मौत के बाद भी 
क्या बनता  नहीं सवाल …?
अपनो पर लगता नहीं अत्याचार 
जीवन के लिए जरुरी है जमीं 
मौत के बाद ऐसी क्यों दरकार 
मृत काया को  क्या चाहिए 
काष्ठ के कुछ टुकड़े कंडे-सरकंडे 
आग की चिंगारी ,यही काफी है 
हां…। चंद  घडी के लिए
दो गज जमीं भी। 
मौत के बाद भी जमीं पर 
कब्ज़ा बनाये रखने की 
ख्वाहिश रखने वालो 
करो विचार 
दो गज जमीं की क्यों दरकार 
तज  दो मौत के बाद भी 
जमीं पर कब्जे का विचार 
अपनी जहां 
और 
अपनो पर होगा उपकार।
डॉ नन्द लाल भारती 
7 फ़रवरी 2015 

बदनसीब पुत्र की डायरी /कविता

बदनसीब पुत्र की डायरी /कविता 
पिता की तुला पर बदनसीब खरा नहीं उत्तर पाया 
विफलता कहे या सफलता पुत्र नहीं समझ पाया। 
पिता की चाह थी श्रवण बनकर जमाने को दिखा दे ,
पुत्र भी चाहता था कि  पिता की हर इच्छा पूरी  कर दे। 
पर पुत्र ने होश संभालते विरोध की शपथ ले लिया था 
पिता की ऐसी इच्छा नहीं जिससे मान बढ़ सकता था। 
लोग हँसते पिता  शिकायत करता पुत्र मौन रहता था 
पिता के स्वस्थ रहने का हर  बंदोबस्त मौन करता था। 
शराब और कबाब के  आदी  पिता ने जंग  छेड़ दिया था 
पुत्र की कोशिश रहती पिता तन-मन से खुश रहे सदा । 
पुत्र का सद्संस्कार  पिता का जैसे  विद्रोह बन गया था
पिता स्व-इच्छा को सर्वोच्च ,पुत्र को नालायक कहता था। 
पुत्र चिंता -लोक-लाज -सभ्य समाज  में जीने को विवश था 
पुत्र संघर्षरत पिता को शराब-कबाब  सर्वप्रिय हो चूका था । 
रिश्ते की कसम का नशे के शौक़ीन पिता को तनिक भान न था 
पुत्र के खिस्से के अनगिनत छेद ,बीमारी रक का गम न था । 
सदाचारी कर्मयोगी पुत्र, पिता की नजरो में नालायक  था 
वादे का पक्का पुत्र कुनबे के भले के लिए जी रहा था। 
जीवन में मुट्ठी भर आग,ज़माना पुत्र को सफल कहता  था  
पिता की जिद ने स्वयं को तन से अक्षम बना दिया था। 
स्तब्ध ,संघर्षरत पुत्र की हर तरकीबे फेल हो चुकी थी 
वक्त के साथ पुत्र कर्मपथ पर चलने को विवश था। 
जमाने की निगाहो में सफल पिता की निगाहो में फेल था 
फ़र्ज़ पर  फ़ना, जमाने की जंग में जीता हुआ हार चुका था। 
ये कैसी बदनसीब क्या गुनाह,पुत्र  सोचने को विवश था ,
यह ह्रदय विदारक दास्तान बदनसीब पुत्र की डायरी के 
एक पन्ने  पर अश्रु से  लिखा हुआ था। 
 डॉ नन्द लाल भारती 
13  फ़रवरी 2015