Tuesday, April 26, 2011

आहुति

आहुति
भविष्य से हुई जंग का
हारा हुआ
सिपाही हो गया हूँ

जनाजा निकल चुका है
मेरे सपनों का
बचा भी क्या है ?
मेरे पास कुछ नहीं
बस
कुछ मीठा दर्द ,
कुछ यादे
और
शब्दों का भरापूरा
संसार।
शब्दों कि नईया में
बैठकर
पार कर लेता हूँ
बड़ी-बड़ी तूफानी
राते।
कुछ विचलित
सा
हो गया हूँ
नकाबपोशो की भीड़ में ।
कही और न छल ले
किसी अमानुष का
स्वार्थ
अथवा
कोई और
मानवता विरोधी साजिश ।
मन आहत हो गया है ,
भविष्य क्षत -विक्षत भी ।
खौफजदा रहने
लगा हूँ ,
भविष्य के आईने में
झांक कर ।
चाहता हूँ
किसी गरीब का
सपना
ना उजड़े ।
आओ पत्थरो के
शहर में
बूत बने लोगो पर
संवेदना के फुहार
कि डाले
आहुति
ताकि
संवर सके
दीन हीन का भविष्य ......नन्द लाल भारती

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