Thursday, March 1, 2012

कैसा मिल रहा है घाव..........

हे विधना ये कैसा ....
मिल रहा है घाव
माँगा ना था जो कभी
क्या-क्या नहीं किया
ठगी नसीब सवारने के लिए
तन को गार दिया
जीवन की पूंजी ज्ञान और
तालीम का दान भरपूर
मन की खुली किताब से
मान
नसीब अपनी वही
ढाक के तीन पात;
जाति वंश की तुला पर
आँक कर घाव दिए
क्या यह अन्याय नहीं
विधना तू तो जनता है
असली गुनाहगार
कौन है....?
मैं गुनाहगारो से मिल रहे
घावों के दर्द से
हर पल कराहता रहता हूँ
आबरू पर कीचड़ उछाला जाता रहा है
हक़ से बेदखल किया जाता रहा हूँ
पद-दलित बनाये रखने के
चक्रव्यूह में फंसता रहा हूँ
दर्द और तंगी के दल-दल में
धंसता रहा हूँ
ऐसे छेदते दर्द में विधना
तनिक विस्मृत नहीं हुई तुम्हारी
याद
तुम्हे ही तो हाजिर-नजीर मान कर
पार कर लेता हूँ
आदमी द्वारा बिछाया हर
चक्रव्यूह और
हर अग्निपरीक्षा भी
यकीन है मुझे विधना
पद-दलित के अभिशाप से
मुक्त हो जाउंगा
मेरे साथ तुम बने रहोगे
और
मैं तुहारे
यही मेरे जीवन की जीत होगी.............नन्दलाल भारती....०२.०३.२०१२

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