Sunday, April 12, 2015

खण्ड -खंड को अखंड बना दो /कविता

खण्ड -खंड को अखंड  बना दो /कविता 
अपनी जहां में  दलित होने के मायने 
रिसते जख्म का सुलगता एहसास 
हक़-अधिकार से  वंचित 
तरक्की से बेदखल वह सख्स 
जीता है जो दर्द का  पीकर 
बुनता है सपने रंजो गम भूलकर………… 
जातिवाद के तपते रेगिस्तान पर
मानवता की राह तलाशता कहता 
हाय रे अपनी  जहां के  कातिलो 
ये कैसा गुनाह कर दिया 
आदमी की छाती पर 
विष की खेती कर दिया ............. 
हाय रे आदमियत के दुश्मन 
मनुस्मृति वाले मनु महराज 
आज का आदमी भी 
नहीं समझ पाया तुम्हारा राज 
विखंडित आदमी खण्डित  देश 
कैसा बना  गए नफ़रत भरा परिवेश……………
अरे अपनी जहां वालो , अब तो जागो 
यही है साथ -साथ चलने का वक्त 
मनु को अपनी जहां से मिटा  दो 
ऊँच नीच की  हर दीवार ढहा  दो 
खण्ड -खंड को अखंड  बना दो 
अपनी जहां को धरती का ,
धरती का स्वर्ग बना  दो ……………

डॉ नन्द लाल भारती 12 .04 .2015

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