Monday, October 22, 2012

दर्द का रिश्ता पनपने लगा ....

अपनी जहां में लगने लगा है
दिल की बात पर मन भी
यकीन करने लगा है
पाखंड लाख हो तो क्या
सच पर मन थमने लगा है ...........................
ज़माने के लोग भले न समझे
दर्द की परिभाषा
नयनो के पानी का मोल
क्यों ना गढ़ते  रहे
आदमी के बीच नफ़रत के समंदर
डूबते रहे उतिरियाते रहे
कसम के अन्दर
उन्हें भी सच लगने लगा है
दर्द का रिश्ता बडा लगने लगा है .............
कल की  ही बात है
अमानुषो  की बस्ती से गुजरे थे
आदमी के वेश में आदमी लग रहे थे
सच तो था वे आदमियत से दूर पड़े थे
गुमान था खुद की बोयी लकीर पर
बिरादरी को आदमियत से बड़ी कह रहे थे ........
एक नव जवान धिक्कारा
भूल जाओ बीती नफ़रत की राते
आदमी के बीच जातिभेद की
खूनी लकीर नं अब खींचो
आदमियत को सद्प्रेम से सींचो
नव जवान मौन तोड़ चूका था
जातिवाद का भ्रम टूटने लगा था ........
नव जवान की हुंकार से
आदमियत का बदल छाने लगा
अपनी जहां में भी
दर्द का रिश्ता पनपने लगा ........ नन्द लाल भारती ...23.10.2012

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