Thursday, July 22, 2010

उत्थान

मुश्किल के दौर से ,
गुजर रहा है
युवा साहित्यकार
ऐसे मुश्किल के दौर में भी
हार नहीं मान रहा है ।
ठान रखा है
जीवित रखने के लिए
साहित्यिक
और
राष्ट्रीय पहचान ।
ऐसे समय में जब
हाशिये पर
रख दियागया हो
पाठक दर्शक बन गए हो
स्वार्थ का दंगल चल रहा हो
साहित्यिक संगठन
वरिष्ठ मंच में
तब्दील हो गए हो
ठीहे की
अघोषित
जंग चल रही
क्या यह संकटकाल नहीं ?
वरिष्ठो को कल की
फिक्र नहीं
नाहि युवाओ के पोषण की ।
वे आज को भोगने में लगे है
युवाओ के हक़ छीने जा रहे है
राजनीति के सांचे में
हर सत्ता ढाली जा रही है ।
साहित्यिक ठीहे
कब्जे में हो गए है
युवा कलामकर
निराश्रित हो गए है
कब छटेगे
सत्ता
मोह के बादल ?
कब करेगे चिंतन
ये वरिष्ठ
कब्र में पाँव लटकाए लोग ?
कब गरजेगा युवा ?
कब होगा काबिज
खुद के हक़ पर ?
कब आएगी साहित्यिक ,
मानवीय समानता
और
राष्ट्र-धर्म की क्रांति ?
सही-सही बता पायेगे
सत्ता सुख में
लोट-पोत कर रहे
वरिष्ठ लोग ।
तभी
विकास कर पायेगा युवा
साहित्य और राष्ट्र भी
जब तक सत्ता कब्जे में है
तब तक कुछ संभव नहीं
नाहि साहित्य का
नाहि राष्ट्र का उत्थान
और
नाहि कर सकता है
युवा उत्थान । नन्द लाल भारती २०.०७.०१०

Wednesday, July 21, 2010

गुहार

जानता हूँ ,
पहचानता हूँ ,
नेक नियति ,
दुनिया बदलने का जज्बात
फ़र्ज़ पर कुर्बान होने की
ताकत एक बाप की ।
बाप ही तो है
मेहनत की कमाई से
जो
सुनहरा कल दे सकता है ,
खुद के परिवार
और
देश को ।
अफ़सोस यही बाप ,
जब बहक जाता है ,
सूरा की धार में बह जाता है ।
खुद इतना ,
नीचे गिर जाता है ,
पत्नी को आंसू ,
औलाद को खौफनाक कल
खुद धरती का
बोझ
बन जाता है ।
थूकते है
लोग सुराखोरी पर
कसते है व्यंग
परिवार की मजबूरी पर ।
सुरखोरो से है
गुहार
भारती हाथ ना लगाओ
नागिन को
डंस लेगी
पीढियों की बहार ........नन्द लाल भारती ......२१.०७.२०१०

Tuesday, July 20, 2010

मन की बात -३

दर्द कितना
क्यों न हो भारी
पलको को
नाम ना कीजिये
रात चाहे
जितनी भी हो
कारी
उम्मीद के उजास से
बसर कर लीजिये ...नन्दलाल भारती २०-०७-२०१०
०००००
आप योही मुस्कराते रहे ,
अभिलाषा है हमारी
दुआ कीजिये
कलम थामे
जिन्दगी
कट जाए
हमारी ....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
विष के दरिया में
रहकर
भी जी लेता हूँ
यादो के
के झरोखे में
दर्द
आज भी
पी लेता हूँ। नन्द लाल भारती ..२०.०७.२०१०

मन की बात-२

बगिया के फूल सभी अच्छे
फलेफूले भरपूर महके
बसंत की लय
कोकिला की सुरताल
मुस्कराते रहो
गुलाब से लाल
सुखा कल हो तुम्हारा
तरक्की से तुम्हारी
विहस उठे जग सारा।
सुन्दर बगिया के फूल
तुम
फूल हो
अच्छी-अच्छे
दुआ आज
सलाम तुम्हारे
कल को
ये बच्चे .....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
हर आँखों को
पढ़ा है
हमने ,
दास्तान नहीं
जानना चाहा
किसी ने ।
निगाहों को
पढ़कर
जो
बिज बोये है
टूटे अरमान
सच
हमने बहुत
रोये है ।नन्द लाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
किस्मत
एक
कल्पना
तो है ,
परन्तु
आत्मिक
शांति
का मूलमंत्र
भी है ....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०
०००००
कर्म उचाईया
तो दे सकता है
बशर्ते
शोषण का
शिकार ना हो.....नन्दलाल भारती २०.०७.२०१०

Monday, July 19, 2010

मन की बाते - 1

संभावनाए
दूर-दूर
तक राह दिखाती है
सच काम भी
औरो के बहुत आती है ,
संवेदनाये
वेदना बन जाती है
तब ,
महफ़िल में घाव
पाती है जब
सरेआम विषपान
कराया जाता है
जाम की थाप पर
बदनाम किया जाता है
क्या नाम दू
ऐसे अफ्सानो को
खुदा समझ दे
बेगानों को
मेरा क्या भारती ?
शब्दों की धार जीवन
जहर पी जाऊँगा
बेगानों के बंज़र को
अपनेपन का
नाम दे जाऊगा .....नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
खाक खाहिशो के
जंगल को
नीर भरी आँखों से
सींचा करो ,
एक मुसाफिर है
हम
सदभाव के बोल
तो
बो दिया करो .... नन्द लाल भारती १९.०७.२०१० ,
०००००
कायनात को भान है
आदमी वही
होता
महान है ।
जुड़ जाये
जो गैरों के
दुःख-दर्द से
नहा उठे
समानता के भाव से ।
ईसा बुध्द याद है
जीवित
जिनकी फ़रियाद है
भारती
सद्कर्म की राह
आदमी महान
होता है
सच
खून से बड़ा
रिश्ता
दर्द का होता है .....नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०

कुछ रचनाये

उम्र गुजर जाएगी
योंहि
उम्मीद के सहारे ।
मुरझाई जिंदगी को
बुध्द की तरह
छांव दिया
करो प्यारे ...नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
जिंदगी के सफ़र में
निशान छोड़ते जाइए
ताकि
आने वाला
मुसाफिर पद चिन्ह पर
चल सके .....नन्द लाल भारती ॥ १९.०७२०१०
०००००
आज मुस्कराने को जी
चाहता है
मुबारक हुआ
दिन आज का
गगन है मगन
साथ आपका
फूलो का संग
सभी को सुहाता है
आज मुस्कराने को
जी चाहता है नन्दलाल भारती ... १९.०७.२०१०
०००००
माटी की काया
हमारी तुम्हारी
फ़र्ज़ का
बोझ
है भारी
औरो के भी
हक़ है
नहीं कोई शक है
किसी को
आना
किसी को
जाना है
कर्म की डगर पर
याद छोड़ जाना है ....नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
खौफ खा जाता हूँ
कलि परछाईया देखकर
खुदा खैर करे ,
जी लेता हूँ
औरो की
खुशिया देखकर ......नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०

कुछ रचनाये

मुश्किलों के दिनों में
किसी दोस्त ने
मदद किया है ।
यह मदद ,
क़र्ज़ मान लीजिये ।
दान नहीं
यह क़र्ज़ है
क़र्ज़ समझिये ।
वापस करना
धर्म मान लीजिये
दोस्ती है
कायम रखना
अगर
दोस्ती के ,
फ़र्ज़ पर
खरा उतरिये ... नन्द लाल भारती १९.0७.२०१०
०००००
मुबारक हो
यूं फूल सा
खिलखिला जाना ।
ठहरी रहे ये ,
जुड़ता रहे
नित नया तराना।
प्रसून सा
जीवन
नाचता रहे
भौरा।
आहट से
खिलखिला उठे
घरौंदा ।
मुबारक हो ,
हर रात
सुहानी बन जाए
जीवन की सुगंध से
वक्त गमकता
रह जाए .... नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०
०००००
पीर की महफ़िल में
जख्म खुद का
खुद सहला लेता हूँ ,
पल-पल रंग
बदलती रगों को
कागज पर
उतार लेता हूँ..... नन्द लाल भारती १९.०७.२०१०

Thursday, July 15, 2010

पत्थर के घर

पत्थर के घर
भान नहीं कौन
क्या ?
गुन रहा होगा
उल्लास की बयार से,
दिल विहस रहा होगा ।
खुदा की पौध के फूल है सब
पर हर को
खुशबू नहीं देता ।
जमाने के भीड़ में
कभी-कभी
कोई देवता रूप
धर लेता ।
खोजती आँखे ,
कोई मेहदी सा
रंग
नहीं छोड़ता ।
उत्सवी बाज़ार तो है
पर
अपनापन नहीं होता ।
उम्मीद का दरिया
खुद में
डूबने लगा है।
आदमी की भीड़ में
आदमी
अकेला लगाने लगा है ।
ढह रहे दरख

हर ओर
छाव कहा होगी ।
बाजारवाद की रस्मो में ,
सोधेपन की बात,
कहा होगी ?
बदलते अक्त में
नेकी का भाव गिर रहा ।
आदमी आज
खुद
खुदा बन रहा।
बिकाऊ है
सब कुछ पर
संतोष
नहीं बिक रहा ।
बूढी होती
सास को
उम्र का इंतजाम
नहीं हो रहा ।
महकती रहे
कायनात,
दुआ है हमारी ।
ना चुभे कांटे कोई ,
स्वर्ग सी हो
हरा हमारी ।
भारती धुल की ना उठे
आंधी,
महक उठे फुलवारी
पत्थरो के घर से
उठे बसंत
कामना है हमारी ...नन्दलाल भारती॥ १५.०७.२०१०

Tuesday, July 13, 2010

तलाश

तलाश
कविता की तलाश में
फिरता हूँ
खेत-खलिहान
बरगद की छाव
पोखर तालाब बूढ़े कुए
सामाजिक पतन,
भूख-बेरोजगारी में
झाकता हूँ।
मन की दूरी
आदमी की मजबूरी में
ताकता हूँ ।
तलाशता हूँ
कविता
कड़ी और खाकी में ।
दहेज़ की जलन
अम्बर अर्ध्बदन
अत्याचार के आतंक में ।
मूक पशुओ के क्रुन्दन
आदमी के मर्दन में ।
ऊँचे पहाड़ो ,
नीचे समतल मैदानों में ।
कहा-कहा नहीं
तलाशता कविता को ।
खुद के अन्दर
गहराई में
उतरता हूँ
कविता को
खिलखिलाता हुआ पता हूँ ।
सच भारती
यही तो है
वह गहराई
जहा से उपजती है
कविता
दिल की गहराई
आत्मा की ऊंचाई से । नन्द लाल भारती ॥ १3.०७.२०१०
जश्न
मुस्कराने की लालसा लिए
दर-दर भटक रहा हूँ।
हाल ए दिल
बयां करने को ,
तरस रहा हूँ।
दर्द आंकने वाला
नहीं मिल रहा कोई ।
दर्द नाशक के बहाने ,
रची जाती
साजिशे
कोई ना कोई ।
यहाँ रात के अँधेरे में
अट्टहास करता
डर है ।
दिन के उजाले में
बसा खौफ है ।
रक्त रंजित
दुनिया के आदी हो रहे ।
कही आदमी तो कही
आदमियत के
क़त्ल हो रहे।
दर्द के पहाड़ तले
दबा खाहिशो को
हवा दे रहा ।
आतंक से सहमा भारती
सर्द कोहरे से
छन रही धुप का
जश्न
मनाने से
डर रहा ....नन्दलाल भारती १३.०७.२०१०

Thursday, July 8, 2010

आदत सी हो गयी है .

आदत सी हो गयी है
भेद भरी इस ज़हा की
खा-खाकर ठोकरे
अब तो सीने में ,
दर्द लेकर जीने की
आदत सी हो गयी है ।
बेदर्द लोग थोपते है
दर्द बेख़ौफ़
छल-बल ,झूठ -फरेब की,
थामे तलवार
दुनिया की चकाचौध
हासिल कर चुके बेरहम लोग
खुद को खुदा मानने लगे है ।
देखकर जालिमो की साजिशे
इंसानियत को शर्म आने लगी है
खुदगर्ज़ पल-पल चेहरा
बदलने लगा है ।
कौन तौले आंसू दर्द का
आदमियत के दुश्मन
विहसने लगे है
मौके-बेमौके आँखे भर आई है
सच कहता हूँ
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत हो गयी है ।
दमन के बवंडर जब उठते है
शोषितों के नसीब की बलि
लेकर थमते है ।
रूह कॉप जाती है
ईमान बेपरदा हो जाता है
कर्मशीलता पर हो जाता है
वज्रपात ।
वंचित की बस्ती में
कायम रहती है
भय-भूख और कराह
देखा है पास से
पीया है आंसू भी
कई-कई राते नीद
नहीं आई है
कसम से
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत हो गयी है ।
छिनने की हवश
ऊंचे लोगो के नीचेपन को
हमने आँका है
दमन का बह चला है दरिया
लूट रहे हक़ , बाँट रहे दर्द
वंचितों की नसीब
कैद हो गयी है
सच कह रहा हूँ यारो
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत सी हो गयी है ।
नन्दलाल भारती-- ०८-०७-२०१०

Monday, July 5, 2010

लोकमैत्री

लोकमैत्री ..
लोक मैत्री की बाते
बिती कारी राते
बिहसा जन-जन
छाई जग में
उजियारी
नया सबेरा नई उमंगें
जीवित
मन के प्रपात
फ़ैलाने लगा
अब
लोकमैत्री का प्रकाश ।
सद्भावन का उदय
मन हुआ चेतन
जाति धर्म की बात नहीं
जग सारा हुआ
निकेतन ।
मान्य नहीं
जातिधर्म का समर
जय गान सद्भावना का
बिहस उठेगा
जीवन सफ़र ।
विश्वबंधुत्व की राह
नहीं होगा अब
मन खिन्न
ना होगा भेदभाव
ना होगा आदमी भिन्न।
भारती लोकमैत्री का भाव
विश्व एकता जोड़ेगा
ना गैर ना बैर
हर स्वर
सद्भावना की
जय बोलेगा ......नन्द लाल भारती ॥ ०५.०७.२०१०

विष की खेती

विष की खेती ..
नेकी पर कहर
बरस गया है
सगा आज
बैरी हो गया है ।
हक़ पर जोर ,
अजमाइश होने लगा है
लहू से खुद का ,
आज सवारने लगा है ।
कभी कहता दे दो ,
नहीं तो छीन लूगा
कहता कभी,
सपने मत देखो
वरना आँखे फोड़ दूंगा ।
माय की हाला में डूबा
कहा उसको पता,
बिन आँखों के भी
मन के तरुवर पर,
सपनों के भी
पर लगते है ।
हुआ बैरी अपना,
जिसको लेकर
बोया था सपना ।
धन के ढेर
बौराया
मद चढ़ा अब माथ
सकुनी का यौवन ,
कंस का अभिमान,
हुआ साथ ।
बिसर गयी नेकी
दौलत का भरी दंभ
स्वार्थ के दाव
नेकी घायल
छाती पर गम ।
नेकी की गंगा में
ना घोलो जहर
ना करो
रिश्ते के संग
हादसे
देवता भी तरसे ।
जीवन को भारती
मतलब बस ना करो
विष की खेती
डरा करो
खुदा से.................नन्द लाल भारती ... ०५.०७.२०१०

Saturday, July 3, 2010

नमन कर लो

नमन कर लो ॥
खौफज़दा कह रहे है
कौन है
वो ,
रोशनी पर
कारा पोत रहा है
जो ।
आवाज़ आती है
मंद सी ,
होगा कोई
अमन शांति का
विद्रोही
या
स्वार्थी फरेबी
कोई
या
कोई
उन्मादी अमानुष
आदमियत के माथे
गारा छोप रहा है
जो ।
आवाज़ पुनः
गूजती है ,
अरे अमन शांति
के दुश्मनों
विद्रोह से फूटेगी
चिंगारी जब
राख कर देगी
सारे वजूद तब
फरेब से खड़ी
इमारत को भी ।
त्याग दो
अमानवीय कृत्य
जमाने को सुखद
एहसास करा दो,
सच
हर लब पर होगा
एक स्वर
वो
कौन देवता है भारती
रोशन जहा
करने वाला
नमन कर लो.... नन्दलाल भारती.....०७.२०१०
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जीवन में सुखद उजास बाटते रहिये ,
ना जाने किस मोड़ पर सास साथ छोड़ दे ॥
नन्द लाल भारती ॥ ०३.०७.२०१०
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मर्यादा

मर्यादा
हुशन के सौदागरों ने
मर्यादाओ को
रौद रखा है ।
वे भी है
एक औरत की देन
विसार रखा है ।
बेपरदा ,बदमिजाजिया
करता सौदागर
दबा
क़र्ज़ तले
जिसके
सौदा करता
उसी का सौदागर । नन्दलाल भारती 02.०७.2010
०००००
नारी मुक्ति को खुला सलाम
चाहुओर तरक्की
यही है
पैगाम ।
नारी अस्मिता पर
आज खतरा
मदराया /madaraya है
आधुनिकता का
बिगड़ा रूप
निखर आया है।
तन के वस्त्र कम
होने लगे है
कही अर्ध्बदन
तो
कही तंग होने लगे है ।
मुक्ति का मतलब
अश्लीलता
क्यों हो रहा है
आधुनिकता व्यभिचार
क्यों
बन रहा है
अरे करो विचार
कैसी है
इ लाचारी
पश्चमी सभ्यता का
जाल
बेबसी नहीं
हमारी । नन्द लाल भारती ०२.०७.२०१०

Friday, July 2, 2010

आरजू

आरजू

आरजू है खुदा तुमसे
कांटो को भी भर दे
रहनुमाई से ।
ना धंसे
वे
उस पाँव में
बढ़ रहे हो
जो
जनकल्याण में ।
काँटों ने तो फूलो को ,
सवार रखा है
समाज के कांटो ने
तबाह कर रखा है ।
मशविरा है ,
हमारी समाज के
कांटो को साज दो
आदमियत की
सुरक्षा का भार
उन पर डाल दो ......नन्द लाल भारती ...०२.०७.२०१०

कागा

कागा
कागा भी आज राग ,
अलापने लगे है ।
असि पर आंकने वाले
मसीहा बनने लगे है ।
कैसे-कैसे चेहरे है
जमाने की भीड़ में।
उसूलो की तो बाते,
खेलते है
गरीब की भूख से ।
उसूले के मायने बदल ,
गए है आज ।
तरक्की बरसे खुद के द्वारे
सलामत रहे राज।
मय की मदहोशिया
मयखाने में थाप दे रहे
खुदा की कसम भारती
यही तो
तबाह कर रहे। नन्द लाल भारती ...०२.०७.२०१०

भरे जहा में ..

भरे जहा में ..
भरे जहा में
परायेपन की बेवफाई
मतलब का विष ,
डंसती भेद की परछाई ।
सामाजिक द्वेष की
आज के जग में ,
हौशला अफजाई
आहात मन उत्पीडन की ,
ना सुनवाई ।
समता की दीवाना
समझौतावादी झुक
जाता बार-बार
उसूलो का पक्का
ईमान ना झुका एक बार ।
बेबस भेद भरे जहा में
आशा ही जीवन का आधार
बड़े दर्द ढोए है,
विषमता ने छोपा है खार।
जीवन बना पतझड़
ना खिला तकदीर का तारा
गम की राहे लक्स आंसू
बैरी हुआ जग सारा ।
बाँट गयी कायनात
भारती तडपे बेसहारा
ना घेरे भेद अब
मानव उत्थान रहे ध्येय हमारा.......... नन्दलाल भारती॥ ०२-०७-२०१०

Thursday, July 1, 2010

पिता
मै पिता बन गया हूँ
पिता के दायित्व
और
संघर्ष को जीने लगा हूँ
पल-प्रतिपल ।
पिता की मंद पड़ती रोशनी
घुटनों की मनमानी
मुझे
डराने लगी है ।
पिता के पाँव में लगती ठोकरे
उजाले में सहारे के लिए
फड़कते हाथ
मेरी आँखे नाम कर देते है ।
पिता धरती के भगवान है
वही तो है ,
जमाने के ज्वार-भाटे से
सकुशल निकालकर
जीवन को मकसद देने वाले ।
परेशान कर देती है
उनकी बूढी जिद ,
अड़ जाते है
तो
अड़ियल बैल के तरह
समझौता नहीं करते
समझौता
करना तो सिखा ही नहीं है ।
पिता अपनी धुन के पक्के है
मन के सच्चे है
नाक की सीध चलने वाले है ।
पिता के जीवन का
आठवा दशक प्रारम्भ हो गया है
नाती-पोते ल;कुस हो गए है
मुझे भी मोटा चश्मा लग गया है
बाल बगुले के रंग में ,
रंगते जा रहे है
पिता है कि
बच्चा समझते है ।
पाँव थकते नहीं
उम्र के आठवे दशक में भी
भूले -भटके शहर आ गए
तो
आते गाव जाने कि जिद
गाव पहुचते
शहर रोजी-रोटी कि तलाश में आये
बेटा-बहू- नाती -पोतो कि फिक्र ।
पिता कि यह जिद
छाव लगती है
बेटे के जीवन की।
सच कहे तो यही जिद
थकने नहीं देती
आठवे दशक में भी पिता को ।
आज बाल-बाल बंच गए
सामने कई चल बसे
बस और जीप की खुनी टक्कर थी
सिर हाथ फेरकर मौत ने रास्ता
बाल ली थी ।
खटिया पर पद गए है ,
खटिया पर पड़े-पड़े
पिता होने का फ़र्ज़ निभा रहे है
कुल-खानदान ,सद्परम्पराओ की ,
नसीहत दे रहे है
जीवन में बाधाओं से
तनिक ना घबराना ।
कर्म-पथ पर बढ़ाते रहने का ,
आह्वाहन कर रहे है ।
यही पिता होने का फ़र्ज़ है
पिता अपनी जिद के पक्के है
और अब मै भी।
यक़ीनन ,
परिवार ,घर-मंदिर के
भले के लिए जरुरी भी है
मै भी समझाने लगा हूँ
क्योंकि मै पिता बन गया हूँ ।
औलाद के आज- कल की फिक्र
मुझे पिता की विरासत में ,
मिल रही है ,
यकीन है
मेरी फिक्र एक दिन
मेरी औलाद को
सीखा देगी
एक
सफल पिता के दावपेंच ..... नन्दलाल भारती ०१-०७-२०१०