Thursday, June 16, 2011

कविता -4

सत्ता की परछाईया
चाटकर
गली के
स्वान
उगल रहे
अभिमान
खुद को
राजा
गरीब को प्रजा
कह रहे है ,
बेदखली का
कैसा जनून
रूप धर कर
श्रम-फल-हक़
तक
चट कर रहे है ....नन्द लाल भारती १६.०६.२०११

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