Tuesday, April 1, 2014

भेदभाव की तपती लू /कविता

भेदभाव की तपती लू /कविता
आहत आज स्वर्णिम आभा की ,
आग उगलती लू से ,
सच यही लू
राख कर रही है सदियों से
हक़ ,कर्म-श्रम- सृजन
और कुछ अपनी जहां में..........
मुखौटाधारी रोप रहे हैं
जातीय-भेद नफ़रत ,भ्रष्ट्राचार
साजिश दगाबाजी की विषबेल
दिल पर जमी उनके
सदियो पुरानी मेल
दमन की आग उगलती रहती है ………
विषबेल रोपने वाले,धोखा देने वाले
आदमियत का क़त्ल करने वाले
चढ़ते जा रहे है शिखर
हड़फोड़ाने वाला जिसकी जहां
जिसका हक़ वही
प्यासी निगाहों से ताक रहा
अपनी जहां में…………।
भेद शोषण अत्याचार की आग
उगलती लू
लहुलुहान किये रहती है
कमजोर नीचले तबके के आदमी का जीवन
और तबाह होता रहता है
कल भी अपनी जहां में ………।
यही है वह आग सदियों पुरानी
स्वाहा कर रही है जो
हाशिये के आदमी की तरक्की
और आदमी होने का सुख भी
बो रही हा दमन के बीज निरंतर
सच आज की स्वर्णिम आभा में भी
शोषित दमित अहक-अहक दहक रहे
भेदभाव की तपती लू से ,
आज भी अपनी जहां में। …………
डॉ नन्द लाल भारती 01 .04 2014.

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