Sunday, May 1, 2011

सुलगते रिश्ते

सुलगते रिश्ते ...
घात-प्रतिघात स्वार्थ का
विषैला रोग ,
वक्त की बेवफाई
सम्पति का बढ़ता मोह ।
आंसुओ की गवाही
ना
रहती अब याद
क्या कर्म क्या फ़र्ज़
स्वार्थ का
गहराता दरिया ।
अस्मिता का उपहास
परिश्रम का परिहास
रिश्ते की सिकुडन
संबंधो का तलाक
ना थे कभी ऐसी आस
और के हक़ से
नजदीकी
नाक नोचने की बात
वाह रे जमाना
ऐसे रिह्तो की नित
झरती बरसात
चक्रव्यूह स्वार्थ का
बढ़ती ध्रितराष्ट्र की तादात
अंध गूगा बहरा वक्त
अनगुंज फ़रियाद ।
यादो के जंगल में
नित बहता हादसा
स्वार्थ बस
आशियाना रिश्तो का
सुलगता ,
वाह रे
रिश्तो का करिश्मा
न तेल न बाती
सदा जलता रहता .....नन्द लाल भारती

2 comments:

  1. रिश्ते ऐसे ही होते हैं ....अच्छी रचना

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  2. स्वार्थ बस
    आशियाना रिश्तो का
    सुलगता ,
    वाह रे
    रिश्तो का करिश्मा
    न तेल न बाती
    सदा जलता रहता...

    बहुत सटीक और सुन्दर प्रस्तुति..

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