आदमी अकेला है ॥
अपनी ही खुली आँखों के
ख्वाब
डसने लगे है
अकेला है जहा में
फुफकारने लगे है
फजीहत के दर्द पीये
जख्म से वजूद सींचे
भूख पसीने से धोये
सगे अपनो के लिए
जिए है ।
वक्त हँसता है
ख्वाब डराता है
कहता है
जमाने की भीड़ में
अकेला है
कैसे मान लू
हाड निचोड़ा किया-जिया
सगे अपनो के लिए
क्या वे अपने
सच्चे नहीं ?
अपनो के सुख-दुःख की
चिंता में डूबा रहा
खुद के अपनो की ना थी
फिकर
खुद की आँखों के सपने
धुल गए
अपने-सपने
सगो में समा गए ।
सच है
त्याग सगे
अपनो के लिए
गैर-अपनो के लिए
क्या किये ?
कर लो विचार
मंथन का वक्त है
सच कह रहा
वक्त
आदमी अकेला है
दुनिया का साजो-श्रींगार
झमेला है ।
सगे अपनो के लिए
दागा-धोखा
गैर के हक़ लहू से
किस्मत लिखना ठीक नहीं
मेहनत-सच्चाई -ईमानदारी से
सगे अपनो की नसीब
टांके चाँद तारे
दुनिया का दस्तूर है
प्यारे
गैरों की तनिक करे
फिकर
दान-ज्ञान-सत्कर्म हमारे
वक्त के आरपार
साथ निभाते
जमाने की भीड़ में
हर आदमी अकेला
ध्यान रहे हमारे ....नन्द लाल भारती
Tuesday, April 5, 2011
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