Thursday, March 24, 2011

मन में तो बस स्वार्थ पलते है

मन में तो बस स्वार्थ पलते है।।
कभी फला-फ़ूला करते थे रिश्ते ,
फलदार पेड़ो की छांव
हुआ करते थे रिश्ते ।

सामाजिक -जातीय रिश्तो से
ऊपर थे
दफ्तर के रिश्ते,
अंतिम पडाव
तक
थे चलते
जीवन का बसंत
रोज आठ घंटे का साथ
मिलते -बनते -
बंटते -जुड़ते जज्बात ।
कहते भले कम थी
तनख्वाह
सुख -दुःख -दायित्वबोध की
नेक परवाह।
रस्साकसी-पद का अभिमान
तनख्वाह भी बढ़ गयी
बौने रिश्ते
छोटे-बड़े के बीच खाई
संवर गयी।
वाह्य आकर्षण लुभा तो जाते
बगल की खंजर से
कलेजे पर घाव कर जाते ।
बेगुनाह उच्चशिक्षित की
कैद हो गयी तकदीर
ऊँची आँखों में
गुनाहगार हो गया फ़कीर।
भूले-भटके संवार दूरी
कुछ हाथ हिला जाते
कहते
छोटे लोगो से हाथ मिला
मान क्यों घटाए ।
क्या हो गे आज
रिसने लगे है
रिश्ते
आकर्षण धोखा
मन में तो
बस
स्वार्थ है पलते ....नन्दलाल भारती .१८.०३.२०११




No comments:

Post a Comment