Friday, September 28, 2012

अपनी जहां में .......

अपनी जहां में .......
अपनी जहां का क्या ?
बखान करूँ,
भेद-दर्द-डर  का तांडव
मन कराहता रहता
रिसते जख्मो का सुलगता ठीहा
शोषण,उत्पीडन ,छल
जाति-क्षेत्र का दहकता प्रपंच .......
अपनी जहां में
चेहरा बदला कर नस्तर मारने वाले
बनने को तो दर्द का बन जाते है
 रिश्तेदार
हाय रे आदमी हीया के काले
मौंकापरस्त लोग आंसू देने वाले ................
भेद की तुला पर बरदा करना
आदत है
दबे-कुचले आदमी की यहाँ बस
सासत है
हक़ लूटना तो बपौती का हिस्सा है
सुलगता नसीब जीवित किस्सा है ...
अपनी जहां  में
जातिभेद में ठगे गए लोग
आज के ज़माने में नहीं उबार पाए है
दर्द का दहकता दरिया सर उठाये है ......
बाजू  और कर्म पर यकीन
अफ़सोस चेहरा बदलने में
 प्रतिफल भेद का शिकार हुआ
योग्यता हुई बहिष्कृत
अपनी जहां में हाशिये के आदमी का नहीं
उध्दार हुआ  .....
अपनई जहाँ के लोगो के भी
होठ फडफाड़ने लगे है
दर्द का भार माथे चढने लगा है
कलम चलने लगी है
बस देखना है
समता का सागर उमड़ता कब है
अपनी जहां में ................नन्द लाल भारती २९.०९.2012

Tuesday, September 25, 2012

Sadbhawana kee Raah

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uUnyky Hkkjrh 20-09-2012

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uUnyky Hkkjrh 20-09-2012

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Tuesday, September 18, 2012

दुआ है हमारी

दुआ है हमारी
ख़ुशी एकदम से बढ़ गयी थी
पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे
हौशले को पर लग गए थे
घर-मंदिर गमक उठा था
अगर बत्ती से उठा धुँआ
एकदम से सुगन्धित हो उठा था
दीवार पर टंगी तस्वीरे ,विहस उठी थी  जैसे
बात ही कुछ ऐसी थी 
बेटा का फ़ोन था
पहली नौकरी की पहली तनख्वाह जो  मिली थी
हजारों कोस की दूरिया मिट चुकी थी
बेटा परदेस में होकर  सामने बतिया रहा था
उसकी ख़ुशी दिल को बसंत लूटा रही थी 
नोटों के बण्डल हाथ पर रख रहा था जैसे
बाप का दिल झूम उठा था
ज्ञान-तन- धन बल का ढेरो आशीष
झराझर बह रहा था
रेगिस्तान में बसंत का एहसास करते हुए बोला
भागवान कहा हो
बेटवा जिम्मेदारी संग अधिक फिक्रमंद हो गया
वह बोली कहा है
भागवान  फ़ोन पर है
फोन लेते ही वह झूम उठी
बोली जीओ मेरे लाल सदा रहो खुशहाल
भगवान् खूब तरक्की बख्शे  तुम्हे
भगवान पर विश्वास रखना
तुम्हारी खुशी अपने जीवन की साध है
हर माँ-बाप का बेटा हो तुम्हारे जैसे
उनकी  छाती को  खुशियाँ मिले  बसंत जैसे
दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की करना
दुआ है हमारी
कर्म-फ़र्ज़ कभी ना भूलना
यही ख्वाहिश मानना हमारी
सूरज हो चाँद ज़िंदगी हो हमारी
तुम्हारी खुशियों में ज़िंदगी हमारी
खुश रहो मेरे लाल
बरक्त बरसे सदा तरक्की  मिले  मनचाही
मुबारक हो पहली तनख्वाह
दुआ है हमारी ................नन्द लाल भारती १८.०९.2012

Monday, September 17, 2012

माँगी जाती मन्नत .

माँगी जाती मन्नत .
गाँव कहने को तो देश दुनिया की
जन्नत है
गाँव ही तो वह  द्वार है
जहा सूरज की पहली किरण
दस्तकत देती है
सब बौना लगता है
अपने गाँव की असली तस्वीर के आगे
अपना गाँव आज भी  दबा पड़ा है
भूमिहीनता से भय और भूख से
दबंगों के गाँव समाज की
जमीन के अवैध कब्जे से
और छुआछूत की असाध्य बीमारी से
वार्णिक मोहल्ले की सीमायें
दुश्मन देश की सीमायें बनी हुई है
ना धर्म -ना समाज के पहरेदार
ना सरकार फिक्रमंद है
भलीभांति गोटी बिठाना सीख गए है जो
अभिशाप बन गया है यही
आदमी अछूत हो गया है
तरक्की से दूर हो गया है
सरकार  धर्म -समाज के पहरेदार
बरते होते ईमानदारी
समपन्नता-बहुधर्मी सद्भवाना
और सवा-धर्मी समानता
जरुर कुसुमित हो गयी होती
बढ़ने लगे होते हाथ
ऊपर से नीचे की ओर
निम्न वार्णिक ना होता
शोषण अत्याचार का शिकार
ना उपजता नित नया अविश्वास
अपना भी गाँव बना रहता जन्नत
ना होता पलायन
गाँव में बने रहने की
माँगी जाती मन्नत ..................नन्द लाल भारती .. १७.०९.2012

Saturday, September 15, 2012

दहशतगर्दी

दहशतगर्दी
भेद और लूट की दहशतगर्दी
आज भी चौखट पर दस्तक देती है
दुकान-दफ्तर नुक्कड़ शहर-गाँव तक
पसरी है दहशतगर्दी
बस्ती को भयभीत  कर रही है
हैरान परेशान लहूलुहान है आदमी छोटा
ठगी नसीब का मालिक ,हो गया है खोटा
ढो रहा है नित,छाती पर कई-कई मन दुःख
आँखों में सजाये कई -कई जीवित सपने
बेबस जी रहा है दहशतगर्दी में
कौन सुनेगा है उसकी कि,अब कोई सुनेगा
कमेरी दुनिया का शोषित-वंचित
हाशिये का आदमी है जो
लूटा गया दहशतगर्दी में जो
दिन का उजाला भी ,अँधियारा लगने लगा है उसे
रात के अँधेरे में  तो दहशतगर्दी के
 सदमे सताते है रोज-रोज
आदमी है नेक,छोटा बना दिया गया है जो
मन का तो गंगा जैसे पवित्र है वो
श्रम झरता है झराझर
अछूत रह गया ना भला हुआ उसका 
बदलते वक्त में भी
समाज-धर्म-राजनीति के पहरेदारो से
आतंकित शोषित  पीड़ित
बसर कर रहा है दहशतगर्दी में रोज-रोज .....नन्द लाल भारती ..१६.०९.२०१२

Friday, September 14, 2012

स्वांग रच रहा है आदमी .

स्वांग रच रहा है आदमी .
आधुनिक होने का स्वांग
रच रहा है आदमी
बिल्ली रास्ते से निकल जाए
अपशकुन मान रहा है आदमी
मंदिर की चौखट से दूर
फेंका जा रहा है आदमी
शिक्षा मंदिर  में
उंच -नीच में बाँट रहा है आदमी
पानी पिलाना पुण्य का काम
आधुनिक  युग में पात्र  छूने पर
प्रताड़ित किया जा रहा है आदमी
कैसी तरक्की ....?
छोटी जाति के कुएं के पानी को
अपवित्र कह रहा है आदमी
चेहरे बदलने वाले  परजीवी
कमजोर के  लहू  पर पलते है
खुद को कहते है
आधुनिक युग का आदमी
कैसी तरक्की कैसे ये आदमी
आदमी को अछूत मान  रहे  है आदमी
भेदभाव का विष बीज बोता
कहने को राम राम
बगल में छुरी खोंसे  आदमी
नए जमाने में
चेहरा बदल -बदल कर आदमी को
डंस रहा है आदमी 
कैसे बदलेगी सूरत कैसे बसेगी समता
कैसे बरसेगी सद्भावना
जब आदमी का हक़ लूट रहा है आदमी
दिल में अरमान आँखों में आंसू  लिए
श्रम बीज बो रहा है शोषित आदमी
छल या  कुछ और
विज्ञानं के युग,में भी
आदमी को नीच कह रहा है आदमी
आधुनिक होने का स्वांग रच रहा है आदमी ........नन्द लाल भारती...१६.०९.२०१२

|| मिलावट भक्षक लगने लगा है||

|| मिलावट भक्षक लगने लगा है||
मिलावट का असर
आदमी पर हावी होने लगा है
रोग दोष से ,ग्रसित रहने लगा है
असर पेट से दिमाग तक
होने  लगा है ,
लूट खसोट,रिश्वत,भ्रष्टाचार का
जहर फैलने लगा है
गैर से बैर बढ़ने लगा है
अपना भी पराया लगने लगा है
आदमी का आदमी से
विश्वास उठने लगा है 
सफेदी में सराबोर आदमी
दिल से काला लगने लगा है
मोहक रूप छलावा लगने लगा है
मिलावट का डंक
जन-धन का दुश्मन बनने लगा है
लहू  दिल में जमने लगा है
आदमी असाध्य रोग के दलदल में
डूबने लगा है
हाय ये मिलावट का दंश
जन-राष्ट्र का अहित करने लगा है
आदमी आदमी से
भयभीत रहने  लगा है
और ना हो जाए देर
मिलावट ना चौपट कर दे नस्ल
बजा दे दानव के खिलाफ बिगुल
क्योंकि मिलावट का जहर
जीवन भक्षक लगने लगा है ......नन्द लाल भारती
१४.०९.२०१२

Wednesday, September 12, 2012

बड़प्पन क्या जाने ...?

बड़प्पन क्या जाने ...?
खुद को बड़ा मानने वाले
बड़प्पन क्या जाने ...?
जो मतलब की गाँठ रहते है बांधे
बदलते है यौवन रचाते है रूप
नाचते स्वार्थ की  नाच यही  स्वरुप
कर देते है क़त्ल बार-बार
रो जाता है  मन कई-कई बार
न कर्म का न फ़र्ज़ का ज्ञात लोकाचार
धर्म उनका विष बोओ और लूट लो
अदना हो कोई तो बस रौंद दो
पिस रहा है अदना बड़ो-बड़ो की
जोर आज़माईस में
हो रहा नगा प्रदर्शन नुमाईस में
सावधान वो बड़प्पन क्या जाने ..?
जो बस मतलब की नब्ज़ पहचाने
मजबूरी है टिके रहना उनके बीच
रहे याद सद्धर्म,
कर्म-फ़र्ज़ भले आंसू से सींच
ढह जाएगा एक दिन आदमी असुर
रख हौशला ये अदने
और
फ़ना होने की ताकत भरपूर ............नन्द लाल भारती ... १२.०९.२०१२

Friday, September 7, 2012

नर देवा

नर देवा नर देवा हाथ बढाओ
मन की दीवार ढहाओ
जन-राष्ट हित में साथ चलो
 चलो
सब मिलकर खूब बढ़ो
ना वैमनस्यता ना विखराव
धर्मवाद ना जातिवाद के विवाद

जान से प्यारा देश हमारा
हम से देश, देश के हम प्यारे
हिन्दू बौध्द ईसाई या
मत हो कोई
जाती-धर्म के नाम
ना भेद कोई
सब जाने सब की एक पहचान
लहू का रंग एक समान
नफ़रत की तलवार ना चलाओ
बहुजन  हिताय समतावादी गाथा
धरा पर अमर बुध्द की अभिलाषा
जीओ और जीने दो
महावीर कि विजय पताका
नर से होत नारायण
हर नर से प्रीति बढाओ
मन की दीवार ढहाओ
नर देवा अब तो  हाथ बढाओ ...
........नन्द लाल भारती ...०८.०९.२०१२

Sunday, September 2, 2012

हाशिये के लोग

हाशिये के लोग
करोडो अरबो में खेलने वालो
किलेनुमा महलों में रहने वालो
मेरे गाव चलोगे क्या .................?
जहाँ कुए का पानी आज भी
अपवित्र है
पसरी है गरीबी,अशिक्षा और
जातीय भेद भी ........
गाँव के मेहनतकश
कमेरी दुनिया के मालिक
हाशिये के लोग
फांका में भी  रात काट लेते है
नीम की छांव बेख़ौफ़
भर नींद सो लेते है
तरक्की  की बाट जोहते हुए .......
सामाजिक आर्थिक सम्पन्नता
आज तक  नहीं पहुंची है
वंचितों की चौखट तक
क्यों नहीं पहुँच है
धर्म और राजनीति के ठेकेदार
जानते है अच्छी तरह
अब तो सुन लो
हाशिये की आवाज़
गूँज रही है हाहाकार
कब तक रहेगे
हाशिये के लोग
अछूत गरीब तरक्की से दूर
और लाचार....नन्द लाल भारती .......०३.०९.२०१२

जी भर रहा है .

जी भर रहा है .
फिर आँखे रो उठी
दिल तड़प उठा
उसको देखकर
आँखों में उसकी
के दीदार थे
दिल में दहकते साक्षात्कार थे
आँखे लबालब थी
किनारे मज़बूत थे
पेट से जैसे
अंतडिया गायब थी
कमर और घुठने बेबस
लग रहे थे
हाथ एकदम तंग था
संघर्षरत मौन बयान
दे गया था
बूढ़ी सामाजिक कुव्यवस्था से
टूट चुका था
दोयम दर्जे का आदमी
कोई और नहीं
हाशिये का आदमी  मूलनिवासी
 शोषित उपेक्षित भूमिहीन खेतिहर मजदूर था
आज भी है ,
अफ़सोस कोई खैरियत
जानने वाला नहीं
दमन, जातीय कुचक्र,भय- भूख
भेद भाव से भयभीत
शोषित आदमी बस जी भर रहा है ...नन्द लाल भारती ०३.०९.2012

Saturday, September 1, 2012

बदला है इतिहास

बदला है इतिहास
चढ़ गए
 तरक्की की छाती
नसीब लूटने वाले
कहते हैं
बुरी नाजर वाला
तेरा मुंह काला
हो रहा उल्टा
डूब रहा पसीने से
जहां सींचने वाला
तरक्की बसी द्वार उनके
ठग जो
पसीने से ना हुआ
साक्षात्कार जिसका
कमजोर हाडफोड़ रहा जो
पसीने की रोटी
आंसू में डुबो कर
बसर कर रहा जो
किस्मत विरान
भूख-भय -भेद के दहकते
अंगारे
आस कल लागे सुहाना
श्रम के बीज आंसू से सींचे
होगी उम्मीद की खेती
भरपूर
आयेगी तरक्की
कमजोर के द्वार
श्रम जिसका स्वाभिमान
श्रमेव जयते
बदला है इतिहास
बढ़ा है मान ............नन्द लाल भारती ....०२.०९.२०१२

बच जायेगा...

बच जायेगा
कौन किसका दुश्मन 
जाने जग सारा
मन में बैठा भेदभाव  
क्रोध-पद-मद-मोह
दुश्मन हमारा ..
दुश्मन दूसरा नहीं
बाहर नहीं दुश्मन कोई
दिल में खुद के खोजा
मिला हर दुश्मन वही
निकल गे दिल से यारो
दुश्मन अपने
मित लगेगा हर कोई.....
कौन जीता कौन हारा
हार-जीत की दुनिया में
आदमी धूल में मिल जाता
बोया जो सद्प्यार
वही वक्त के आरपार
याद रह जाता .....
चेहरा बदल कर
दीन वंचित की आँख में
धूल झोंकर लूटी तरक्की
क्या ख़ुशी देगी
हार का भय डंसता रहेगा
जीवन हो सफल न डँसे
भेदभाव   क्रोध-पद-मद-मोह से
उपजा गम
सद्भावना का बसंत बने हम ...........
संघर्ष ही जीवन है
भेदभाव   क्रोध-पद-मद-मोह में
जीवन क्या नारेअक बनाना
मन  में हो समता सहयोग सद्भावना
यही जीवन जीत का सार
चले मानव धर्म की राह प्यारे
बच जायेगा   कुसुमित नाम
वक्त के आरपार ....नन्द लाल भारती ०२.०९.२०१२